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#एक_विवशता_रही_उम्र_भर_के_लिये तुझमें होकर भी हम ना तुम्हारे रहे मुझमें होकर भी तुम ना हमारी रही एक विवशता रही उम्र भर के लिये दिन सिसकते रहे, रात भारी रही प्रीति लड़ती रही नीतियों से सदा देह ने रीतियों पर समर्पण किया प्राण में दीप सुधियों के जलते रहे नेह का पुष्प तुमको ही अर्पण किया नियति से आस्था की बनी ही नहीं वास्तविकता सदा तुमसे हारी रही एक विवशता रही उम्र भर के लिये दिन सिसकते रहे रात भारी रही मन में एक अल्पता तो छुअन की रही एक तुम्हारे हमारे मिलन की रही तुम जो ढलती रही गीत के अक्षरों में मन की हर अल्पता सिर्फ मन की रही चाह में तुम रही, तुम रही हर घड़ी बाँह में हर घड़ी एक लाचारी रही एक विवशता रही उम्र भर के लिये दिन सिसकते रहे रात भारी रही तुझमें होकर भी हम ना तुम्हारे रहे मुझमें होकर भी तुम ना हमारी रही अभिनव सिंह "सौरभ"
खामोश हैं कैसी ये राहें सूने पड़े बाज़ार सारे फ़ासला है दरमियाँ और बेबसी के हैं नजारे धूप खिलती है सुबह जब पूछती है वो जमीं से किस बात का है ख़ौफ़ कि हैं पर्दानशीं इंसान सारे वो सफलता की दौड़ अंधी वो खरी खोटी कमाई पूछता है वक्त हँसकर क्या मिला इनके सहारे? राह पर भटके हुये थे जाने क्या कमाना चाहते थे मझधार में कश्ती फँसी तो याद आयें हैं किनारे पर रात आखिर कब तलक हार हम माने नहीं हैं ले आयेंगे वापस शहर में खुशनुमा फिर वो बहारें हाथ में फिर हाथ लेकर झूमेगें और गायेगें फिर से बरसेगीं वही मदमस्त सावन की फुहारें। भीड़ उमड़ेगी कहीं फिर फिर वही मेले लगेंगे टूट कर ढह जायेंगी मजबूरियों की ये दीवारें फिर यहाँ इंसानियत हो फिर यहाँ इंसाफ हो रात बीती बात बीती अब गलतियाँ अपनी सुधारें आज से कुछ सीख लेकर आओ अपना कल सँवारें। अभिनव सिंह "सौरभ"
जीवन की आपाधापी में जब मन बोझिल हो जाये जब आने वाले कल की सारी आशायें धूमिल हो जायें अंधकारमय हो जब पथ, मुश्किल हो आगे बढ़ना जब आँखो से मंजिल की तस्वीरें ओझल हो जायें तब धीरज का संकल्पों से संवाद जरूरी होता है मन में आशा का एक दीप जरूरी होता है। जब अपनों की अपनों से दूरी बढ़ जाती है जब रिश्तों की डोरी तन कर कभी टूटने आती है एक छत के नीचे होकर भी जब हृदय अकेला होता है दिन लम्बा हो जाता है और जब रातें जगती हैं तब अपनों का अपनों से संवाद जरूरी होता है मन में आशा का एक दीप जरूरी होता है अभिनव सिंह "सौरभ"
कोई अनजाना सा उस दिन मन को मेरे भाया था आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था नींद ना आती रात-रात भर जगता ही रहता था होश नहीं था कब दिन ढलता कब सूरज उगता था नयनों में उसकी एक सलोनी सी तस्वीर बसी थी तन तो घर में रहता था पर मन खोया रहता था सुबह शाम हर ओर हमेशा उसका ही साया था आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था हाथों में रहता फोन, फोन में फेसबुक की स्टोरी स्टेटस में पड़ती प्रेम की लम्बी लम्बी थ्योरी जाने कितनी बार खोलता था उसकी प्रोफाइल हर पाँच मिनट में लगती थी वाट्सएप पर फेरी मैसेज चेक करने में जाने कितना वक्त गँवाया था आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था घर के बागीचे वाले फूलों में उसकी सूरत दिखती थी चाहे जिधर चलूँ मैं वो भी साथ साथ चलती थी कब आयेगा वो दिन जब उसके सम्मुख बैठुँगा हर पल दिल में बस एक ही हसरत पलती थी झूम उठा था जब उसने मिलने के लिये बुलाया था आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था खुशियों की बारात लगी थी नींद मुझे ना आयी कानों में बजती रही रात भर मीठी मीठी शहनाई क्या बोलूँगा, क्या पहनूँगा प्रश्न उठे थे कितने इधर उधर में जाने कब नयी सुबह थी आई मिलने की आतुरता में मन मेरा भरमाया था आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था अभिनव सिंह "सौरभ"
सृजन की मिट्टी से उपजा चाक पर साकार हुआ भट्ठी में फिर तप कर के दृढ़ मेरा आकार हुआ मिट्टी की सोधीं ख़ुशबू लेकर जग की प्यास बुझाता हूँ मिट्टी ही तन मिट्टी जीवन जग में मैं कुल्हड़ कहलाता हूँ अधरों को छूकर के मैं मन की प्यास बुझाता हूँ लुटता हूँ हर बार यहाँ हर बार मैं तोड़ा जाता हूँ किस्सा मेरा इतना सा है इतिहास यही है इस निष्ठुर जग से मुझको कोई आस नहीं है मिट्टी हूँ, फिर एक दिन मिट्टी में मिलना ही है हर कुल्हड़ को इसी भाँति बनना और बिखरना ही है अभिनव सिंह "सौरभ"
ऊँची लहरें कब डूबा सकी हैं हिम्मत की पतवार को संकल्प पार ही कर लेते हैं विपदाओं के अम्बार को बाधाओं और विघ्नों ने जब जब रोका है मानव पथ मानव ने तब तब दिखलायी निज क्षमता संसार को सुनती आयी है भारत भूमि नित वीरों की हुंकार को अरिमर्दन करते अर्जुन के धनु की भीषण टंकार को भीष्म, द्रोण और कर्ण के, देख चुकी पौरूष बल को राम चन्द्र का रावण वध और श्री कृष्णा अवतार को चाणक्य की बुद्धि देखी, देखा घनानंद की हार को चन्द्रगुप्त का सिंहासन और उसकी जय जयकार को विश्व विजेता के आगे सीना तान खड़े पोरस को भी देखा गोरी के मस्तक पे, पृथ्वी के शब्दबेधी वार को अकबर भी ना झुका सका, महाराणा की तलवार को मुगलों ने भी मान लिया था, मराठी तीर कटार को काँप उठी खिलजी की सेना, गोरा बादल के भय वश सहना पड़ा एक पहर तक धड़ के तीक्ष्ण प्रहार को अंग्रेजों की सत्ता के आगे रानी झांसी के प्रतिकार को ब्रिटिश हुकुमत के कानों में मंगल की ललकार को लाला,भगत आजाद, जवाहर और सुभाष से मतवाले अर्द्ध नग्न फ़कीर गाँधी के, देखा है विराट आकार को अभिनव सिंह "सौरभ"
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