हिंसा-वृत्ति और पर्यावरण असन्तुलन
क्या आप जानते हैं कि पूर्वकाल में हमारे ऋषि-मुनि इस धरती को तथा उस पर बसे हुए खड़े गगनचुम्बी पर्वतों, कल-कल बहती पावन नदियों, पर्वतों तथा आरण्यों पर किस भावना अथवा किस प्रकार से देखते थे? वेदों अथवा पुराणों में पृथ्वी अथवा धरती को किस रूप में वर्णित किया गया है?
निम्न कुछ श्लोकों तथा ऋचाओं से हमें इस सम्बन्ध में जानकारी मिलती है—अथर्व वेद के भूमि सूक्त-12 / 1 में भूमि जिसे माता का दर्जा दिया गया है, से बार-बार प्रार्थना की गयी है कि वह अपने जनो को सुरक्षा प्रदान करे, दीर्घायुश्य दे, धन-धान्य दे, औषधि, जल व् दूध दे तथा यह भूमि विशाल हो, उदार हो। वह भूमि जो नदी-नद से पूर्ण हो, जो प्राणियों को धारण करती है वह हमें अन्न, जल और मधु दे।
इसीप्रकार यह ऋचा देखें-"विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठता हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी"- (अथर्व 12 / 1 / 6) अर्थात-धरती दूध देने के लिए पन्हाइ हुई धेनु है। वह पर्जन्य प्रिया है। वर्षा से जलमयी होकर अनेक प्रकार की वनस्पतियों को उत्पन्न करती है और जीवों को धारण करती है। अथर्व वेद की इस ऋचा में पर्यावरण संस्कृति का उल्लेख मिलता है। इसमें पर्यावरण संस्कृति के उद्भव एवं विकास का बीज दृष्टिगोचर होता है। हालाँकि मनुष्य की गहरी स्वार्थ-लिप्सा ने पर्यावरण एवं संस्कृति के संवेदनशील सम्बंधों को तार-तार कर दिया है।
सभी संतानोत्पत्ति से लेकर पालन-पोषण और सांस्कृतिक आचार-विचार तक संसार से बंधे रहने के कारण प्रकृति का स्वरुप माता के रूप में दृष्टिगोचर हुआ। इस ऋचा में देखिये-"सा नो भूमिवि सृजताम माता पुत्राय में पय:"- (अथर्व 12 / 1 / 10) । अर्थात धरती माता हमारे लिए विविध रसों की सृष्टि करें, जैसे माता पुत्र के लिए करती है। इसीप्रकार इस ऋचा में भी प्रार्थना का समावेश है। "गिरियस्ते पर्वता हिमवंतो अरण्यम ते पृथिवी स्योंनमस्तु।"- (अथर्व 12 / 1 / 11) अर्थात-हे मातृभूमि! तेरे गिरी और पर्वत तथा अरण्य हमारे लिए सुखकर हों।
इसीलिए इससे पूर्व हमारे बुजुर्गों ने अनेक प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी इन सबकी महत्ता को भलीभांति समझा और तदनुरूप समय-समय पर आवश्यक कदम उठाये और स्वयं तथा एक-दुसरे की मदद से, श्रमदान के माध्यम से इन सबका सरंक्षण किया, वृक्ष रोपित करके वनो को चिरकाल तक सुरक्षित रखा, जिसमे तरह-तरह के जीव-जंतुओं एवं पक्षियों का सरंक्षण होता रहा जिसका लाभ हमें आज तक भी प्राप्त हो रहा है। (जारी है ...2)
—नागेंद्र दत्त शर्मा
(यह लेख सर्व प्रथम पर्यावरण पर पहली राष्ट्रीय हिन्दी मासिक "पर्यावरण डाइजेस्ट / जुलाई, 2008" रतलाम, म।प्र। में प्रकाशित हुआ)