Chapter 9 — मालदेव द्वारा राजकवि आशानंद को भेजना
बागा भारमाली को लेकर भाग गया था।
और यह खबर जब जोधपुर के राजमहल पहुँची,
तो जैसे पूरे दरबार में हवा ही बदल गई।
राव मालदेव क्रोध से तमतमाया चेहरा लिए
सीधे सिंहासन से उठ खड़ा हुआ।
उसकी आवाज़ पत्थर पर फेंके गए घड़े जैसी गूँजी—
“सेनापति को बुलाओ! तुरंत!”
कुछ ही पलों में सेनापति दरबार के बीच खड़ा था।
मालदेव ने दहाड़ते हुए कहा—
“पूरी सेना तैयार करो!
हम बागा को सबक सिखाएँगे।
उस नीच की मज़ाल कैसे हुई भारमाली को भगाने की?”
सेनापति ने सिर झुकाया,
पर चेहरे पर गहरी गंभीरता थी।
“महाराज,” उसने शांत लेकिन पक्के स्वर में कहा,
“बागा एक डाकैत किस्म का आदमी है।
न कोई घर, न ठिकाना…
वह रेगिस्तान का बाज़ है—
आज पूरब में दिखेगा, कल पच्छम में गायब।”
“अगर हम सेना लेकर उसके पीछे निकल पड़े,”
सेनापति ने आगे कहा,
“तो पता नहीं कितने महीने रेगिस्तान में भटकते रहेंगे।
और अगर उसे ढूँढ न पाए,
तो यह बात पूरे मारवाड़ में फैल जाएगी कि
डाकू बागा ने जोधपुर की सेना को चकमा दे दिया।
राज्य की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी।”
मालदेव के कदम ठिठक गए।
वह कुछ देर सोच में पड़ गया।
फिर धीरे से बोला—
“तो क्या कोई और रास्ता है?”
सेनापति ने एक कदम आगे बढ़कर कहा—
“एक उपाय है, महाराज।
हम राजकवि आशानंद को भेजें।
बागा शब्द, कला और गीत का सम्मान करता है।
वह आशानंद को सुनेगा—
शायद मान भी जाए।
वह भारमाली को समझाकर वापस ले आएगा।”
मालदेव ने तुरंत आदेश दिया—
“आशानंद को बुलवाओ! अभी!”
थोड़ी देर बाद राजकवि आशानंद दरबार में आए।
सफेद दाढ़ी, राजसी पोशाक,
और आँखों में वह तेज़ जो सिर्फ़ राजकवियों के पास होता है।
मालदेव ने आदेश सुनाया—
“आशानंद, तुम बागा के पास जाओ।
उसे समझाओ कि मैं क्रोधित हूँ।
उससे कहो कि भारमाली को वापस भेजना ही होगा।
अगर वह नहीं मानेगा,
तो मैं सेना भेजूँगा।
तुम बात से उसे मना कर लाओ—यही मेरा हुक्म है।”
आशानंद ने सिर झुकाया।
“जैसी आज्ञा, महाराज।”
और वे उसी क्षण यात्रा पर निकल पड़े।
उधर बागा तक यह खबर पहुँच चुकी थी
कि राजकवि आशानंद स्वयं उससे मिलने आ रहे हैं।
बागा ने सुना तो मुस्कुराया।
“इतना बड़ा कवि… मेरे जैसा आदमी?
ये तो मेरे लिए सम्मान है।
पहले मैं ही उनके पास चलूँ।”
वह खुद आगे बढ़कर आशानंद से मिलने पहुँचा।
दूर से ही हाथ जोड़ दिए,
और पास आते ही पैरों पर झुक गया।
आशानंद ने बागा को उठाया और मुस्कुराए।
“इतना आदर… इसकी उम्मीद नहीं थी।”
बागा ने पूरा सत्कार किया,
पानी, छाँव, बैठने की जगह—सब दिया।
आशानंद गदगद हो गए।
फिर उन्होंने बिना घुमाए बात कही—
“बागा…
मैं राव मालदेव की ओर से आया हूँ।
वे बहुत क्रोधित हैं।
वे कहते हैं कि तुम भारमाली को वापस भेजो।
अगर तुम नहीं माने,
तो कल सेना निकल पड़ेगी।”
बागा ने हल्की हँसी के साथ कहा—
“सेना आने दो।
रेत मेरे बाप की है—
यही मेरा घर है, यही मेरा किला।
जो आएगा, लौटकर जाएगा।”
फिर उसने सीधी बात कही—
“पर भारमाली वापस नहीं जाएगी।
मैं उसे नहीं छोड़ूँगा।
चाहे जो हो जाए।”
आशानंद ने बहुत समझाया।
कभी तर्क से,
कभी प्रेम की बात से,
कभी राज्य की मर्यादा से—
लेकिन बागा अपनी बात से हिला भी नहीं।
उसकी आँखों में साफ़ दिख रहा था—
ये आदमी ज़िद पर उतर जाए तो पूरी दुनिया हारे।
काफी देर तक समझाने के बाद
आशानंद थककर चुप हो गए।
वह सोच में डूबे बैठे रहे।
उनके मन में एक झंझट खड़ी हो गई—
“अगर मैं वापस गया
और राजा ने पूछा—
‘कहाँ है भारमाली?’
तो मैं क्या कहूँगा?
यहाँ बागा सम्मान दे रहा है,
आदर दे रहा है…
और सच कहूँ तो गलत भी नहीं लग रहा।
मैं खाली हाथ कैसे लौट जाऊँ?”
आशानंद ने लंबी साँस ली।
फिर मन ही मन बोले—
“राजा को नाराज़ करूँ या इस आदमी की सच्चाई को?
फैसला तो करना ही होगा…
शायद कुछ दिन यहीं रुककर ही
मैं तय कर पाऊँ कि क्या सही है।”
और इसी सोच के साथ
आशानंद वहीं ठहरने का मन बनाने लगे…
धीरे-धीरे, चुपचाप।
उनकी यात्रा का रास्ता
राजा के आदेश से हटकर
अब हालात की ओर मुड़ने लगा था।