नागदेव सेनापति की बात सुनकर बहुत गुस्से में कहते हैं.....
अब आगे..............
नागदेव गुस्से में कहते हैं....." तुम किसी भी मनुष्य के कहने पर उसे यहां हमारे पास ले आओगे , तुम ये कैसे भूल सकते हो ये कोई साधारण मंदिर नहीं है जो किसी भी मनुष्य को यहां लाया जाए..."
विवेक नागदेव की बात को सुनकर उनके पास जाकर अपनी बंद मुट्ठी को नागदेव की तरफ करते हुए कहता है....." आप शांत हो जाइए , पहले इस रूद्राक्ष को ले लिजिए...."
नागदेव विवेक के हाथ में नागरूद्राक्ष को देखकर हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए कहते हैं....." तुम्हें ये कहां से मिला...?....और मायानगरी में तुम जीवित कैसे बच गए..??.."
तभी सेनापति प्राजिल कहता है...." महाराज इसलिए तो हम इसे आपके पास लेकर आए हैं , क्योंकि कोई भी इस मायानगरी में यहां तक नहीं पहुंच सका है , और इस मनुष्य का यहां जीवित पहुंचना जरुर महाकाल की इच्छा है..."
नागदेव उसकी बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं....." तुम ठीक कह रहे हो प्राजिल , ,तुम अपना परिचय दो , यहां आने की क्या वजह है तुम्हारी...?..."
विवेक कहता है...." मेरा परिचय सिर्फ इतना है कि मुझे मयनदेव ने यहां भेजा है और उनके कहने पर ही मैं यहां रक्त रंजत खंजर की तलाश में आया हूं अब आप जल्दी से मुझे उस खंजर तक पहुंचा दे ...."
नागदेव के चेहरे पर गुस्से के भाव हटते हैं और एक मुस्कान के साथ कहते हैं....." तुम्हें मयनदेव ने भेजा है , वो हमारा मित्र हैं लेकिन तुम्हें ये नागरूद्राक्ष कैसे मिला..?...ये हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी है....."
" ये मुझे मयनदेव ने ही आपको देने के लिए कहा था , और बाकी आप इस पेंडेंट को देखकर समझ लें..."विवेक आदिराज का पेंडेंट उन्हें दिखाता हुआ कहता है...नागराज उस पेंडेंट पर हाथ रखते हुए आंखें बंद करके उसे महसूस करते हुए थोड़ी देर बाद आंखें खोलकर कहते हैं....." तो आदिराज अब इस दुनिया में नहीं है......"
विवेक उनकी बात को काटते हुए हैरानी से पूछता है...." आप उन्हें जानते हैं...?..."
" हां , वो अपनी साधना के लिए मयनदेव के साथ यहां पर आए थे , , हम तुम्हें खंजर तक पहुंचा देंगे लेकिन उस खंजर को प्राप्त कैसे करना है ये तुम ही जानो क्योंकि उस दिव्य खंजर को आजतक कोई प्राप्त नहीं कर पाया है , ..."
विवेक अपने सप्त शीर्ष तारा को निकालकर देखते हुए कहता है...." अब बस एक ही रोशनी बची है मुझे जल्द से जल्द इस खंजर को लेकर किसी भी तरह अदिति तक पहुंचना है.... मैं उस खंजर को हासिल जरूर करूंगा आप बस बता दीजिए कहां है वो ...?..."
नागदेव उसे अपने पीछे आने के लिए कहते हैं , विवेक उनके पीछे पीछे मंदिर के विशाल प्रांगण में पहुंच चुका था जहां गर्भगृह में जाकर दोनों ने साथ जोड़कर महादेव को प्रणाम किया और आगे चले गए , , नागदेव मंदिर के पीछले हिस्से में आ चुके थे जहां पर एक विशालकाय अनंतमुखी नाग की मुर्ति थी , नागदेव ने उसके सिर पर हाथ घुमाया जिससे वो मुर्ति दो हिस्सों में अलग हुई और एक सुरंग जैसा रास्ता बन चुका था , तीनों उस रास्ते से होते हुए अंदर पहुंच चुके थे और वो मूर्ति वापस बंद हो गई थी....
तीनों एक बहुत सुंदर से उद्यान में पहुंच चुके थे , जहां की सुंदरता के बीच बन एक तालाब के पास जाकर रुकते हैं , नागदेव ने उस तालाब की तरफ इशारा करते हुए कहा....." इस तालाब के आसपास तुम्हें एक स्वर्ण हंस मिलेगा , वो हंस ही तुम्हें उस खंजर तक पहुंचा देगा , लेकिन उस हंस को ढूंढ़ना इतना सरल नहीं है वो हंस अत्यधिक चंचल है , इसलिए जरा संभलकर रहना....." इतना कहकर नागदेव वहां से जाने लगते हैं तभी विवेक उनसे पूछता है...." आप ये तो बता दीजिए मैं यहां से बाहर कैसे जाऊंगा...?...."
नागदेव मुस्कुराते हुए कहते हैं......" अगर खंजर मिल गया तो तुम्हें किसी बात की चिंता नहीं क्योंकि वो तुम्हें मार्ग बता देगा और नहीं मिला तो तुम कभी वापस नहीं जा सकते...." इतना कहकर नागदेव वहां से चले जाते हैं....
विवेक जल्दी से उस तालाब के आसपास उस स्वर्ण हंस को ढूंढ़ने लगा......
इधर अमोघनाथ जी की मंत्रों की श्रेणी टूटने लगी थी , जिसकी वजह से उस पंख के आसपास के अक्षत अपने आकार को छोड़ते हुए इधर उधर बिखर रहे थे , जिससे चेताक्क्षी अमोघनाथ जी को संभालते हुए कहती हैं...." बाबा अपने मंत्रों की श्रेणी को टूटने मत दो , जल्द ही हम इस पंख की सच्चाई जानने लगेंगे...."
तभी आदित्य चिल्लाता है....." चेताक्क्षी इधर आओ जल्दी...." चेताक्क्षी जल्दी से आदित्य के पास जाती हुई कहती हैं...." क्या हुआ आदित्य...?...."
" चेताक्क्षी ये मिट्टी बिखर क्यूं रही है ...?...."
चेताक्क्षी मायुसी से कहती हैं....." आदित्य , इस मिट्टी की ऊर्जा शक्ति खत्म हो रही है , क्योंकि गामाक्ष अपनी पैशाची क्रिया कर रहा है , उसकी शक्ति के आगे हमारी ये छोटी सी क्रिया असफल हो रही है , , बस अब उस खंजर के आने की प्रतीक्षा है , उसके बाद हमें किसी क्रिया की जरूरत नहीं है...."
आदित्य उम्मीद भरी आवाज में कहता है......" जल्दी आ जाओ विवेक...."
उधर विवेक को काफी ढूंढ़ने के बाद वो स्वर्ण हंस मिल चुका था लेकिन वो विवेक की पकड़ से काफी दूर हो रहा था कभी वो पानी में चला जाता कभी झाड़ियों में ..... आखिर में काफी मशक्कत के बाद हंस विवेक के हाथों में था , ....वो हंस अपने आप को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था लेकिन विवेक ने उसे कसकर पकड़ लिया था , आखिर हार मानते हुए उस हंस ने कहा....." तुम्हें क्या चाहिए , मुझे क्यूं पकड़ा है...."
" सुनो मुझे जल्दी से रक्त रंजत खंजर तक पहुंचा दो , उसके बाद तुम चले जाना...."
" ठीक है , चलो मेरे साथ..."
विवेक उस हंस के पीछे पीछे जाता है , वो हंस उसी तालाब की में काफी गहराई में जाने लगता है , लेकिन विवेक को एहसास होता है उसका इस पानी में दम नहीं घुट रहा है बल्कि वो तो आराम से सांस ले रहा है...
अपनी हैरानी जताते हुए विवेक ने उस हंस से पूछा...." मैं इस पानी में सांस कैसे ले पा रहा हूं...?..."
...............to be continued...........