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--- स्वयं की खोज मैं कहती हूँ – समाज बदलना है, दुनिया बदलनी है, पर रुककर सोचती हूँ – क्या मैं जानती हूँ कि मैं कौन हूँ? बिना खुद को समझे, कैसे करूँ बदलाव की बातें? जब आईना ही धुंधला हो, तो तस्वीर साफ़ कैसे होगी? पहले मुझे खुद को पहचानना होगा – मेरे डर, मेरी कमज़ोरियाँ, मेरे सपने और मेरी शक्ति। मुझे ढूँढ़ना होगा मेरे भीतर की उस आवाज़ को, जो सच्चाई की गवाही देती है। दुनिया बदलने की शुरुआत कभी बाहर से नहीं होती, वह जन्म लेती है भीतर से, जब इंसान खुद बदल जाता है। जब मैं खुद को जान लूँगी, अपने भीतर का सच पा लूँगी, तब मेरी हर साँस, हर विचार समाज को नया रंग देगा। बदलाव की पहली चिंगारी हमेशा भीतर से जलती है— और वही चिंगारी दुनिया को उजाला देती है। यही है असली राह, यही है सच्ची खोज— पहले स्वयं को बदलो, फिर दुनिया खुद बदल जाएगी।
--- 🌺 महिला की छुपी हुई शक्ति 🌺 चुप रहती है, पर सब जान जाती, आँखों से ही दिल की बात पहचान जाती। दर्द सहकर भी मुस्कान बाँटती है, अंधेरों में भी उजाला रचती है। उसकी शक्ति दिखती नहीं, पर रहती है भीतर, हर तूफ़ान को मोड़ देती है मुस्कुराकर इधर। एक साथ हज़ार काम सँभाल लेती है, थकान को भी हौसले से ढाँप लेती है। वो केवल माँ, बहन, बेटी या पत्नी नहीं, वो सृष्टि की धड़कन है, वो रूहानी ज्योति है कहीं। महिला की शक्ति है असीम, अडिग और गहरी, उसके बिना अधूरी है यह दुनिया ठहरी।
"आसान नहीं है मंज़िल, फिर भी चल रही राह पर, हौसलों की रोशनी संग, विश्वास है हर एक चाह पर। ठोकरें मिलेंगी कई, पर रुकना नहीं सफ़र में, कदम थाम लेंगे सपने, जीत होगी असर में।"
--- ✨ मीरा और रविदास – भक्ति पद मीरा ने तोड़ी जाति-धर्म की सब दीवार, संसार बंधन छोड़, बना लिया प्रेम का संसार। राजमहल की शोभा त्यागी, सिंहासन भी छूट गया, गिरधर गोपाल के चरणों में जीवन का फूल खिला। गुरु रविदास के चरणों में पाया भक्ति का ज्ञान, “मन चंगा तो कठौती में गंगा” – यही उनका विधान। मीरा ने माना यह वाणी, छोड़ दिया अहंकार, सादगी, भक्ति और प्रेम ही किया जीवन का श्रृंगार। परिवार जग ने समझाया – लौकिक धर्म निभाओ, पर मीरा ने हँसकर कहा – मैं तो गिरधर को चाहूँ। विवाह जगत से हो न सका, प्रेम रहा अनूठा, प्रेम-योगिनी बन मीरा चली कृष्ण-मार्ग अनूठा। साँवरिया ही जीवन-संग, साँवरिया ही प्राण, राज-पाट सब त्यागकर किया कृष्ण को दान। नारी की मर्यादा तोड़ी, जग को दिया संदेश, भक्ति का है मार्ग सच्चा, प्रेम ही ईश्वर देश। आज भी गूँज रही है मीरा की मधुर तान, रविदास के उपदेश से चमका उसका जीवन-प्राण। भक्ति, समानता और प्रेम की अमर मिसाल बनी, मीरा बाई जन-जन के हृदय में आज भी जगी।
--- "उन्मुक्त राह" अज्ञान की परछाइयों में, अब भी बंधा है इंसान, जात-पात के जाल में उलझा, भेदभाव का बना सामान। दहेज, अंधविश्वास, भेद, सबने बाँट दिया समाज, जहाँ बराबरी का सूरज था, वहीं छा गया अन्याय का राज। पर अब उठ रही है चेतना, नवयुवकों के स्वर में जोश, अन्याय की जंजीरें तोड़ें, समानता का करें परोष। ना ऊँच-नीच, ना भेदभाव, सबको मिले बराबर अधिकार, स्त्री-पुरुष का हो सम्मान, यही हो जीवन का आधार। जब हर हाथ को मिले काम, हर दिल में हो प्रेम समान, तभी बनेगा सच्चा भारत, जहाँ मानवता का हो मान।
--- बर्गद का संदेश मैं चली थी राह अजनबी, मन में था बस एक प्रश्न— कैसे मिलूँ मैं अपनी माँ से, कैसे पाऊँ उसका स्पर्श। राह में खड़ा था बर्गद का पेड़, उसकी आँखें चमक रही थीं, उसके होंठ हिल रहे थे धीरे-धीरे, वो जैसे मुझे पुकार रहा था। मैंने कहा — “मुझे अपनी माँ के पास जाना है।” पेड़ मुस्कराया, अपनी जड़ों के आँगन में जगह दी, और मुझे अपने भीतर बैठा लिया। क्षण भर में सब बदल गया— मैं लहरों की आवाज़ सुनने लगी, नमक-सी महक हवा में घुली थी, और मैं पहुँच गई समुद्र के किनारे। वहाँ… माँ खड़ी थी बाहें फैलाए, आँखों में प्रेम का अथाह सागर, उसकी गोद में समाते ही मेरा मन शांत हो गया। बर्गद, समुद्र और माँ— तीनों मिलकर बता रहे थे— “प्रकृति ही है असली माँ, और माँ ही है सृष्टि की जड़।”
--- ज्ञान की रोशनी ज्ञान एक ऐसी रोशनी है, जो हर घर के आँगन से होकर गुजरती है, हर दिल को छूकर जाती है, फिर भी कोई उसे थाम नहीं पाता। क्योंकि लोग बंधे हैं जंजीरों में, जाति, धर्म और परंपराओं के जाल में उलझे हैं, सच सामने खड़ा है साफ़-साफ़, पर आँखें खोलने की हिम्मत किसे है? अंधकार को ही उजाला मान बैठे हैं, पाखंड को ही धर्म कह देते हैं, और सच की पुकार अनसुनी रह जाती है, बस खामोशी के बोझ तले दब जाती है। ज्ञान न किसी का है, न किसी का बंधुआ, वो तो अनंत है, सबके लिए है। जिसने आँखें खोलीं, दिल साफ़ किया, वो रोशनी उसी का मार्ग आलोकित करती है।
--- पतझड़ जैसा जीवन है मेरा पतझड़ जैसा जीवन है मेरा, कभी इधर, कभी उधर भटकता। न जाने कितने रंग की तरंगे, हर पल बदलती, बिखरती रहतीं। कभी हरे पत्तों-सा उम्मीदों से भरा, तो कभी सूखी टहनियों-सा अकेला। समय की आँधी जब मुझसे टकराती, हर सपना जैसे टूटकर बिखर जाता। यादों की झरती पत्तियाँ बतातीं, कि हर खुशी स्थायी नहीं होती। कल जो अपना था, आज पराया है, जीवन की राहें अजनबी हो जातीं। फिर भी हर पतझड़ में छिपा है, एक नये वसंत का संदेश। खोए हुए रंग लौट आते हैं, नई कोंपलें फिर साँसें भरती हैं। हाँ, जीवन बदलता रहता है, हर दिन एक नया रूप धरता है। कभी बुरा, कभी अच्छा लगता, पर हर मोड़ पर सिखा जाता है। पतझड़ जैसा जीवन है मेरा, जिसमें बिखराव भी है, खिलाव भी है। गिरने के बाद भी उठना सिखाता, और उम्मीद की लौ जगाता रहता है।
--- अध्याय 1 – पहाड़ों की यात्रा जब मैंने पहली बार पहाड़ों की चढ़ाई शुरू की, तो मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं थी कि यह अनुभव कैसा होगा। लेकिन जैसे-जैसे मैं ऊँचाई की ओर बढ़ रही थी, अचानक बादलों का आपस में टकराना, फिर हल्की-हल्की बूंदों का गिरना—यह सब मेरे लिए एक नया और अद्भुत अनुभव था। यह मेरे जीवन का पहला अवसर था जब मैं जम्मू-कश्मीर की वादियों में पहुँची। वहाँ पहुँचकर मुझे लगा जैसे कोई अनमोल चीज़ मिल गई हो। पहले मैं सोचती थी कि प्रकृति का मतलब सिर्फ पेड़-पौधे, नदियाँ, फूल, खेत-खलिहान ही हैं। यही मेरी समझ की सीमा थी। लेकिन जब मैंने उन वादियों को अपनी आँखों से देखा, तो महसूस हुआ कि प्रकृति सिर्फ हमारे आसपास नहीं, बल्कि आकाश तक अपनी पकड़ रखती है। उसकी सुंदरता और रहस्य इतने गहरे हैं कि उन्हें पूरी तरह समझ पाना शायद संभव नहीं। प्रकृति अपनी अनंत गोद में हमें बस कुछ झलकियाँ ही दिखाती है, और बाकी रहस्य अपने पास रखती है।
--- मैं प्रकृति का एक फूल हूँ मामूली-सा आज हूँ, कल प्रकृति में मिल जाऊँगी। बस इतना चाहती हूँ— प्रेम के फूल की वो सुगंध बन जाऊँ, गाँव से लेकर शहर तक, हवा के संग बहूँ, दिलों में महक बनकर उतरूँ। जहाँ भी जाऊँ, मन की कठोरता को कोमल कर दूँ, थके चेहरों पर मुस्कान सजा दूँ। और जब मेरी पंखुड़ियाँ मिट्टी में समा जाएँ, तो भी मेरी खुशबू आसमान तक गूँजती रहे। ---
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