Chapter 5 — भारमाली-मालदेव संबंध और उम्मादे का रुठ जाना
शाम का समय था।
जोधपुर के महल में उस दिन कुछ अलग ही सन्नाटा पसरा था—
मानो हवा भी किसी अनकहे तूफ़ान की आहट सुन रही हो।
शाम का समय था।
जोधपुर के महल में उस दिन कुछ अलग ही सन्नाटा पसरा था—
मानो हवा भी किसी अनकहे तूफ़ान की आहट सुन रही हो।
रानी उम्मादे अपने कक्ष में बैठी सिंगार कर रही थीं।
उनके हाथों की चूड़ियाँ खनकते-खनकते अचानक थम जातीं,
क्योंकि मन कहीं और भटक रहा था।
नई-नई शादी, नया शहर—और नया जीवन…
वह सबकुछ समझने की कोशिश में थीं।
तभी एक दासी ने आकर झुककर कहा—
“रानी साहिबा, महाराज ने अभी बुलाया है।”
उम्मादे ने हल्की थकान से कहा,
“मैं तैयार होकर आती हूँ…
पहले भारमाली को भेज दो। वह जाकर बता दे।”
भारमाली का राजा के पास जाना — और एक पल का टूटना
भारमाली फुर्तीली चाल से राजा के कक्ष की ओर बढ़ी।
महल के गलियारों में दीये जल रहे थे, पर उनकी लौ अजीब तरह से काँप रही थी—
मानो उन्हें भी पता हो कि कुछ सही नहीं होने वाला।
राजा मालदेव अकेले बैठे थे,
आँखों में थकान, और शराब की हल्की लालिमा।
भारमाली ने झुककर कहा,
“रानी साहिबा तैयार हो रही हैं, थोड़ा समय लगेगा।”
मालदेव की निगाह भारमाली पर टिक गई।
वह वर्षों से रानी की परछाई की तरह थी,
और महल की हर बात समझने वाली।
उस पल राजा के भीतर का संघर्ष खामोश पड़ गया।
शक्ति, अकेलापन और इच्छा—तीनों ने मिलकर मर्यादा को ढक लिया।
और वही हुआ जिसका असर आने वाले वर्षों तक राजस्थान की लोककथाओं में सुनाई दिया—
राजा ने भारमाली को पास खींच लिया।
कमरा शांत हो गया।
दीयों की रोशनी और परछाइयाँ एक-दूसरे में मिल गईं।
और भारमाली की किस्मत उसी क्षण महल की राजनीति के अंधे कुएँ में धँस गई।
उम्मादे को जब सच पता चला…
एक दासी काँपती हुई उनके कक्ष में आई—
“रानी साहिबा… भारमाली महाराज के कक्ष में… अकेली ही रुक गई है…”
उम्मादे की साँस जैसे जम गई।
चेहरे पर खून उतर आया।
पहले अविश्वास… फिर दर्द… फिर आग।
“जिस आदमी की जान बचाने के लिए मैंने अपने पिता तक को ठुकरा दिया…
वही आज मेरी मर्यादा की धज्जियाँ उड़ा रहा है?”
उसने अपने कानों के झुमके झटककर उतार दिए।
गले का हार ज़मीन पर गिरा और तेज़ आवाज़ हुई—
मानो उसके दिल में कुछ टूट गया हो।
उम्मादे की प्रतिज्ञा — पति से ऊपर धर्म, और धर्म से ऊपर सम्मान
दर्पण के सामने खड़ी होकर उसने खुद को देखा—
आँखें लाल, चेहरा सख्त, पर साहस अडिग।
धीमे पर काँपते स्वर में बोली—
“जिसे अपने राजा-धर्म का ज्ञान नहीं,
वह मेरे पति-धर्म के योग्य नहीं।
आज से… मैं उसका चेहरा तक नहीं देखूँगी।”
उसने अपने माथे की बिंदी उतार दी—
यह संकेत था कि वह अब अपने पति से मन से दूर हो चुकी है।
रात का तीसरा पहर था।
संपूर्ण महल सोया हुआ था,
पर उम्मादे की आँखों में नींद नहीं, आग थी।
वह बिना किसी घोषणा, बिना किसी रथ के
एक अकेले घोड़े पर चढ़ी।
बाहर ठंडी हवा चल रही थी,
पर उसके भीतर तूफ़ान गरज रहा था।
भारमाली दूर से यह दृश्य देख रही थी—
उसके होंठ कांपे, पर वह कुछ कह नहीं सकी।
उसने जाना कि उसने रानी ही नहीं, खुद को भी खो दिया है।
उम्मादे ने महल की ओर आखिरी बार देखा,
मानो कह रही हो—
“मेरा सम्मान मुझसे बड़ा है,
और जो उसे नहीं समझता…
उसकी रानी बनकर मैं एक पल भी नहीं रह सकती।”
और वह सीधे अजमेर की ओर निकल गई।