मैं चल रहा था या रात समजमें नहीं आया,
मैंने भी अंधेरे निकाल लिए जेब से
खुर्दरे सन्नाटे बज़्म में बैठने को बेक़रार थे
दिन की टहेनी पे पक्की हुई रात को तोड़ के पूरी चूस जाने को जी चाहा।।।।
पर रात टूट पड़ी मुझ पर चूसने लगी मुझे,
मेरे अँधेरे ख्वाबो पर उजालो की सलवटें पड गईं
फिर मैं भी मेरी उँगलियों पे चिपकी रोशनी चाटने लगा
पर में पूरी तरह चाट न सका, उसकी बुँदे सरक के पहुँच जाती थी कोहनी तक।।।
पर एक दो बूंद जो मुँह में गई, घुल गई मेरे अंदर के अंधेरे से गाढ़ा कर दिया मेरे अंदर के अंधेरे को ।
बस उसी रात से अंदर दिया जलाके बैठेते है ।।।।।।।
अमित चावडा(all rights reserved)