BAGHA AUR BHARMALI - 2 in Hindi Love Stories by Sagar Joshi books and stories PDF | BAGHA AUR BHARMALI - 2

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BAGHA AUR BHARMALI - 2

Chapter 2 — रावल लूणकरण का मालदेव को उम्मादे का विवाह-प्रस्ताव भेजना



संधि के बाद किला शांत तो हो गया था, लेकिन रावल लूणकरण के मन में शांति अभी भी दूर की चीज थी।

मालदेव की सेनाएँ लौट चुकी थीं, पर लूणकरण जानता था कि यह वापसी स्थायी नहीं है—यह सिर्फ एक वक़्त का टल जाना है।


दरअसल, लूणकरण के मन में सबसे बड़ा डर यही था कि—


“मालदेव आज चला गया है… पर क्या गारंटी है कि वह कल या किसी भी समय वापस नहीं आएगा?”


और वह जानता था कि जैसलमेर हमेशा धन देकर अपने आप को नहीं बचा सकता।

राजकोष सीमित था, और मालदेव का लोभ अनंत।


यही सोच उसके भीतर लगातार घूमती रही।

जैसलमेर की सुरक्षा अब केवल सैनिक शक्ति या संधि पर नहीं टिकी रह सकती थी।

कुछ स्थायी सोचना ही पड़ेगा—ऐसा कुछ जो मालदेव को जैसलमेर के विरुद्ध हथियार उठाने से पहले दो बार सोचने पर मजबूर कर दे।


उस रात लूणकरण किले की बुर्ज पर देर तक टहलता रहा।

रेगिस्तान की हवाएँ सूनी गलियों से टकराकर भय का सा संगीत पैदा कर रही थीं।

उसने अपने मन में बार-बार वही सवाल दोहराया—


“एक राजा के रूप में राज्य की रक्षा मेरी जिम्मेदारी है… पर इसका उपाय क्या है?”


सुबह ढलते ढलते उसके मन में एक विचार गहराने लगा।

धीरे-धीरे यह विचार एक फैसला बन गया—


“अगर जैसलमेर को स्थायी सुरक्षा चाहिए, तो संबंध चाहिए—रक्त का संबंध।”


मारवाड़ और जैसलमेर का रिश्ता युद्ध और अविश्वास से भरा रहा था।

और ऐसे रिश्ते को बदल सकता था केवल एक ही उपाय—

विवाह-संबंध।


रावल लूणकरण ने गहरी सांस ली।

यह निर्णय आसान नहीं था।

इसका सीधा संबंध उसकी बेटी उम्मादे से था।


उम्मादे—जैसलमेर की राजकुमारी, अपने सौम्य स्वभाव और तेज बुद्धि के लिए जानी जाती थी।

वह सिर्फ एक बेटी नहीं, बल्कि रियासत की मर्यादा का प्रतीक मानी जाती थी।


फिर भी, राज्य की सुरक्षा के आगे व्यक्तिगत भावनाएँ हल्की पड़ जाती हैं।


अगली सुबह लूणकरण ने अपने सबसे विश्वासपात्र सरदारों, राजपुरोहित और युद्ध-मंत्री को गुप्त बैठक के लिए बुलाया।


सभा शुरू होती ही लूणकरण ने बिना घुमाए साफ़ कहा—


“मालदेव आज शांत है, लेकिन यह शांति स्थायी नहीं। हर बार धन देकर उसे रोकना नामुमकिन है।

अगर जैसलमेर को बचाना है, तो हमें संबंध मजबूत करना होगा।”


सब मुखड़े देखकर एक दूसरे को देखते रह गए; किसी को आपत्ति नहीं थी, पर कोई पहल करने को तैयार भी नहीं।


लूणकरण ने अपनी बात आगे बढ़ाई—


“मैं अपनी बेटी उम्मादे का विवाह मालदेव से करने का प्रस्ताव भेजने का सोच रहा हूँ।”


सभा में कुछ देर चुप्पी छा गई।

चौंकाहट थी, पर विरोध नहीं।

हर व्यक्ति समझ रहा था कि परिस्थितियाँ यही मांग रही हैं।


राजपुरोहित ने धीरे से कहा,

“राजन, यह कदम जैसलमेर के लिए दीर्घकालिक शांति ला सकता है।”


युद्ध-मंत्री, जो सामान्यतः भावनाओं की परवाह नहीं करता था, उसने भी सिर हिलाया—

“महाराज, यह फैसला किले की दीवारों से कहीं अधिक मजबूत रक्षा करेगा।”



लूणकरण जानता था कि यह बात उम्मादे को खुद बताना ठीक रहेगा।

उसने शाम को उसे अपने पास बुलाया।


उम्मादे ने पिता के चेहरे पर गंभीरता देख ली थी।

“पिताजी, कोई चिंता है?” उसने सहज स्वर में पूछा।


लूणकरण ने सच बताया—युद्ध, मालदेव का स्वभाव, राज्य की असुरक्षा, और विवाह के प्रस्ताव का कारण।


उम्मादे कुछ क्षण चुप रही।

उसने कोई विरोध नहीं किया।

उसकी आँखों में डर भी नहीं था—सिर्फ यह समझ कि एक राजकुमारी का कर्तव्य निजी जीवन से बड़ा होता है।


उसने केवल इतना कहा—

“अगर इससे जैसलमेर सुरक्षित रहेगा, तो मैं तैयार हूँ।”


लूणकरण के भीतर राहत और पीड़ा दोनों उठे, पर वह जानता था कि उसकी बेटी ने राज्य को बचाने वाला निर्णय स्वीकार किया है।


दूत मारवाड़ की ओर रवाना होते हैं


अगले दिन बेहद सावधानी से लिखा गया संदेश तैयार किया गया।

इसमें सम्मान, मर्यादा और स्पष्ट प्रस्ताव था—

जैसलमेर अपनी राजकुमारी उम्मादे का हाथ मारवाड़ के राव मालदेव को देना चाहता है।


विश्वसनीय दूतों को चुना गया, जिन्हें आदेश मिला कि वे सीधे मालदेव के दरबार में यह संदेश पहुँचाएँ।


यात्रा लंबी थी, पर कुछ दिनों बाद उत्तर आया—


मालदेव ने विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया है।


जैसलमेर में राहत की लहर दौड़ गई।

लूणकरण ने समझा कि उसने राज्य को तात्कालिक संकट से निकाल लिया है।