Hindi Quote in Poem by Manoj kumar shukla

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कैकेयी संँग मंथरा, का है विकट प्रलाप ।
मानव के सुख-भाग्य को, दे देतीं हैं श्राप।।

इन्द्रियजित दशरथ रहे, थे पृथ्वी सम्राट।
विजयी रथ के वे रथी, भूल गए सब घाट।।

जिन्दा होकर भी मरे, गए चिता में लेट।
दशरथ की अर्थी सजी, कैकेयी-आखेट।

मन मंदिर में मंथरा, डाल रही अवरोध।
जिसने काबू में किया, उसे कर्म का बोध।।

निजी स्वार्थ में फँस गया, नारी का विश्वास।
किसने जाना भाग्य को, रूठेगी यह साँस।।

राजपाट यह सम्पदा, कभी न आती काम।
छोड़ सभी कुछ सब यहाँ,जाते हैं प्रभु धाम।।

मन पछताता है नहीं, जो करते सत्कर्म।
राम कृपा उसको मिले, यह जीवन का मर्म।।

मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
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Hindi Poem by Manoj kumar shukla : 111743156
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