गाँव, किले, रेगिस्तान और पुरानी हवेलियाँ—हर जगह इन दोनों की छाप मिलती है, पर साफ़-साफ़ कुछ नहीं मिलता।
कुछ बूढ़े बताते हैं कि उनके इर्द–गिर्द जो घटनाएँ हुईं, वो साधारण नहीं थीं।
कुछ कहते हैं ये किस्मत के खेल थे, कुछ इन्हें किसी पुराने श्राप या अधूरी प्रतिज्ञा से जोड़ते हैं।
कहानी आगे बढ़ती है तो लगता है हर मोड़ पर कोई छाया साथ चल रही है—
कभी किसी का नाम हवा में तैरता है,
कभी किसी रात की आवाज़ सच से ज़्यादा डर पैदा करती है,
और कभी लगता है कि दोनों से जुड़ा हुआ सच किसी ने जानबूझकर दबा रखा है।
जो भी हुआ था, वह इतना आसान नहीं था कि लोग उसे भूला दें—
ना ही इतना साफ़ कि कोई इसे पूरी तरह बयान कर सके
Chapter 1 — मालदेव का जैसलमेर पर आक्रमण और रावल लूणकरण द्वारा संधि
मारवाड़ के राव मालदेव उस समय पश्चिम राजस्थान के सबसे उभरते और प्रभावशाली शासकों में गिने जाते थे। जिस तेजी से उन्होंने चारों दिशाओं में अपने साम्राज्य की सीमाएँ बढ़ाईं, उसी तेजी से उनके नाम का भय भी फैलता गया। कई छोटे राज्य या तो संधि कर लेते थे या युद्ध से टूट जाते थे।
इसी दौर में मालदेव की सेनाओं की नज़र जैसलमेर की ओर गई।
जैसलमेर के रावल लूणकरण का राज्य व्यापार और ऊँट-कारवाँ मार्गों के कारण समृद्ध था, पर सैन्य शक्ति सीमित थी। लूणकरण को मालदेव के स्वभाव का अनुमान था—
वह बिना कारण किसी पर चढ़ाई नहीं करता, लेकिन अगर कोई इलाका रणनीतिक या आर्थिक रूप से ज़रूरी हो, तो उसे छोड़ता भी नहीं।
मालदेव की सेना जैसलमेर की सीमा के पास पहुँच चुकी थी। पहरेदारों ने महल तक खबर पहुँचा दी कि मारवाड़ की सेना पड़ाव डाल रही है। यह संकेत साफ था कि किसी भी समय आक्रमण हो सकता है।
महल में सलाहकारों की बैठक बुलाई गई।
कुछ ने प्रतिरोध की बात कही, पर सभी जानते थे कि मुकाबला बराबरी का नहीं है।
कुछ ने समय माँगने की सलाह दी, पर मालदेव ऐसी बातों में कठोर माना जाता था।
अंत में वही निर्णय लिया गया जो उस समय छोटे-राज्यों के लिए व्यावहारिक था—
युद्ध टालने के लिए संधि।
रावल लूणकरण ने जैसलमेर के कोष से अत्यधिक धनराशि निकाल कर मालदेव को भेजी।
धन की मात्रा इतनी थी कि मारवाड़ की सेना को तुरंत लौटने का आदेश दे दिया गया।
संधि हो गई, और युद्ध टल गया।
लेकिन संधि के बाद रावल लूणकरण के मन में एक और चिंता गहरी होती गई—
हाँ, इस बार मालदेव लौट गया है, पर इसका कोई भरोसा नहीं कि वह दोबारा नहीं आएगा।
और हर बार इतना धन देकर राज्य को बचाए रखना संभव नहीं था।
जैसलमेर का खजाना असीमित नहीं था
उसी रात महल में फिर चर्चा हुई।
लूणकरण ने साफ कहा:
“मालदेव अभी तो लौटा है, पर यह समझौता स्थायी नहीं।
अगर उसकी नज़र हमारी समृद्धि पर है, तो वह फिर आएगा।
हम हर बार धन देकर नहीं बच सकते।
अब स्थायी उपाय सोचना पड़ेगा।”
सलाहकार चुप थे।
युद्ध की क्षमता नहीं थी।
और मालदेव जैसा महत्वाकांक्षी राजा सामान्य संधियों से रुकने वाला भी नहीं था।
यहीं से रावल लूणकरण ने उस उपाय के बारे में सोचना शुरू किया, जिसने आगे चलकर मारवाड़ और जैसलमेर — दोनों के इतिहास की दिशा बदल दी।
यह उपाय था —
रिश्तेदारी का बंधन।