एक केवल सुख साधन के हित
मानव पीता है अनंत विष।
उसकी कल्पना में साधना का नाम नहीं।
यूं अबूझ बन जीवन भर करता है किट किट।
एक केवल.......
नाना कार्य पड़े जग भीतर फिर भी रटत करूं क्या ?
न गुरु को न हरी को रिझाया।
और कहत स्वयं को कर्मन फूटा।
एक केवल.....
हुई शाम तो घर को लौटा।
हाथ में न एक सिक्का खोटा।
मन में व्यापे सर्व रोग और शरीर कलुषित।
-Anand Tripathi