कविता
अँगीठी बना चेहरा
अर्पण कुमार
दरवाजे के आगे
कुर्सी पर बैठा
खुले, चमकते
आकाश को निहारता
फैलाए पैर, निश्चिंतता से
पीता तेज धूप को
जी भर
आँखें बंद किए
तुम्हें सोच रहा हूँ
... ... ...
और तुम आ गई हो
दुनिया की
सुध-बुध भुलाती
मेरी चेतना में
मेरी पेशानी पर
दपदपाती, चमकती
बूँदों की शक्ल में
जैसे आ जाती है
कोयले में
सूरज की लाली
या फिर
अँगीठी की गोद में
उग आते हैं
नन्हें-नन्हें
कई सूरज चमकदार
लह-लह करते
कोयलों के
तुम तपा रही हो
मेरे चेहरे को
और मेरा चेहरा
अँगीठी बन गया है
जिस पर तुम
रोटी सेंक रही हो
मेरे लिए ही,
तुम्हारे सधे हाथों की
लकदक करती उँगलियाँ
जल जाती हैं
झन्न से
छुआती हैं जब
गर्म किसी कोयले से
और झटक लेती हो तुम
तब अपना हाथ
तुर्शी में एकदम से
मगर बैठे हुए
जस का तस
भूख के पास
स्वाद की दुनिया रचती
बैठकर मेरी पेशानी पर
चुहचुहा रही हो तुम
बूँद-बूँद में ढलकर
मैंने ढीला छोड़ दिया है
अपने अंग-अंग को
तुम उतर रही हो
आहिस्ता-आहिस्ता
पोर-पोर में
और मैं
उठना नहीं चाह रहा हूँ
कुर्सी से
जो प्रतीत हो रही है
अब तुम्हारी गोद
पृथ्वी का
सबसे अधिक सुरक्षित
सबसे अधिक गरम
कोना, मेरे लिए।
..........
#KAVYOTSAV -2