हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन...अंतिम भाग
वनस्पति, पानी, मिटटी, अग्नि और अन्य सभी जलचर, थलचर, एवं खेचर (आकाश में भ्रमण करने वाले) जीवों के समन्वय एवं संतुलन से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। इन्हे नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। आज पशुओं की हिंसा करना एक व्यापार हो गया है। पशुओं के रक्त, खाल एवं चर्बी का उपयोग विभिन्न सौंदर्यपरक वस्तुओं में किया जाता है जो अत्यंत शर्मनाक है।
इसीलिए संत कबीर ने निम्न शब्दों में अपनी प्रभावपूर्ण बात कही है- "दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय। मुई खाल की सांस सौं, सार भस्म हुवै जाय।" अर्थात-कबीरदास जी कहते हैं कि दुर्बल, निर्बल या कमजोर व्यक्ति को कभी भी नहीं सताना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसको बड़ी हाय लग सकती है अथवा बहुत बड़ी हानि हो सकती है, जिस प्रकार मरे हुए जानवर की निरीह खाल से, जिससे धौंकनी बनती है, में इतनी ताक़त होती है जो कि लोहे तक को भस्म कर देती है, तो यह तो जीवित इंसान का मामला है।
जिस निर्दयता से पशुओं का क़त्ल हो रहा है, उसे देख कर तो मानवता भी काँप उठती है, गोमांस, मेढकों की टांगें व् बंदरों का निर्यात कर पर्यावरण का भी क़त्ल किया जा रहा है। मनुष्य की क्रूरता पर किसी ने सच ही कहा है-"पेट भर सकती है जब तेरा फ़क़त दो रोटियाँ। क्यों ढूंढ़ता फिरता है बेजुबान की बोटियाँ।" आज मनुष्य इतना क्रूर होगया है कि वह अपने क्षण भर के स्वाद के लिए एवं थोड़े से लालच के वशीभूत होकर यह भी देखना गवारा नहीं करता की इससे धर्म की हानि अथवा देश की संपत्ति का विनाश अथवा पर्यावरण को नुकशान हो रहा है।
इसीलिए ग्रंथों में भी भिन्न-2 स्थानों पर इस सम्बन्ध में ऐसे दुष्कर्मों की निंदा की गयी है- "मांस भक्षये: सूरापाने, मूर्खश्चाक्षर वर्जिते, पशुभिः पुरूषाकारैरभा, क्रांतही मेदिनी।" अर्थात-मांस खाने वाले, शराब पीनेवाले, मूर्ख और निरक्षर, ये दरअसल मनुष्य के रूप में पशु ही हैं, जिनके भार से पृथवी भी आक्रान्त रहती है।
—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)