हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन- द्वितीय भाग
आज जब पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, पशु-पक्षी, जंतु एवं पेड़-पौधे मनुष्य की हिंसक वृत्ति के कारण शनै:-शनै: समाप्त होते जा रहें हैं। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने पेड़-पोंधों पर शोध करके यह प्रमाणित कर दिया है कि उनमे भी आत्म-तत्व उसी प्रकार विद्यमान है जिस प्रकार मनुष्य में है।
अनेक व्यक्ति आजीविका के नाम पर कुछ आमोद-प्रमोद के उद्देश्य और कोई रस-लोलुपता के वशीभूत होकर शारीरिक शृंगार आदि प्रसाधनों के लिए चमडा, मांस, मज्जा, रुधिर, अस्थि एवं दन्त आदि की प्राप्ति के लिए पंचेन्द्रिय प्राणियों की, मधु के लिए मधु-मक्खियों की, रेशम के लिए रेशम के कीड़ों की, आभूषणों के लिए सीप-मूंगा आदि जीवों का प्राणघात करते हैं।
मनुष्यों द्वारा अपनी सामान्य मौज-मस्ती के लिए अक्सर अनेक प्राणियों का प्राणघात किया जाता है। सब प्राणियों ने अपनी-अपनी रक्षा के लिए भोजन हेतु दाढ़ एवं दांत, देखने के लिए नेत्र स्वाद के लिए जिव्हा, आदि अंग-उपांग अपने पूर्व कर्मों के अनुसार प्राप्त किये हैं। इनको उनसे छीन लेने का अधिकार किसी भी मनुष्य को नहीं है, क्योंकि वह जब किसी को प्राण दे नहीं सकता तो लेने का अधिकारी कैसे हो गया?
मनुष्य अपने आपको संसार का सबसे श्रेष्ठ प्राणी समझता है, इसी कारण अन्य प्राणियों के प्रति उसका दृष्टिकोण भिन्न है एवं उदारतापूर्ण नहीं है। समस्त प्राणी जगत के लिए उदार अथवा मानवीय दृष्टिकोण रखनेवाला व्यक्ति प्रकृति से भी अधिक छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। पर्यावरण विज्ञान प्रकृति के किसी भी हिस्से में हस्तक्षेप को उचित नहीं मानता है। यह समूचा पृथ्वी ग्रह विभिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं से भरा पड़ा है। विभिन्न रंग-रूप, आकार-प्रकार, गुण-धर्म आदि के धारक होने के कारण ये समस्त प्राणी विविधता से युक्त एवं अनेक वर्गों में विभाजित हैं, फिर भी उनमे एक समता है और वह है सचेतनता तथा सभी में आत्मा का निवास है। (जारी है...3)
—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म। प्र। में प्रकाशित हुआ)