Mukalkat - Ek Ankahi Dastaan - 9 in Hindi Love Stories by Aarti Garval books and stories PDF | मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 9

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मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 9

मुंबई की रफ़्तार हर किसी को अपने साथ बहा ले जाती है—लोकल की गूंजती पटरियाँ, ऑफिस की दौड़, और रात के खाने तक उठती भागदौड़। हर मोड़ पर एक नई कहानी जन्म लेती है, हर गली में एक नया चेहरा अपना बोझ ढोता दिखता है। लेकिन आदित्य के लिए यही शहर, जो कभी सपनों का आंगन लगता था, अब एक खामोश कैदखाना बन चुका था—ऐसा कैदखाना जहाँ बाहर बहुत शोर था, लेकिन भीतर एक गहरा सन्नाटा।

दिनभर वह खुद को काम में इस तरह झोंक देता जैसे किसी गहरे समुंदर में डूबकर सतह की आवाज़ें सुनाई ही न दें। मीटिंग्स में वो सिर हिलाता, लेकिन दिमाग कहीं और भटकता रहता। ऑफिस के चमकदार स्क्रीन के सामने देर रात तक बैठा रहता—फाइलें खुलती, बंद होतीं, लेकिन उसका मन किसी एक पन्ने पर टिक नहीं पाता।

उसने कमरे की दीवारों को नया रंग देने का फैसला किया—शायद रंग बदलने से अंदर का खालीपन भी बदल जाए। उसने अलमारी की सारी किताबें एक-एक करके निकालीं, धूल झाड़ी, और नई तरह से सजाया। लेकिन हर किताब के पन्ने जैसे उसे संयोगिता की यादों में धकेल देते। कोई पात्र उसे उसकी मुस्कान की याद दिलाता, कोई कविता उसकी आवाज़ की।

इतना ही नहीं, उसने खुद को व्यस्त रखने के लिए किचन में भी कदम रख लिया। सब्जियाँ काटते समय वह अपने हाथों में एक अजीब कंपन महसूस करता, जैसे हर टुकड़ा काटते हुए कुछ छूटता जा रहा हो। दाल चढ़ाते समय उसे जाना-पहचाना सुगंध भी सांत्वना नहीं दे पाती। चाय बनाते हुए उसे उसी शाम की याद आ जाती—गढ़ीसर झील, ठंडी हवा, और संयोगिता की काँपती हुई सांसें।

वह जितना खुद को कामों में उलझाता, उतना ही संयोगिता उसकी सोच में खुलती चली जाती।
शहर के इस अनवरत शोर में भी उसे सबसे ज्यादा सुनाई देता था अपना ही भीतर गूंजता हुआ नाम—
"संयोगिता…"

उसका मन कहता था, काम में उलझ जाओ, पर यादें थीं कि हर रात उसका पीछा नहीं छोड़ती थीं। वह बिस्तर पर करवटें बदलता, और छत को देखते हुए सोचता—

"क्या वो भी मुझे याद करती होगी?"

मुंबई की यह भीड़ भी उसे उस एक खामोश शाम से नहीं निकाल पा रही थी, जिसने उसकी ज़िंदगी को दो हिस्सों में बांट दिया था—एक हिस्सा वह था जिसमें वो आदित्य था, और दूसरा जिसमे वो सिर्फ एक आदमी था… जो संयोगिता को भूल नहीं पा रहा था।

पर हर छोटे-छोटे काम के बीच उसका ध्यान भटक ही जाता। एक बार जब चाय चढ़ाकर वह थोड़ी देर बालकनी में खड़ा हुआ, तो हवा के झोंके के साथ जैसे फिर वही आवाज़ उसके कानों में गूंजने लगी
—"आदित्य, कुछ मोहब्बतें वक़्त से नहीं डरतीं, लेकिन समाज से हार जाती हैं।"

वो जानता था, ये सिर्फ उसकी कल्पना है… लेकिन ये कल्पनाएं ही अब उसकी दुनिया बन चुकी थीं।

रात को जब वह थककर बिस्तर पर गिरता, तो आँखें बंद करते ही वही स्टेशन का दृश्य उसकी आँखों के सामने तैरने लगता—संयोगिता का चेहरा, भीड़ में खोई उसकी आँखें, ट्रेन की सीटी, और वो अधूरी विदाई।

वो बार-बार खुद से कहता, “आदित्य, अब आगे बढ़ना होगा...”

लेकिन कैसे?

जब दिल की हर धड़कन किसी एक नाम से बंधी हो, तो उससे अलग कैसे जिया जाता है?

वो कोशिश करता पुराने दोस्तों से मिलने की, हँसने की, बातचीत करने की—but हर बार उसके होंठों पर मुस्कान अधूरी ही रह जाती।

एक दिन दफ़्तर में उसके बॉस ने कहा, “तुम यहाँ तो हो, लेकिन जैसे कहीं और खोए हुए हो, आदित्य।”

उसने जबरन मुस्कराते हुए सिर हिलाया, लेकिन भीतर से कुछ भी नहीं बदला।

रात को अकेले कमरे में वह संयोगिता की भेजी आख़िरी चिट्ठी को बार-बार पढ़ता, उसकी तस्वीर को देखता, और सोचता—"क्या वो भी मुझे याद करती होगी?"

शायद करती हो... शायद नहीं। लेकिन यही 'शायद' उसकी सबसे बड़ी सज़ा बन चुका था।

कई बार उसने मोबाइल उठाया, नंबर मिलाया... पर हर बार उसे खुद को ही रोकना पड़ा।

संयोगिता सिर्फ एक लड़की नहीं थी उसके लिए। वो उसकी रूह बन चुकी थी—एक अधूरी रचना, जिसे न मिटा सकता था, न पूरा कर सकता था।

वो जानता था, मोहब्बत कोई कहानी नहीं जो पूरी हो, कभी-कभी वो एक अहसास होती है जो बस जी ली जाती है… तन्हाई में, खामोशी में, और यादों की धूल में।

और आदित्य… अब उसी धूल में साँस ले रहा था, जीने की कोशिश में—पर सच कहें तो, वो अब भी उसी स्टेशन पर खड़ा था… उसी पल में, जहाँ से संयोगिता चली गई थी।