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Meenakumari Shukla

Meenakumari Shukla

@ayushukla29gmail.com8946


स्व रचित
मीनाकुमारी शुक्ला 'मीनू '

रे...मन...कर ले कुछ दया कुछ भलाई

जीनव भर तूने की खूब कमाई,
अंतिम वेला प्रभु मिलन की आई,
साथ चली नहीं कौडी, पैसा-पाई,
खूब तूने रिश्तेदारी निभाई,
पकडे न हाथ तेरा बन्धु- भाई,
मिट्टी का खिलौना मिट्टी में मिल जाई,

पैसा-रुपया, कौडी, बन्धु-भाई,
साथ चले नहीं कोई दे दुहाई,
रोयें चार दिन बन्धु व भाई,
फिर रुपये-पैसों पर नजर गडाई,
हुआ जब हिसाब फिर हुई लडाई,
छूटे भाई-बन्धु बने लोग-लुगाई,
आई समझ झूठे रिश्ते झूठी कमाई,

रे... मन.. भज..ले.. कृष्ण कन्हाई ।

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स्व रचित
मीनाकुमारी शुक्ला

तुम आकाश, सुनहरे सपनों सी तुम्हारी ऊंचाई।
मैं वसुन्धरा, गंभीर समुन्दर सी मेरी गहराई।।

मिलन की चाह में, दूरी बनी दर्द भरी रूसवाई।
बहुत किये प्रयास मिलन के, फिर तरकीब आजमाई।।

आँधी बन उड़ी मैं, तुम पर भी काली बदली छाई।
मैं उड़ी चक्रवात सी, उमड़-घुमड़ बारिश भी आई।।

हुआ मिलन अंतरिक्ष में ही, मधुर मिलन बेला आई।।
प्रफुल्लित मन करीब आये, मैं मन ही मन हरसाई।।

अरे....परंतु ये क्या हुआ... जैसे ही मिलन घड़ी आई।
तुमने बाँहें फैलाई और मैं खुद में ही समाई।।

पास आई मैं तुम्हारे..... पर तुम्हारी न हो पाई।
फिर बरसे..... तुम बदली बन, दूर हुई तन्हाई।।

तुम ऊंचाईयों पर रहे, मैं गहराइयों में रही।
हुई मैं नम, कुछ इस तरह तुमने मेरी प्यास बुझाई।।

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स्व रचित
मीनाकुमारी शुक्ला 'मीनू'

क्यूं एक आँगन में खेले भाई-बहन
इस कदर पराये हो जाते हैं?

क्यूं एक दिन सब अपने जीवनसाथी
के संग दूर देश चले जाते हैं?

क्यूं हम सब के जीवन साथी समझ
नहीं हमको पाते हैं?

क्यूं विवशता की खोल में उमड़ता प्यार
मचले अरमान दबे रह जाते हैं?

क्यूं दुख में विचलित भाई-बहनों के मन
होकर व्याकुल नयन नीर बहाते हैं?

क्यूं एक मात-पिता के जाये हम अलग
अलग पंख लिये उड़ जाते हैं?

कैसी ये विधी की विडंबना हैं जिस में
हम खुद को ही छलते जाते हैं?

क्यूं भूतकाल बने प्रियजन दिन प्रतिदिन
हमें और अधिक रुलाते हैं?

क्यूं पास रह रहे बन्धु जन के संग हम
हिल-मिल रह नहीं पाते हैं??

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मैं बहती नदी निर्मल, निर्झर, निश्कलंक सी,
अटल, अमर, अडिग गिरी की मासूम नंदिनी सी।

चले साथ मेरे दुख-दर्द कंटक, कंकड, पत्थर से,
हुई राहें मुश्किल, दुश्वार रिवाज़ों के प्रहारों से।

लड़ती रही स्वयं से ही बद्हाल, बेबस, बेसहारा सी,
लेकिन समझी, थमी, बदली समाज के तेज बहावों से।

साथ चली जलदि के खामोश, तन्मय, खोई-खोई सी,
डूबती रही गहराइयों में पयोधि की हुई खुद से पराई सी।

मिली सागर से, तन से, मन से अपनी अंतिम कहानी सी,
मिटा अस्तित्व मेरा जग से, नभ से, जहाँ की बयारों से।।

स्व रचित
मीनाकुमारी शुक्ला 'मीनू'

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