शतरंज की बिसातें बिछती हैं
न जाने कितनी बेटियाँ
हवस की बलि चढती हैं
निकलना मुश्किल होता उनका घरों से
सिसकियाँ दीवारों के पीछे दबती हैं
गलती नहीं उसकी फिर भी
वो घुट घुट कर जीती है
छिपाकर अपना मुखड़ा
घरों से नहीं निकलती है
गलती करने वाला वो
हवस का पुजारी
अभिमान के साथ जीता है
कीड़े मकोंडे समझकर उनको
अपने हवस के लिए रौंदता हैं
रात का अंधेरा हो या
दिन का उजाला
शतरंज बिछाने वाला
सिर ऊँचा करके घूमता हैं
डर नहीं उनको किसी का
सिसकियाँ तो बंद कमरे का हिस्सा है
✍️🌹🦋🌹देवकी सिंह🌹🦋🌹
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