रात का दूसरा पहर था। जैसलमेर का सोनार किला चाँदनी में नहाया हुआ था, और रेगिस्तान की ठंडी हवा रेत के कणों को हल्के-हल्के उड़ा रही थी। दूर से लोक-संगीत की धुनें आ रही थीं—रावणहत्था की करुण तान और ढोलक की थाप रेगिस्तान की नीरवता को संगीतमय कर रही थी।
आदित्य, एक प्रसिद्ध उपन्यासकार, किले की एक संकरी गली में धीमे कदमों से चलता जा रहा था। वह महीनों से एक प्रेम-कहानी लिखने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसका हर प्रयास अधूरा महसूस होता था। शब्द थे, भाव थे, लेकिन कहीं न कहीं एक असली जज़्बात की कमी थी। उसे किसी ऐसी प्रेरणा की तलाश थी, जो उसकी कहानी को जीवंत बना दे।
32 वर्षीय, लंबा कद, गहरी भूरी आँखें और चेहरे पर हल्की दाढ़ी—उसका व्यक्तित्व एक रहस्य की तरह था। उसकी आँखों में एक ऐसी चमक थी, जो किसी भी आम इंसान से अलग थी, लेकिन उसी के साथ उनमें एक अजीब-सा खालीपन भी था, जैसे वह किसी अधूरी तलाश में हो।
लंबे, बेतरतीब बाल, हल्का गेहुँआ रंग, और एक ऐसा आकर्षण, जो शब्दों से ज्यादा खामोशी में बसा हो। वह उन लोगों में से था, जो ज्यादा बोलते नहीं, लेकिन जब कुछ कहते, तो लोग सुनने के लिए रुक जाते।
कभी-कभी उसके माथे पर हल्की शिकन आ जाती, जैसे कोई पुरानी याद उसे परेशान कर रही हो। वह महँगे कपड़ों में नहीं, बल्कि साधारण लेकिन कलात्मक पहनावे में रहता था—गहरे रंग की शर्ट, डेनिम जैकेट, और पुरानी घिसी हुई जींस, जो बताती थी कि वह आराम और आत्मविश्वास दोनों को साथ लेकर चलता था। उसकी कलाई पर एक पुरानी घड़ी बंधी थी, जो शायद किसी यादगार लम्हे की निशानी थी।
लेखकों की तरह, उसकी जेब में हमेशा एक नोटबुक और एक पेन रहता, और जब वह चलता, तो कभी-कभी अपने होंठों के नीचे कुछ बुदबुदाता, जैसे कोई नया संवाद गढ़ रहा हो।
उसकी शख्सियत में एक अजीब-सा आकर्षण था—गहरा, गंभीर, और थोड़ा रहस्यमयी। किसी को भी पहली ही नज़र में यह एहसास हो जाता कि यह आदमी सिर्फ कहानियाँ नहीं लिखता, बल्कि शायद खुद भी एक कहानी का किरदार है।
आज वह जैसलमेर में था—एक ऐसी जगह, जहाँ प्रेम और दर्द की कहानियाँ सदियों से हवाओं में घुली हुई थीं।
किले के पास एक बड़ा मैदान था, जहाँ लोक-संगीत महोत्सव आयोजित किया गया था। चारों तरफ रंग-बिरंगे टेंट लगे थे, मिट्टी के दीपकों की रौशनी माहौल को और जादुई बना रही थी। मंच पर लोक कलाकार प्रस्तुति दे रहे थे, और पर्यटकों से लेकर स्थानीय लोग तक इस संगीतमय शाम का आनंद ले रहे थे।
इसी भीड़ में आदित्य भी था—अपने कैमरे के साथ, हर पल को कैद करने की कोशिश करता हुआ। लेकिन अचानक, उसकी नज़र एक ऐसी छवि पर पड़ी, जिसने उसे जड़ कर दिया।
मंच के बीचों-बीच खड़ी वह युवती सिर्फ एक गायिका नहीं थी, बल्कि एक जीती-जागती कविता थी।
उसकी लाल और सुनहरे गोटे वाली घाघरा-चोली इतनी भव्य थी कि लग रहा था, जैसे वह खुद राजस्थान की मिट्टी से जन्मी कोई राजकुमारी हो। उसके लंबे, काले बाल उसके दोनों कंधों पर किसी नदी की तरह लहरा रहे थे, और हवा के झोंकों के साथ कभी-कभी उसकी एक-दो लटें उसके चेहरे पर आ जातीं। लेकिन सबसे ज्यादा सम्मोहक थी उसकी आँखें—गहरी, शांत, लेकिन उनमें छुपी उदासी किसी अनकही कहानी की तरह थी।
माथे पर चमकती बिंदिया जब मंच की रोशनी में झिलमिलाती, तो लगता जैसे चाँदनी खुद उसकी आँखों से झांक रही हो। उसकी नाक में पहनी नथ, हाथों में हल्की चूड़ियाँ, और पैरों में छनकती पायल—सब कुछ मिलकर उसे किसी राजस्थानी लोकगाथा की अमर नायिका बना रहे थे।
लेकिन सबसे ज़्यादा जादू था उसकी आवाज़ में।
जब उसने रावणहत्था की करुण धुन पर "ढोला-मारू" का गीत गाना शुरू किया, तो पूरा महोत्सव जैसे ठहर गया। उसकी आवाज़ में कोई आम मिठास नहीं थी—बल्कि उसमें एक गहराई थी, एक टीस, एक ऐसा दर्द, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता था।
"यह सिर्फ एक गीत नहीं, यह किसी की अधूरी कहानी है..." आदित्य ने खुद से कहा।
महोत्सव खत्म होने के बाद, आदित्य ने उसे मंच के पीछे एक कोने में बैठे देखा। उसके हाथ में एक पुरानी चमड़े की जिल्द वाली डायरी थी, जिसमें वह कुछ लिख रही थी।
आदित्य ने हिम्मत करके आगे बढ़ते हुए कहा, "बहुत खूबसूरत गाया आपने। ऐसा लगा जैसे यह सिर्फ एक लोक-कथा नहीं, बल्कि आपकी अपनी कहानी हो।"
संयोगिता ने धीरे से नज़र उठाई। उसकी आँखों में एक अजीब-सी गहराई थी—जैसे वे बहुत कुछ कहना चाहती हों, लेकिन कह न पाई हों।
"कहानी हर जगह होती है, बस महसूस करने वाला चाहिए," उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
आदित्य को पहली बार महसूस हुआ कि यह मुलाक़ात कोई साधारण संयोग नहीं थी।
यह एक अनकही दास्तान की शुरुआत थी...