Quotes by Nagendra Dutt Sharma in Bitesapp read free

Nagendra Dutt Sharma

Nagendra Dutt Sharma

@nsharma3livecom
(14)

आपके मस्तिष्क के चमत्कार
दिमाग़ अथवा मस्तिष्क ही इन्सान के अन्दर वह अवयव है जिसके माध्यम से मनुष्य सोच बनाता है. उसके फलस्वरूप वह अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न करता है।. यही ‘विचार’ उसे एक अनोखी शक्ति का स्वामी बनाते हैं।. विचार किसी भी प्रकार के हो सकते हैं।मनुष्य को अनेक प्रकार की विशिष्टताएं प्राप्त हैं जिन्हे वह चाहे तो सार्वभौमिक सत्यों एवं नियमों पर विश्वास कर तदनुसार कार्य कर मनचाहे परिणाम हासिल कर सकता है। वास्तव में मनुष्य इस ब्रह्माण्ड का एक ऐसा जीव है जिसे ईश्वर ने दिमाग़ जैसी चीज़ देकर उसे अद्भुतता की श्रेणी में खड़ा कर दिया है।हमारे मस्तिष्क को जागृत करने के लिये जिस प्रकार कुछ तरीके हैं, और जिनको व्यवहार मे लाने के उपरान्त हम अपने जीवन मे महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं क्योंकि उन्नति के लिये परिस्थितियों मे बदलाव लाना ही महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क को हानि पहुंचाने वाले कुछ विषैले तत्व भी हैं जिनके कारण हमारी मस्तिष्क की शक्ति कुंठित हो जाती है। उनसे बचना भी जरूरी है।मनुष्य को कौन से तौर-तरीके अपनाने चाहिए जिससे उसका मस्तिष्क हमेशा सही दिशा में कार्य करे और उसे जीवन के हर मोड़ पर उन्नति करने का मौका मिले, उसे हमेशा जीत हासिल हो सके, और जीवन पर्यन्त वह अपने लघु जीवन को खुशहाली एवं स्वस्थता के साथ आनन्दपूर्वक गुज़ार सके।इस पुस्तक में दी गयी सोच-विचार की तकनीकों, विधियों एवं दुनियादारी निभाने की तरकीबों पर जितने अच्छे ढंग से आप अमल करेगें उतनी ही जल्दी सफलता की मंजिल तय कर पाएगें। यह पुस्तक निश्चित रूप से आपका भविष्य उज्ज्वल बना सकती है, अवश्य पढ़ें।

Read More

हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन...अंतिम भाग

वनस्पति, पानी, मिटटी, अग्नि और अन्य सभी जलचर, थलचर, एवं खेचर (आकाश में भ्रमण करने वाले) जीवों के समन्वय एवं संतुलन से इस संसार की उत्पत्ति हुई है। इन्हे नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। आज पशुओं की हिंसा करना एक व्यापार हो गया है। पशुओं के रक्त, खाल एवं चर्बी का उपयोग विभिन्न सौंदर्यपरक वस्तुओं में किया जाता है जो अत्यंत शर्मनाक है।

इसीलिए संत कबीर ने निम्न शब्दों में अपनी प्रभावपूर्ण बात कही है- "दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय। मुई खाल की सांस सौं, सार भस्म हुवै जाय।" अर्थात-कबीरदास जी कहते हैं कि दुर्बल, निर्बल या कमजोर व्यक्ति को कभी भी नहीं सताना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से उसको बड़ी हाय लग सकती है अथवा बहुत बड़ी हानि हो सकती है, जिस प्रकार मरे हुए जानवर की निरीह खाल से, जिससे धौंकनी बनती है, में इतनी ताक़त होती है जो कि लोहे तक को भस्म कर देती है, तो यह तो जीवित इंसान का मामला है।

जिस निर्दयता से पशुओं का क़त्ल हो रहा है, उसे देख कर तो मानवता भी काँप उठती है, गोमांस, मेढकों की टांगें व् बंदरों का निर्यात कर पर्यावरण का भी क़त्ल किया जा रहा है। मनुष्य की क्रूरता पर किसी ने सच ही कहा है-"पेट भर सकती है जब तेरा फ़क़त दो रोटियाँ। क्यों ढूंढ़ता फिरता है बेजुबान की बोटियाँ।" आज मनुष्य इतना क्रूर होगया है कि वह अपने क्षण भर के स्वाद के लिए एवं थोड़े से लालच के वशीभूत होकर यह भी देखना गवारा नहीं करता की इससे धर्म की हानि अथवा देश की संपत्ति का विनाश अथवा पर्यावरण को नुकशान हो रहा है।

इसीलिए ग्रंथों में भी भिन्न-2 स्थानों पर इस सम्बन्ध में ऐसे दुष्कर्मों की निंदा की गयी है- "मांस भक्षये: सूरापाने, मूर्खश्चाक्षर वर्जिते, पशुभिः पुरूषाकारैरभा, क्रांतही मेदिनी।" अर्थात-मांस खाने वाले, शराब पीनेवाले, मूर्ख और निरक्षर, ये दरअसल मनुष्य के रूप में पशु ही हैं, जिनके भार से पृथवी भी आक्रान्त रहती है।

—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)

Read More

हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन....तृतीय भाग

विश्व में जितने भी धर्म एवं दर्शन हैं उनमे से अधिकांश दर्शनों एवं धर्मों में प्रायः अन्य जीवों को किसी प्रकार की हानि, दुःख आदि न पहुँचाने की बात कही गयी है वेद-व्यास जी से सारे पुराण एवं धर्म-ग्रंथों का संक्षिप्त सार पूछा गया तो उन्होंने बताया-"अष्टादश पुराणेषु, व्यासस्य वचनं द्वयं। परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम।"

अर्थात-परजीवों के हित या उपकार के समान पुण्य नहीं और परजीवों को पीड़ित करने के समान दूसरा कोई पाप नहीं है।तुलसीदासजी ने भी कुछ यही भाव प्रकट करते हुए कहा है-"परहित सरिस धर्म नहीं भाई. परपीड़ा सम नहीं अघमाई." विश्व के सभी धर्म मनुष्य मात्र के कल्याण के लिए ही बने हैं।

चैतन्य चरितामृत के अनुसार-"जीवे दया नामे रूचि, वैष्णव सेवन, एइ त्रय धर्म आछे सुनो सनातन।" अर्थात-जीव मात्र पर दया, भगवान के प्रति प्रेम और मनुष्य मात्र की सेवा-ये ही तीन श्रेष्ठ धर्म हैं।आचारांग में इस बात को सिद्ध किया गया है कि पृथ्वीकाय जीवों को वैसी ही वेदना का अनुभव होता है जैसी मनुष्य को उसके शारीरिक अंगो का छेदन-भेदन करने से पीड़ा का अनुभव होता है। मनुष्य उस पीड़ा को अभिव्यक्त कर देता है परन्तु पृथ्वीकाय जीव उसे अभिव्यक्त नहीं कर पाते। पेड़-पौधे अथवा वनस्पतियाँ इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रकृति-प्रदत्त वनरूपी अनोखी अमूल्य सम्पदा को मानव ने अपने लालच एवं स्वार्थवश असीमित हानि पहुंचाई है। कभी उन्हें बेरहमी से काटकर, कभी लापरवाही से आग लगाकर तो कभी पशु-पक्षियों को मार कर जिससे पर्यावरण को अत्यंत खतरा उत्पन्न हो गया है एक ओर हम पर्यावरण की बात करते हैं और दूसरी ओर आर्थिक विकास की दौड में इसे नष्ट करने पर तुले हुए हैं। (जारी है...४)

—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)

Read More

हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन- द्वितीय भाग

आज जब पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, पशु-पक्षी, जंतु एवं पेड़-पौधे मनुष्य की हिंसक वृत्ति के कारण शनै:-शनै: समाप्त होते जा रहें हैं। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने पेड़-पोंधों पर शोध करके यह प्रमाणित कर दिया है कि उनमे भी आत्म-तत्व उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार मनुष्य में है।

अनेक व्यक्ति आजीविका के नाम पर कुछ आमोद-प्रमोद के उद्देश्य और कोई रस-लोलुपता के वशीभूत होकर शारीरिक शृंगार आदि प्रसाधनों के लिए चमडा, मांस, मज्जा, रुधिर, अस्थि एवं दन्त आदि की प्राप्ति के लिए पंचेन्द्रिय प्राणियों की, मधु के लिए मधु-मक्खियों की, रेशम के लिए रेशम के कीड़ों की, आभूषणों के लिए सीप-मूंगा आदि जीवों का प्राणघात करते हैं।

मनुष्यों द्वारा अपनी सामान्य मौज-मस्ती के लिए अक्सर अनेक प्राणियों का प्राणघात किया जाता है। सब प्राणियों ने अपनी-अपनी रक्षा के लिए भोजन हेतु दाढ़ एवं दांत, देखने के लिए नेत्र स्वाद के लिए जिव्हा, आदि अंग-उपांग अपने पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त किये हैं। इनको उनसे छीन लेने का अधिकार किसी भी मनुष्य को नहीं है, क्योंकि वह जब किसी को प्राण दे नहीं सकता तो लेने का अधिकारी कैसे हो गया?

मनुष्य अपने आपको संसार का सबसे श्रेष्ठ प्राणी समझता है, इसी कारण अन्य प्राणियों के प्रति उसका दृष्टिकोण भिन्न है एवं उदारतापूर्ण नहीं है। समस्त प्राणी जगत के लिए उदार अथवा मानवीय दृष्टिकोण रखनेवाला व्यक्ति प्रकृति से भी अधिक छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। पर्यावरण विज्ञान प्रकृति के किसी भी हिस्से में हस्तक्षेप को उचित नहीं मानता है। यह समूचा पृथ्वी ग्रह विभिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं से भरा पड़ा है। विभिन्न रंग-रूप, आकार-प्रकार, गुण-धर्म आदि के धारक होने के कारण ये समस्त प्राणी विविधता से युक्त एवं अनेक वर्गों में विभाजित हैं, फिर भी उनमे एक समता है और वह है सचेतनता तथा सभी में आत्मा का निवास है। (जारी है...3)

—नागेंद्र दत्त शर्मा

(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)

Read More

हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन

क्या आप जानते हैं कि पूर्वकाल में हमारे ऋषि-मुनि इस धरती को तथा उस पर बसे हुए खड़े गगनचुम्बी पर्वतों, कल-कल बहती पावन नदियों, पर्वतों तथा आरण्यों पर किस भावना अथवा किस प्रकार से देखते थे? वेदों अथवा पुराणों में पृथ्वी अथवा धरती को किस रूप में वर्णित किया गया है?

निम्न कुछ श्लोकों तथा ऋचाओं से हमें इस सम्बन्ध में जानकारी मिलती है—अथर्व वेद के भूमि सूक्त-12 / 1 में भूमि जिसे माता का दर्जा दिया गया है, से बार-बार प्रार्थना की गयी है कि वह अपने जनो को सुरक्षा प्रदान करे, दीर्घायुश्य दे, धन-धान्य दे, औषधि, जल व् दूध दे तथा यह भूमि विशाल हो, उदार हो। वह भूमि जो नदी-नद से पूर्ण हो, जो प्राणियों को धारण करती है वह हमें अन्न, जल और मधु दे।

इसीप्रकार यह ऋचा देखें-"विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठता हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी"- (अथर्व 12 / 1 / 6) अर्थात-धरती दूध देने के लिए पन्हाइ हुई धेनु है। वह पर्जन्य प्रिया है। वर्षा से जलमयी होकर अनेक प्रकार की वनस्पतियों को उत्पन्न करती है और जीवों को धारण करती है। अथर्व वेद की इस ऋचा में पर्यावरण संस्कृति का उल्लेख मिलता है। इसमें पर्यावरण संस्कृति के उद्भव एवं विकास का बीज दृष्टिगोचर होता है। हालाँकि मनुष्य की गहरी स्वार्थ-लिप्सा ने पर्यावरण एवं संस्कृति के संवेदनशील सम्बंधों को तार-तार कर दिया है।

सभी संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और सांस्कृतिक आचार-विचार तक संसार से बंधे रहने के कारण प्रकृति का स्वरुप माता के रूप में दृष्टिगोचर हुआ। इस ऋचा में देखिये-"सा नो  भूमिवि सृजताम माता पुत्राय में पय:"- (अथर्व 12 / 1 / 10) । अर्थात धरती माता हमारे लिए विविध रसों की सृष्टि करें, जैसे माता पुत्र के लिए करती है। इसीप्रकार  इस ऋचा में भी प्रार्थना का समावेश है। "गिरियस्ते पर्वता हिमवंतो अरण्यम  ते पृथिवी स्योंनमस्तु।"- (अथर्व 12 / 1 / 11) अर्थात-हे मातृभूमि! तेरे गिरी और पर्वत तथा अरण्य हमारे लिए सुखकर हों।

इसीलिए इससे पूर्व हमारे बुजुर्गों ने अनेक प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी इन सबकी महत्ता को भलीभांति समझा और तदनुरूप समय-समय पर आवश्यक कदम उठाये और स्वयं तथा एक-दुसरे की मदद से, श्रमदान के माध्यम से इन सबका सरंक्षण किया, वृक्ष रोपित करके वनो को चिरकाल तक सुरक्षित रखा, जिसमे तरह-तरह के जीव-जंतुओं एवं पक्षियों का सरंक्षण होता रहा जिसका लाभ हमें आज तक भी प्राप्त हो रहा है। (जारी है ...2)
—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म।प्र। में प्रकाशित हुआ)

Read More

बैंक अकाउंट हैक करके ठगाई का एक नया तरीका
जरूर पढ़ें और सावधान रहे.

कल शाम को एक काल आयी, कोई लड़की थी।
बोली,” सर, मैं जॉब के लिए रजिस्ट्रेशन कर रही थी। गलती से आपका नम्बर डाल दिया है, क्योकि मेरे और आपके मोबाइल नंबर में काफी समानता है। आपके पास थोड़ी देर में एक ओटीपी आएगी, प्लीज बता दो सर, ज़िन्दगी का सवाल है।”
बात बिल्कुल सच लग रही थी, मैनें inbox चेक किया, दो मैसेज आये थे। एक पर OTP था, दूसरा एक मोबाइल से आया मैसेज। लिखा था, dear सर, आपके पास जो ओटीपी आयी है, प्लीज इस नंबर पर भेज दीजिये……….Thanks in advance.
मैसेज देख ही रहा था कि फोन दोबारा आया …. मैनें ओके क्लिक किया। वही सुमधुर आवाज। बस नंबर दूसरा था।
” सर, आपने देखा होगा अब तक OTP आ गयी होगी। या तो बता दो या फारवर्ड कर दो उस नंबर पर…” प्लीज…
“बता दूंगा, पर आप पहले एक काम करो..”
“हा सर.. बोलिये..”
“जो नंबर आपनें डाला है रेजिस्ट्रेसन में, वो मेरा नम्बर है और उसी से मिलता जुलता नम्बर आपके पास भी है, तभी आपसे ये गलती हुई , है न?”
“हां सर..”
“ओके, उसी नम्बर से मुझे आप कॉल करो, ताकि मैं वेरीफाई कर सकूं की आप सही हो..”
“वो क्या है सर, उस नम्बर में बैलेंस नही है।सर.. एक लड़की की बात पर आपको भरोसा नही..
“बात लड़की, लड़के और भरोसे की नही है। मैं आपको नही जानता, तो बिना जांचे परखे कैसे भरोसा कर लूं..
” तो रहने दीजिए आप..आप जैसे दुस्ट लोगों की वजह से आज मानवता से लोगों का भरोसा उठ गया है। “
दो चार गालियों के साथ उस लडकी ने फोन काट दिया।
मन भारी हो गया था। शायद मैं ज्यादा अविश्वासी और टेक्निकल होता जा रहा हूँ।
दोबारा से उस नम्बर को डायल करके ओटीपी बताने के लिए फ़ोन उठाया।
तभी, ICICI बैंक का ईमेल नोटिफिकेशन स्क्रीन पर फ़्लैश हुआ। बैंक का नोटिफिकेशन था, देखना जरूरी था।
लिखा था,
Dear Sir/Madam
You are trying to change your internet banking password, click the link below..
मैं सन्न रह गया। मानवता के नाम पर भी इतनी ठगबाज़ी.. धोखेबाज़ी..

मन गुस्से से भर उठा, री-डायल किया, लड़ाई के मूड में..
उधर से जवाब आ रहा था,
SHARED FOR CARE as requested by my friend Iftikar Hasan Ansari with gratitude!

Read More