लघुकथा
#मज़हब
ऑफिस से आकर अभी कपड़े बदल ही रहा था कि बाहर से आती आवाज़ ने अशरफ को दरवाजा खोलने पर मजबूर कर दिया। बाहर निकला तो सामने रहीम चचा थे।
"अस्सलाम ओ अलैकुम चचाजान! आइये बैठिये न!"
"अलैकुम ओ अस्सलाम। उठना-बैठना तो होता ही रहेगा। तुम ज़रा अपनी बेगम का ख्याल रखा करो।" चचा ने राजदार अंदाज़ में अशरफ की आँखों में सीधे झाँकते हुए कहा।
" अरे! क्या हुआ चचाजान! बताइए तो सही।"
"मोहतरमा आज बेटे को काफिरों के भगवान के वेश में सरे-बाजार घुमा रही थीं।"
"तो इसमें कौन सी बड़ी बात हो गयी?"
"लाहौल बिला कुव्वत! यह हमारे मज़हब के लिये ठीक नहीं है।"
"आपके पोते रेहान मियाँ का जन्म भी संयोग से मथुरा में ही हुआ था। जब हॉस्पिटल में उसे खून की सख्त जरूरत थी तो कोई अंजान काफ़िर ही खून दे गया था। आप उम्रदराज हैं, आपको तो नफरत से बचना चाहिए।"
"जनाब! दोनो अलग-अलग बातें हैं।"
"चचा, जावेद भाई के जद्दा जाने से पहले आप को भी दुर्गा मेला में बाँसुरी बजाते खूब देखा है।"
"नासमझ हो तुम! क्या तुम्हें नहीं लगता कि हमारे मज़हब को कमजोर करने की साजिश हो रही है?
"कृष्ण भगवान के रूप में बच्चे को सजाने से, होली और ईद साथ-साथ मनाने से, छठ पूजा का प्रसाद खाने से आपका मज़हब कमजोर होता होगा, हमारा नहीं!"
"या अल्लाह! इस नाचीज़ पर रहम कर!"
"चचा,अल्लाह को बीच में मत लाइये। मज़हब आपका कमजोर हो रहा है, अल्लाह का नहीं। अल्लाह आपको सलामत रखे। तशरीफ़ ले जाइये....!"
©मृणाल आशुतोष