हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन....तृतीय भाग
विश्व में जितने भी धर्म एवं दर्शन हैं उनमे से अधिकांश दर्शनों एवं धर्मों में प्रायः अन्य जीवों को किसी प्रकार की हानि, दुःख आदि न पहुँचाने की बात कही गयी है वेद-व्यास जी से सारे पुराण एवं धर्म-ग्रंथों का संक्षिप्त सार पूछा गया तो उन्होंने बताया-"अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनं द्वयं। परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम।"
अर्थात-परजीवों के हित या उपकार के समान पुण्य नहीं और परजीवों को पीड़ित करने के समान दूसरा कोई पाप नहीं है।तुलसीदासजी ने भी कुछ यही भाव प्रकट करते हुए कहा है-"परहित सरिस धर्म नहीं भाई. परपीड़ा सम नहीं अघमाई." विश्व के सभी धर्म मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए ही बने हैं।
चैतन्य चरितामृत के अनुसार-"जीवे दया नामे रूचि, वैष्णव सेवन, एइ त्रय धर्म आछे सुनो सनातन।" अर्थात-जीव मात्र पर दया, भगवान के प्रति प्रेम और मनुष्य मात्र की सेवा-ये ही तीन श्रेष्ठ धर्म हैं।आचारांग में इस बात को सिद्ध किया गया है कि पृथ्वीकाय जीवों को वैसी ही वेदना का अनुभव होता है जैसी मनुष्य को उसके शारीरिक अंगो का छेदन-भेदन करने से पीड़ा का अनुभव होता है। मनुष्य उस पीड़ा को अभिव्यक्त कर देता है परन्तु पृथ्वीकाय जीव उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते। पेड़-पौधे अथवा वनस्पतियाँ इसी श्रेणी में आते हैं।
प्रकृति-प्रदत्त वनरूपी अनोखी अमूल्य सम्पदा को मानव ने अपने लालच एवं स्वार्थवश असीमित हानि पहुंचाई है। कभी उन्हें बेरहमी से काटकर, कभी लापरवाही से आग लगाकर तो कभी पशु-पक्षियों को मार कर जिससे पर्यावरण को अत्यंत खतरा उत्पन्न हो गया है एक ओर हम पर्यावरण की बात करते हैं और दूसरी ओर आर्थिक विकास की दौड में इसे नष्ट करने पर तुले हुए हैं। (जारी है...४)
—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)