Chapter 8 — भारमाली और बागा की प्रेम यात्रा
रेगिस्तान के ऊपर की सुबह हमेशा की तरह शांत नहीं थी।
बागा के ऊँट के पैरों से उठती रेत,
पीछे छूटता जैसलमेर किला,
और भारमाली के चेहरे पर उभरा डर और हैरानी—
तीनों मिलकर एक अजीब-सी चुप्पी बना रहे थे।
कुछ समय तक दोनों में कोई शब्द नहीं निकला।
ऊँट की घंटी की आवाज़ ही दोहराती रही कि
अब उनके बीच सब बदल चुका है।
भारमाली आखिर बोल पड़ी—
“बागा-सा… ये क्या किया आपने?
मैंने तो बस Tilak ही करने आई थी…”
बागा ने हल्का-सा मुस्कुराते हुए कहा—
“Tilak करने आई थी,
पर बहना ने जिस खतरे की बात समझाई थी,
उससे बचाने के लिए तुझे ले जाना ही पड़ा।”
भारमाली ने नाराजगी से कहा—
“पर मुझसे पूछते तो?”
बागा ने कंधे उचकाए—
“रेगिस्तान में कुछ काम पूछकर नहीं होते,
सीधे किए जाते हैं।”
उसकी यह बात सुनकर भारमाली खामोश हो गई,
पर बागा की आवाज़ में छिपी सच्चाई
उसके मन को धीरे से छू गई।
धूप ऊपर चढ़ने लगी थी।
रोशनी रेत पर पड़कर सोने जैसा चमक रही थी।
बागा ने ऊँट को एक टीले के पीछे रोका।
“आराम कर ले,” उसने कहा।
भारमाली थकी थी, पर मन में उलझन ज़्यादा थी।
वह रेत पर बैठी और पहली बार
बागा को गौर से देखने लगी।
उसका चेहरा सख्त था,
लेकिन आँखें… हैरानी की बात थी—
बिल्कुल साफ़, बिना छल-कपट की।
भारमाली ने पूछा—
“तुम मुझे यहाँ से कहाँ ले जा रहे हो?”
बागा ने पानी की मशक उसकी तरफ बढ़ाते हुए जवाब दि
“जहाँ तू सुरक्षित रहे।
जहाँ कोई तेरे नाम का इस्तेमाल अपने मतलब के लिए न करे।”
भारमाली ने पहली बार महसूस किया
कि बागा ने उसे सिर्फ़ ‘ले’ नहीं गया,
बल्कि ‘बचाया’ भी है।
कुछ दूरी पर एक छोटा-सा ढेबू (जंगली लोमड़ी जैसा जानवर) घूम रहा था।
भारमाली उसे देखकर घबरा गई।
“ये काटेगा तो नहीं?”
बागा हँस पड़ा—
“काटेगा क्यों?
मेरे जैसी शक्ल वाला है…
तुझसे ही शर्माएगा।”
यह सुनकर भारमाली की हँसी निकल गई।
रेत के सन्नाटे में उसकी हँसी किसी शीतल हवा जैसी लगी।
यह वही पल था
जब उनके बीच की दूरी पहली बार कम हुई।
शाम होते ही दोनों ने फिर सफर शुरू किया।
ऊँट पर बैठी भारमाली
सावधानी से बागा की कमर पकड़कर बैठी थी।
धीरे-धीरे दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला खुलता
बागा ने बताया कि वह बचपन से बेख़ौफ़ है,
रेगिस्तान का हर मोड़ जानता है।
भारमाली ने बताया कि बचपन से वह गीत गाती थी,
और उसे हमेशा खुशी देने में मजा आता था।
बागा बोला—
“गीत सुनाएगी?”
भारमाली पहले झिझकी,
लेकिन फिर धीमे स्वर में गाने लगी।
रेगिस्तान की रात,
ऊँट की हल्की चाल,
तारों की भीड़
और भारमाली की मधुर आवाज—
बागा पहली बार किसी आवाज़ में
इतनी कोमलता महसूस कर रहा था।
वह बोला—
“तू जब गाती है न भारमाली…
रेत भी रुक जाती है।”
यह सुनकर भारमाली का चेहरा हल्का-सा लाल हो गया।
दो दिन के सफर में
दोनों ने न एक-दूसरे से वादा किया,
न प्रेम का इज़हार।
पर हर छोटी बात के पीछे
एक अनकहा लगाव उभर आया।
बागा उसे धूप से बचाने के लिए अपना पाग बांधता।
भारमाली उसके लिए पानी बचाकर रखती।
बागा उसे सिखाता कि रेत के टीलों पर कैसे चलना चाहिए।
भारमाली उसकी थकान समझकर उसकी चुप्पी में सुकून भर देती।
तीसरी रात, जब दोनों एक टीले पर बैठे सितारों को देख रहे थे,
भारमाली ने खुद ही कहा—
“बागा-सा…
आपने मुझे बचाया है।
पर ये जो रास्ता हम चल रहे हैं…
ये किस ओर ले जा रहा है?”
बागा ने उसकी आँखों में देखकर जवाब दिया—
“जहाँ तू चाहे।
अगर तू मेरे साथ चलना चाहे—
तो वहीं मेरा घर होगा।”
भारमाली ने न सिर हिलाया,
न कुछ कहा—
बस चुपचाप अपना सिर
बागा के कंधे पर टिका दिया।
और यही वह पल था
जब दो भटके हुए रास्ते
एक हो गए।