Mukalkat - Ek Ankahi Dastaan - 8 in Hindi Love Stories by Aarti Garval books and stories PDF | मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 8

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मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 8

मुंबई—वो शहर जो किसी एक ज़िंदगी की रफ़्तार से नहीं चलता, बल्कि लाखों धड़कनों की ताल पर सांस लेता है। यहाँ न कोई किसी का इंतज़ार करता है, न किसी के जाने से ग़मगीन होता है। लोकल की पटरी से लेकर मरीन ड्राइव की पत्थरों तक, हर कोना अपने अंदर अनगिनत कहानियाँ छुपाए बैठा है—खुशियों की, टूटे सपनों की, भागती ज़िंदगी की, और उन चुपचाप रोती उम्मीदों की, जिन्हें कोई देख नहीं पाता।

और इन्हीं अनजान चेहरों, भीड़ भरी सड़कों और तेज़ चलती ज़िंदगी के बीच, अब आदित्य भी था—खामोश, धीमा, और भीतर एक तूफान को अपने सीने से लगाकर चलता हुआ।

स्टेशन से बाहर निकलते ही उसने शहर की उस चिर-परिचित हलचल को महसूस किया। लेकिन इस बार यह शोर उसे भीतर तक सुना हो गया था। संयोगिता के आँसू, स्टेशन का वो आख़िरी दृश्य, और उसकी वो बिखरी हुई पायल—सब कुछ अब उसकी साँसों में घुल गया था।

"मैं तुमसे प्यार करती हूँ, आदित्य…"

उसकी आँखों में बार-बार वही लम्हा घूम जाता। वह जानता था, सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं बचा था।

नया काम, नए लोग, नई ज़िम्मेदारियाँ—उसने खुद को व्यस्त करने की हर कोशिश की, पर हर पल के खालीपन में वही चेहरा उभर आता।

एक शाम, थके हुए कदमों से जब वो घर लौटा, तो अपनी पुरानी किताबों और कागज़ातों के बीच कुछ तलाशने लगा। तभी एक धूल से सनी डायरी उसके हाथ में आई—नीले रंग की, पुराने समय की… और उसके पहले प्यार की याद दिलाने वाली।

उसके होठों पर एक हल्की मुस्कान तैर गई।

"अन्वी..."

सालों पहले की वो कहानी एक बार फिर उसकी आँखों में ताज़ा हो गई।

वो कॉलेज के दिनों की बात थी, जब आदित्य लाइब्रेरी में पढ़ाई कर रहा था। वहीं उसे एक पुरानी किताब के भीतर एक छोटी-सी डायरी मिली थी। डायरी किसी लड़की की थी, जिसने उसमें अपनी ज़िंदगी, सपने, अकेलापन और सवाल लिखे थे।

"क्या कभी कोई मुझे समझेगा, बिना कुछ कहे?"

उसने उस दिन डायरी वापस उसी किताब में रख दी थी, लेकिन अगले दिन एक चिट्ठी के रूप में जवाब छोड़ गया।

बस यहीं से शुरू हुआ था एक अनोखा संवाद—नाम न बताने वाले दो अजनबी, जो चिट्ठियों के ज़रिए एक-दूसरे की ज़िंदगी का हिस्सा बनते गए थे।

आदित्य की लिखावट में संवेदना थी, और उस लड़की की स्याही में टूटे हुए सपनों की ख़ामोशी।

धीरे-धीरे वो चिट्ठियाँ उनके जीवन की सबसे कीमती चीज़ बन गईं थीं। वो लड़की अपना नाम अन्वी बताती थी—एक काल्पनिक नाम, पर भावनाएँ एकदम सच्ची।

आज इतने वर्षों बाद, जब संयोगिता की यादें उसे तोड़ रही थीं, तब वो चिट्ठियाँ उसके लिए जैसे मरहम बन गईं।

उसने डायरी के पन्ने पलटने शुरू किए। हर शब्द में उसे अपना पुराना जज़्बा और मासूमियत मिल रही थी।

लेकिन अब… एक बार फिर वो खुद को उसी मोड़ पर खड़ा महसूस कर रहा था—जहाँ प्यार था, लेकिन साथ नहीं।

मुंबई की खिड़की से बाहर झाँकते हुए, आदित्य ने मन में एक सवाल किया—

"क्या मेरी किस्मत में हमेशा अधूरी मोहब्बतें ही रहेंगी?"

उसने डायरी को सीने से लगाकर आँखें मूँद लीं, और संयोगिता का चेहरा फिर से धुंधला होकर उभरने लगा…

शायद कुछ मोहब्बतें लौटती नहीं, बस सहेजी जाती हैं—दिल के सबसे गहरे कोने में… चुपचाप।