नियति के खेल समझ नहीं आते. मैं तो सब कुछ ठीक ही छोड क़र आई थी उस दोपहर. मेरे लिए तो, तुम्हारी शादी हो चुकी थीसब कुछ प्यारा और सही था. फिर ऐसा क्या हुआ कि तुम्हारा सब कुछ बिखर गया, तुम अकेले रह गए. तुम्हारे उदास एकान्त ने मुझे कल ट्रेन में पूरी रात जगाया है.
रोष होता रहा था अपनी अभिशप्त कलम पर कि मेरा लिखा तुम्हारे भाग्य की व्यंग्य - छाया बन क्यों बन गया. हाँ , मैं ने देखा है, कई बार अनजाने में अपनी ही कलम से प्रयोग किए गए शब्दों पर मुझे प्र्रायश्चित करना पडा है. गंधर्व या देवपुरूष तक तो ठीक था 'श्राप ग्रस्त ' विशेषण क्यों दिया था? हाँ , उन लिजलिजे भावुक दिनों में मैं ने उस पर लिखी दर्जनों कविताओं के बीच तुम पर भी एक कविता लिखी थी
''उसका और मेरा
एक ही क्षीण सा संबन्ध है
हंसी का झरना
जो तुमसी महानद से होकर
मुझ तक बहता है
जब उसकी और मेरी कल्पना
एक हो जाती है तो
हम दोनों के बीच यह निर्झर
अकसर फूट पडता है
हंसते वक्त उसकी आंखें मुंद जाती हैं
और उसे देख, मेरे नेत्र अप्रतिभ!
इस यांत्रिक युग में
इस सरल, निश्छल, हासरचित युवक को
देखकर लगता है
कोई श्रापगस्त गंधर्व
मृत्युलोक में आ गया है.
जन्मदिन मुबारक मनीषा कुलश्रेष्ठ