कविता
आँखें
अर्पण कुमार
आँखें हैं कि पानी से
भरी दो परातें
जिनमें उनींदी तो
कुछ अस्त व्यस्त सी चाँदनी
तैरती है चुपचाप
पीठ तो कभी पेट के बल,
सतह पर तो
कभी सतह के नीचे,
कदंब की एक टहनी
हटाकर जिनमें
कोई दीवाना चाँद
डूबा रहता है देर तक
आँचल फैलाए दूर तक
और बैठी हुई
बड़ी ही तसल्ली से
रात्रि
जिनकी कोरों मे काजल लगाती है,
जिनकी चमक से सबेरा
अपना उजास लेता है,
जिनके पर्दों पर टिककर
ओस अपने आकार ग्रहण करते हैं,
रात की रानी झुककर जिनपर
अपना सुगंध लुटाती है
ये वही परात हैं
जिनकी स्नेह लगी सतह पर
रात्रि अपना नशा गूँथती है,
ये वही परात हैं,
दुनिया के सारे सूरजमुखी
बड़े अदब से
दिन भर
जिनके आगे झुके रहते हैं
और साँझ होते ही
दुनिया के सारे भँवरे
जिनकी गिरफ़्त में आने को
मचलने लगते हैं
कल-कल करते झरने का
सौंदर्य है इनमें
छल-छल छलकते जल से
भरी हैं ये परात,
ये परात
दुनिया की सबसे खूबसूरत
और ज़िंदगी से मचलती हुई
परात हैं
ये परात हैं तो मैं हूँ
कुछ देखने की
मेरी लालसा शेष है
मेरी महबूबा की पलकें,
इन परातों के झीने और
पारदर्शी पर्दे हैं
जब वह अपनी पलकें
उठाती है,
परात का पूरा पानी
मेरी चेतना पर आ धमकता है
मैं लबालब हो उठता हूँ पोर पोर
मेरा पूरा देहात्म चमक उठता है
जिसकी प्रगल्भ तरलता में
सोचता हूँ,
क्या है ऐसा इन दो परातों में
कि दुनिया की
सारी नदियों का पानी
आकर जमा हो गया है इनमें ही
कि पूरे पानी में
बताशे की मिठास घुली है
और बूँद-बूँद में जिसकी
रच बस गई है
केवड़े की खुशबू ।
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#KAVYOTSAV -2