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--- "उन्मुक्त राह" अज्ञान की परछाइयों में, अब भी बंधा है इंसान, जात-पात के जाल में उलझा, भेदभाव का बना सामान। दहेज, अंधविश्वास, भेद, सबने बाँट दिया समाज, जहाँ बराबरी का सूरज था, वहीं छा गया अन्याय का राज। पर अब उठ रही है चेतना, नवयुवकों के स्वर में जोश, अन्याय की जंजीरें तोड़ें, समानता का करें परोष। ना ऊँच-नीच, ना भेदभाव, सबको मिले बराबर अधिकार, स्त्री-पुरुष का हो सम्मान, यही हो जीवन का आधार। जब हर हाथ को मिले काम, हर दिल में हो प्रेम समान, तभी बनेगा सच्चा भारत, जहाँ मानवता का हो मान।
--- बर्गद का संदेश मैं चली थी राह अजनबी, मन में था बस एक प्रश्न— कैसे मिलूँ मैं अपनी माँ से, कैसे पाऊँ उसका स्पर्श। राह में खड़ा था बर्गद का पेड़, उसकी आँखें चमक रही थीं, उसके होंठ हिल रहे थे धीरे-धीरे, वो जैसे मुझे पुकार रहा था। मैंने कहा — “मुझे अपनी माँ के पास जाना है।” पेड़ मुस्कराया, अपनी जड़ों के आँगन में जगह दी, और मुझे अपने भीतर बैठा लिया। क्षण भर में सब बदल गया— मैं लहरों की आवाज़ सुनने लगी, नमक-सी महक हवा में घुली थी, और मैं पहुँच गई समुद्र के किनारे। वहाँ… माँ खड़ी थी बाहें फैलाए, आँखों में प्रेम का अथाह सागर, उसकी गोद में समाते ही मेरा मन शांत हो गया। बर्गद, समुद्र और माँ— तीनों मिलकर बता रहे थे— “प्रकृति ही है असली माँ, और माँ ही है सृष्टि की जड़।”
--- ज्ञान की रोशनी ज्ञान एक ऐसी रोशनी है, जो हर घर के आँगन से होकर गुजरती है, हर दिल को छूकर जाती है, फिर भी कोई उसे थाम नहीं पाता। क्योंकि लोग बंधे हैं जंजीरों में, जाति, धर्म और परंपराओं के जाल में उलझे हैं, सच सामने खड़ा है साफ़-साफ़, पर आँखें खोलने की हिम्मत किसे है? अंधकार को ही उजाला मान बैठे हैं, पाखंड को ही धर्म कह देते हैं, और सच की पुकार अनसुनी रह जाती है, बस खामोशी के बोझ तले दब जाती है। ज्ञान न किसी का है, न किसी का बंधुआ, वो तो अनंत है, सबके लिए है। जिसने आँखें खोलीं, दिल साफ़ किया, वो रोशनी उसी का मार्ग आलोकित करती है।
--- पतझड़ जैसा जीवन है मेरा पतझड़ जैसा जीवन है मेरा, कभी इधर, कभी उधर भटकता। न जाने कितने रंग की तरंगे, हर पल बदलती, बिखरती रहतीं। कभी हरे पत्तों-सा उम्मीदों से भरा, तो कभी सूखी टहनियों-सा अकेला। समय की आँधी जब मुझसे टकराती, हर सपना जैसे टूटकर बिखर जाता। यादों की झरती पत्तियाँ बतातीं, कि हर खुशी स्थायी नहीं होती। कल जो अपना था, आज पराया है, जीवन की राहें अजनबी हो जातीं। फिर भी हर पतझड़ में छिपा है, एक नये वसंत का संदेश। खोए हुए रंग लौट आते हैं, नई कोंपलें फिर साँसें भरती हैं। हाँ, जीवन बदलता रहता है, हर दिन एक नया रूप धरता है। कभी बुरा, कभी अच्छा लगता, पर हर मोड़ पर सिखा जाता है। पतझड़ जैसा जीवन है मेरा, जिसमें बिखराव भी है, खिलाव भी है। गिरने के बाद भी उठना सिखाता, और उम्मीद की लौ जगाता रहता है।
--- अध्याय 1 – पहाड़ों की यात्रा जब मैंने पहली बार पहाड़ों की चढ़ाई शुरू की, तो मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं थी कि यह अनुभव कैसा होगा। लेकिन जैसे-जैसे मैं ऊँचाई की ओर बढ़ रही थी, अचानक बादलों का आपस में टकराना, फिर हल्की-हल्की बूंदों का गिरना—यह सब मेरे लिए एक नया और अद्भुत अनुभव था। यह मेरे जीवन का पहला अवसर था जब मैं जम्मू-कश्मीर की वादियों में पहुँची। वहाँ पहुँचकर मुझे लगा जैसे कोई अनमोल चीज़ मिल गई हो। पहले मैं सोचती थी कि प्रकृति का मतलब सिर्फ पेड़-पौधे, नदियाँ, फूल, खेत-खलिहान ही हैं। यही मेरी समझ की सीमा थी। लेकिन जब मैंने उन वादियों को अपनी आँखों से देखा, तो महसूस हुआ कि प्रकृति सिर्फ हमारे आसपास नहीं, बल्कि आकाश तक अपनी पकड़ रखती है। उसकी सुंदरता और रहस्य इतने गहरे हैं कि उन्हें पूरी तरह समझ पाना शायद संभव नहीं। प्रकृति अपनी अनंत गोद में हमें बस कुछ झलकियाँ ही दिखाती है, और बाकी रहस्य अपने पास रखती है।
--- मैं प्रकृति का एक फूल हूँ मामूली-सा आज हूँ, कल प्रकृति में मिल जाऊँगी। बस इतना चाहती हूँ— प्रेम के फूल की वो सुगंध बन जाऊँ, गाँव से लेकर शहर तक, हवा के संग बहूँ, दिलों में महक बनकर उतरूँ। जहाँ भी जाऊँ, मन की कठोरता को कोमल कर दूँ, थके चेहरों पर मुस्कान सजा दूँ। और जब मेरी पंखुड़ियाँ मिट्टी में समा जाएँ, तो भी मेरी खुशबू आसमान तक गूँजती रहे। ---
--- When I sit by the rivers, it feels as if nature is breathing with me. Its ripples, like an old friend, whisper softly— “Never think you are alone, I am with you in every moment, in every breath.” The cool mist of the water, the rustle of the trees, and the sweet songs of the birds all come together to touch my soul. This is nature’s promise— peace, belonging, and eternal companionship. ---
--- "हरी पत्तियों की फुसफुसाहट" चुपचाप मैं बैठी थी, अपने ही आँसुओं के सागर किनारे, तभी हवा ने आकर कानों में कहा — "यह दर्द भी पत्तों की तरह गिर जाएगा।" आसमान ने अपने नीले हाथों से मेरे माथे को सहलाया, और नदी की लहरें बोलीं — "चलो, तुम्हें बहा ले चलें वहाँ, जहाँ दर्द सिर्फ़ एक कहानी है।" मैंने देखा, एक तोता हरे पंख फैलाकर उड़ रहा था, उसकी आँखों में वही आज़ादी थी जो मैं सालों से ढूँढ रही थी। पेड़ों की छाँव ने मेरे सीने का बोझ हल्का किया, और सूरज ने धीरे-धीरे मेरे भीतर रोशनी भर दी। अब मैं जानती हूँ — प्रकृति सिर्फ़ बाहर नहीं होती, वो मेरे भीतर भी है, और वही मेरा सबसे सच्चा घर है। ---
--- बन बैठी योगिनी — दर्शनिक अक्का महादेवी (एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति) त्याग दिए मैंने, सभी बंधन — समाज के कु-पथ, रूढ़ियाँ, झूठे मर्यादा के आवरण। ना रही अब किसी नाम की प्यास, ना चाहा कोई श्रृंगार, छोड़ दिए झूठे रिश्ते-नाते, जिनमें बस छल का व्यापार। मैंने तोड़ दी दीवारें, इस देह की सीमाएँ, क्योंकि मैं शरीर नहीं — मैं चेतना हूँ, अनंत, अपरिमित। जागी भीतर एक ज्वाला, जो खोजती है परम सत्य, नारी की आत्मा में जो साक्षात् मल्लिकार्जुन का पावन पथ। बन बैठी मैं योगिनी, ना किसी की पत्नी, ना पुत्री, ना दासी — बस एक राही, जिसे चाहिए सिर्फ परमात्मा की झलक। हे समाज के अंधो! तुम क्या जानो आत्मा की पुकार, मैं अक्का महादेवी — जिनकी वाणी है प्रेम की धार।
--- "सावित्रीबाई फुले" (एक नारी शक्ति की प्रतीक) वो थीं समाज सुधारक, ज्ञान की दीप जलाने वाली, पहली शिक्षिका बनकर आईं, अंधकार में उजाला फैलाने वाली। नारी हित में सदा लगी रहीं, हर बेड़ियों को तोड़ती थीं, ऊँच-नीच का कर विरोध, बराबरी की बात करती थीं। वो पहली थीं जो उठीं अकेली, नारी की गरिमा बन गईं नवेली, पढ़ाई को जीवन का मंत्र बनाया, हर स्त्री को हक़ दिलाया। जहाँ सती, पर्दा और चुप्पी थी, वहाँ आवाज़ बनकर वो आईं थीं, हर आँसू में संघर्ष की झलक थी, हर मुस्कान में उम्मीद पलती थी। बनीं विधवाओं की ढाल, छुआछूत को किया बेहाल, पाठशाला से क्रांति रच दी, हर दलित को शिक्षा दे दी। तब जा कर "सावित्रीबाई फुले" कहलाईं, हर नारी की प्रेरणा बन पाईं, जिन्होंने दुनिया को सिखा दिया – नारी भी बदलाव ला सकती है, अगर वो ठान ले… तो इतिहास रच सकती है।
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