धीरे-धीरे जैसलमेर की वो पुरानी गलियाँ आदित्य के लिए सिर्फ शहर की गलियाँ नहीं रहीं। वे उसके दिल की कहानी बन गई थीं—और उस कहानी की सबसे खास कड़ी थी संयोगिता।
दिन ढलते ही वे दोनों अक्सर रेगिस्तान की रेत पर बैठकर घंटों बातें किया करते। कभी ढोला-मारू की प्रेमकथा पर चर्चा होती, तो कभी संयोगिता आदित्य को लोकगीतों के मायने समझाती।
आदित्य उसकी हर बात को महसूस करता, जैसे वह शब्द नहीं, कोई अधूरी कविता हो।
"अगर मेरी कहानी के लिए नायिका चुननी हो..."
उस दिन वे दोनों जैसलमेर के पुराने किले की सबसे ऊँची दीवार पर बैठे थे। सूरज धीरे-धीरे रेत के समंदर में उतर रहा था। हवा में ठंडक थी, और संयोगिता अपनी लाल चूनर को ठीक करती हुई आकाश की ओर देख रही थी।
आदित्य ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "अगर मुझे अपनी कहानी के लिए नायिका चुननी हो, तो मैं तुम्हें चुनूंगा।"
संयोगिता ने एक पल को उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी, जैसे किसी भूले-बिसरे एहसास को छू लिया गया हो।
"तुम्हें डर नहीं लगता?" उसने अचानक पूछा।
आदित्य ने भौहें चढ़ाईं, "डर? किस चीज़ से?"
संयोगिता ने कुछ देर चुप रहकर कहा, "कभी-कभी कुछ कहानियाँ पूरी नहीं होतीं।"
उसके शब्दों में एक अनकहा दर्द था, जिसे आदित्य ने पहली बार इतने करीब से महसूस किया।
वह मुस्कुराया, लेकिन उसकी आँखों में संजीदगी थी। "अगर कहानी सच्ची हो, तो अधूरी नहीं रहती। उसे बस जीना पड़ता है।"
संयोगिता ने सिर झुका लिया, जैसे वह आदित्य के जवाब को पूरी तरह समझने की कोशिश कर रही हो।
"कभी-कभी जीना ही सबसे मुश्किल होता है, आदित्य जी।"
संयोगिता कुछ और कहती, इससे पहले ही आदित्य का फोन अचानक बज उठा।
हवा में एक अजीब-सी खामोशी भर गई थी। उसने जेब से फोन निकाला और स्क्रीन पर अनजान नंबर देखकर हल्का-सा ठिठक गया।
संयोगिता ने गौर किया कि वह फोन उठाने से पहले ही जैसे जानता था कि दूसरी तरफ कौन होगा।
"हेलो…"
आदित्य के चेहरे का रंग धीरे-धीरे बदलने लगा। उसकी पकड़ फोन पर कस गई, और आँखों में एक अनजानी गंभीरता तैरने लगी। वह बस सुनता रहा, बिना कोई प्रतिक्रिया दिए।
संयोगिता ने पहली बार उसे इतना चुप और अस्थिर देखा था। ऐसा लग रहा था जैसे फोन के दूसरी तरफ कोई उसकी ज़िंदगी का कोई ऐसा सच कह रहा था, जिससे वह भाग नहीं सकता था।
कुछ पल बाद उसने फोन धीरे से काट दिया। उसके चेहरे पर कई सवाल झलक रहे थे, लेकिन वह खुद जवाब देने को तैयार नहीं दिख रहा था।
संयोगिता कुछ पल तक उसे देखती रही, लेकिन उसने फोन के बारे में कुछ नहीं पूछा। शायद वह जानती थी कि कुछ सच्चाइयाँ जब तक खुद सामने न आएँ, उन्हें टटोलना बेकार है।
थोड़ी देर बाद उसने अपनी नज़रें झुका लीं और हल्की आवाज़ में कहा, "मुझे जाना होगा।"
आदित्य चौंका। "इतनी जल्दी?"
संयोगिता ने सिर हिलाया, उसकी आवाज़ अब भी शांत थी, लेकिन उसमें एक अजीब-सा ठहराव था। "हाँ, घर से बुलावा आ गया है।"
आदित्य उसे ध्यान से देखने लगा। कुछ था उसकी आँखों में—एक छिपी हुई बेचैनी, एक अनकहा डर।
"सब ठीक है ना?" उसने धीरे से पूछा।
संयोगिता ने एक पल को उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में एक अनकहा खालीपन था, जैसे वह कुछ कहना चाहती थी, लेकिन शब्द उसकी जुबान तक आते-आते कहीं खो जाते थे।
"हाँ… सब ठीक है। बस… ज़रूरी काम है।"
वह उठ खड़ी हुई। आदित्य ने चाहा कि वह उसे रोक ले, उससे पूछे कि असली वजह क्या है, लेकिन वह जानता था कि कुछ सवालों के जवाब तभी मिलते हैं जब वक़्त सही होता है।
संयोगिता चली गई, लेकिन आदित्य को लग रहा था कि वह सिर्फ अपने घर नहीं जा रही थी—बल्कि अपनी किसी अनकही सच्चाई की ओर लौट रही थी।
वह वहीं खड़ा रहा, हवा में संयोगिता की महक अब भी तैर रही थी। कुछ था जो अधूरा रह गया था। कुछ था, जो अब भी कहे जाने का इंतज़ार कर रहा था…