Chapter 7 — जैतसिंह की रानियों का षड्यंत्र और भारमाली–बागा का भगा ले जाना
जैसलमेर के किले में पिछले कुछ समय से एक बेचैन करने वाली हवा बह रही थी।
जहाँ भी दो दासियाँ मिलतीं, वही एक फुसफुसाहट सुनाई देती—
“जैत सिंह और भारमाली की नज़दीकियाँ…”
महल की दोनों रानियाँ इसे सुन–सुनकर तंग आ चुकी थीं।
जितना वे इस बात को दबाने की कोशिश करतीं,
उतनी ही तेज़ी से ये चर्चा किले की दीवारों में फैलती रहती।
रानियों को लगने लगा था कि भारमाली सिर्फ़ एक मेहमान नहीं,
बल्कि वह परछाईं है जो धीरे-धीरे उनके घर की नींव को ही हिलाने लगी है।
आख़िरकार एक शाम बड़ी रानी ने अपने भाई बागा को बुलाया।
बागा—लंबा, कड़क, आधा डकैत और आधा दरवेश जैसा आदमी,
जिसकी आँखों में सधा हुआ खतरा तैरता था।
जो एक बार तय कर ले, तो उल्टा सोचने का सवाल ही नहीं उठता।
रानी ने उसे सब बताया—
जैत सिंह और भारमाली का मेलजोल,
महल का माहौल,
और उसका डर।
बागा ने पूरा किस्सा चुपचाप सुना, चेहरे पर कोई भाव नहीं।
फिर शांत स्वर में बोला—
“ठीक है बहना…
कल सुबह जब मैं निकलूँ, Tilak करने मत आना।
भारमाली को भेज देना।
बाकी सब मुझ पर छोड़ दे।”
उस एक वाक्य में ऐसी ठंडक थी कि रानी खुद काँप गई।
उसे पता था—अब चक्र चल पड़ा है।
सूरज की पहली रोशनी किले के सुनहरे पत्थरों पर गिर रही थी।
महल में धीमे-धीमे गतिविधियाँ शुरू हो चुकी थीं।
इसी बीच बागा अपने ऊँट पर चढ़ चुका था।
कस कर बाँधी तलवार,
तेज़ निगाहें,
और होंठों पर हल्का-सा व्यंग्य।
उसने दरवाज़े की तरफ़ देखकर ऊँची आवाज लगाई—
“बहना! मैं जार्यों हूँ!”
अंदर बड़ी रानी घबराकर बोली—
“मैं अभी तैयार नहीं…
दासी, भारमाली को भेज दे।
Tilak वही कर देगी।”
दासी दौड़ती हुई भारमाली तक पहुँची।
भारमाली उस समय महल में ही थी,
और Tilak की थाली लेकर तुरन्त बाहर आ गई,
जैसे यह बस एक सामान्य शाही रस्म हो।
जब भारमाली बागा के सामने पहुँची,
रेत पर हल्की हवा बह रही थी
और ऊँट की घंटी धीमी-धीमी बज रही थी।
भारमाली बोली—
“बागा-सा, Tilak करूँ?”
जैसे ही वह झुकी,
उसी क्षण बागा ने उसका हाथ पकड़ लिया—
तेज़, मजबूत और बिना किसी हिचकिचाहट के।
एक झटके में उसने भारमाली को
अपने पीछे ऊँट पर बिठा लिया।
“ये क्या—?”
वह कह भी नहीं पाई थी कि बागा गरजा—
“चल भारमाली!
अब तू मेरे साथ चलेगी!”
ऊँट को उसने इतनी जोर से हाँका
कि रेत उड़ते ही दोनों आधे अदृश्य हो गए।
ऊँट को उसने इतनी जोर से हाँका
कि रेत उड़ते ही दोनों आधे अदृश्य हो गए।
महल की दासियाँ चीखीं—
“रोक लो! रोक लो!”
रानी बाहर भागती आई—
पर तब तक देर हो चुकी थी।
कुछ ही पलों में भारमाली,
जो कल तक इस महल की सबसे चर्चा में रहने वाली स्त्री थी,
आज रेत के तूफ़ान में गुम हो चुकी थी।
और रानियों के मन में… राहत
महल के भीतर हाँफती हुई दासियों ने जब रानियों को बताया कि
“बागा-सा भारमाली को भगा ले गया है,”
तो रानियों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा।
उनकी आँखों में पहली बार
डर की जगह राहत दिखाई दी।
एक धीमी-सी साँस बड़ी रानी के होंठों से निकली—
“अच्छा हुआ…
भ्रम पैदा करने वाली यह भारमाली नाम की विपत्ति
हमारे घर से हट गई।”
छोटी रानी ने धीरे से कहा—
“भगवान का शुक्र…
अब सुकून मिलेगा।”
दोनों रानियाँ पहली बार
कई दिनों बाद बेखटके मुस्कुरा पाईं।
क्योंकि उनके लिए यह सिर्फ़ एक स्त्री का जाना नहीं था—
यह उस आँधी का हटना था
जो उनके महलों की नींव हिला रही थी।