उम्मादे के जाने के बाद जोधपुर का किला भीतर से जैसे खोखला हो गया था।
जहाँ पहले रानियों की उपस्थिति से हवेली में हल्की-सी हलचल रहती थी, अब वहाँ सन्नाटा और अकेली भारमाली थी।
वह अक्सर महल की छत पर खड़ी होकर दूर देखने लगती—रेत के पार कहीं उसका अपना जैसलमेर था।
और एक दिन उसने वही कहा जो इतने समय से दिल में पनप रहा था—
“मेरा जइसेलमेर जाने का मन है… पर अब कैसे जाऊँ? मेरे पीछे उठी हवाओं ने मेरा रास्ता भी बदनाम कर दिया।”
मालदेव कुछ पल उसे देखता रहा।
उसकी आँखों में शिकायत थी, दूरी थी… और एक हल्का-सा कसाव भी।
आखिर उसने धीमे से कहा,—
“ठीक है। तुम जाओ। मैं सब संभाल लूँगा।”
उस रात उसने लूणकरण को ऐसा खत लिखा जिसने जैसलमेर की पूरी हवा बदल दी—
“भारमाली जैसलमेर आ रही है।
उसके साथ ज़रा भी बदसलूकी हुई तो समझ लेना—
जोधपुर की तलवारें सिर्फ़ चेतावनी नहीं देतीं।”
लूणकरण ने खत पढ़कर गर्दन झुका दी।
उसकी समझ में आ गया—मालदेव अब भी भारमाली की इज़्ज़त को लेकर उतना ही कठोर है।
भारमाली का जैसलमेर पहुँचना
जब भारमाली जैसलमेर लौटी, तो पूरा शहर दो हिस्सों में बँट गया था।
कुछ लोग सोचते—बेचारी, किस हाल में वापस आई है।
कुछ फुसफुसाते—मालदेव से नाता जोड़कर आई है।
और कुछ बस यह देखने को उत्सुक थे कि अब होने क्या वाला है।
महल में उसका स्वागत आधे मन से किया गया।
वह अपने पुराने महल के हिस्से में रहने लगी—जहाँ बचपन की खुशबू थी, पर आज हर दीवार सवाल पूछती लगती थी।
और इसी बीच उसकी मुलाकात बढ़ने लगी राजकुमार जैत सिंह से।
जैत सिंह उससे पहले दूरी बनाए रखता था।
पर भारमाली की कहानी सुनकर उसका रुख बदलने लगा।
कभी वह उससे पूछता—
“तुम खुश तो हो?”
कभी भारमाली हल्की मुस्कान में जवाब देती—
“खुशी कोई जगह नहीं… बस एक पल होता है।”
धीरे-धीरे बातचीत बढ़ने लगी।
एक-दो बार उन्होंने किले की ऊँचाई से रेगिस्तान देखा—जहाँ सूरज ढलते-ढलते रेत सोने-सी चमकने लगती थी।
जैत सिंह को नहीं पता था कि वह कब उस चमक से ज़्यादा भारमाली की आँखों में चमक देखने लगा।
भारमाली भी उसकी ईमानदार बातों में एक सुकून पाने लगी—जो उसे मालदेव से कभी नहीं मिला था।
धीरे-धीरे बातचीत बढ़ने लगी।
एक-दो बार उन्होंने किले की ऊँचाई से रेगिस्तान देखा—जहाँ सूरज ढलते-ढलते रेत सोने-सी चमकने लगती थी।
जैत सिंह को नहीं पता था कि वह कब उस चमक से ज़्यादा भारमाली की आँखों में चमक देखने लगा।
भारमाली भी उसकी ईमानदार बातों में एक सुकून पाने लगी—जो उसे मालदेव से कभी नहीं मिला था।
और फिर तूफ़ान वहीं से उठा।
जैत सिंह की दोनों रानियों ने जल्दी ही समझ लिया कि राजकुमार के कदम किस ओर मुड़ने लगे हैं।
महल की दासियों की बातें, दरबार की नजरें, अंगनाई से आती खबरें—सब साफ इशारा कर रही थीं।
एक शाम दोनों रानियों के बीच धीमी आवाज़ में बातचीत हुई—
“पहले इसने अपने उम्मादे का घर तोड़ा… अब हमारा भी?”
“अगर राजकुमार इसकी ओर झुक गए, तो हमारा क्या बचेगा?”
डर सिर्फ प्रेम का नहीं था—
डर सत्ता का था, स्थान का था, औरतों की उस जगह का था जहाँ खड़े रहने के लिए भी राजकुमार का साया चाहिए होता था।
धीरे-धीरे महल की औरतों ने भारमाली को एक खतरे के रूप में देखना शुरू कर दिया।
भारमाली को इसका अंदाज़ा नहीं था…
पर जैसलमेर की हवाओं में हलचल शुरू हो चुकी थी।
मेहरानगढ़ छोड़कर आई यह स्त्री अब जैसलमेर के महल की राजनीति का केंद्र बनने वाली थी