मैं और मेरे अह्सास
ग़लत फ़हमी के सिलसिले बढ़ते ही गये l
और दूरीयो की सीडियां चढ़ते ही गये ll
ज़ख्मी होकर भी मुस्कुराते रहते हैं और l
हर लम्हा परिस्थितियों से सहते ही गये ll
महज़ ख़ामोश रहकर वक्त बिताते हैं कि l
दर्द को हमराह बनाकर बहते ही गये ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह