भाग 17
रचना:बाबुल हक़ अंसारी
“खिलाड़ी का खुला पन्ना”
नकाब के पीछे…
हवा में सन्नाटा और भारी हो गया।
नकाबपोश धीरे-धीरे पास आया और ब्रीफ़केस ज़मीन पर रख दिया।
उसने नकाब उतारा—
रिया और अयान की साँसें थम गईं।
वो चेहरा किसी अनजान का नहीं था…
बल्कि वही इंसान था जिसने कभी आर्यन के साथ कॉलेज में पढ़ाई की थी— कबीर।
आर्यन दहशत से पीछे हट गया—
“क-कबीर? तू… यहाँ?”
कबीर की आँखों में नफ़रत की लपटें थीं।
“हाँ आर्यन… तूने मुझे भुला दिया।
लेकिन मैंने तुम्हें नहीं भुलाया।
रूद्र मेरे इशारों पर चलता था, और अब मैं ही इस खेल का मालिक हूँ।”
खेल का सच…
कबीर ने ब्रीफ़केस खोला—
उसके भीतर दर्जनों तस्वीरें, चिट्ठियाँ और एक नक्शा था।
“तुम्हारा इश्क़ जितना चमकता है… उतना ही मेरा अंधेरा गहरा होता गया।
रिया, तेरा नाम सुनते ही मेरे ज़ख्म ताज़ा हो जाते हैं।
और अयान, तूने वो सब छीन लिया… जो कभी मेरा था।”
रिया सन्न रह गई—
“क्या… तू भी…”
कबीर हँसा—
“हाँ, रिया। तुझसे मोहब्बत करने वाला सिर्फ़ अयान नहीं था।
मैं भी तुझ पर दिल हार चुका था।
लेकिन तूने मुझे कभी देखा ही नहीं… और यही मेरी नफ़रत की वजह बनी।”
तूफ़ान की आहट…
अयान गरजा—
“कबीर! इश्क़ छीना नहीं जाता, वो दिल से होता है।
तेरी नफ़रत आज तेरे लिए ताबूत बन जाएगी।”
कबीर ने हथियार निकालते हुए ठंडी मुस्कान दी—
“देखते हैं अयान… तेरा इश्क़ कितना दम रखता है।”
प्लेटफ़ॉर्म पर हवा और भारी हो गई।
जैसे आने वाले लम्हे में फिर से मौत और मोहब्बत का टकराव होने वाला हो।
“मोहब्बत बनाम नफ़रत”
टकराव की चिंगारी…
पटरी पर आती ट्रेन की सीटी कानों को फाड़ देने वाली थी।
कबीर की आँखों में नफ़रत का ज्वालामुखी भड़क रहा था, और अयान की आँखों में अपने इश्क़ की जिद्द चमक रही थी।
कबीर ने हथियार सीधा अयान की ओर ताना—
“आज तेरी साँसें तेरे इश्क़ की क़ीमत चुकाएँगी।”
अयान ने रिया को पीछे धकेला और दहाड़ा—
“तेरे हर वार को मैं अपनी मोहब्बत से रोकूँगा, कबीर! क्योंकि इश्क़ सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं… ताक़त है।”
मुक़ाबले का तूफ़ान…
कबीर ने पहला वार किया—चमकते हथियार की धार सीधी अयान की तरफ़ बढ़ी।
अयान ने अपनी मुट्ठियों से उसे रोका, दोनों ज़मीन पर लुढ़क गए।
पटरी के उस पार आर्यन चीखा—
“अयान! सावधान!! वो चालाक है… उसकी हर हरकत के पीछे धोखा है।”
रिया काँपते हाथों से ब्रीफ़केस उठा चुकी थी।
उसमें पड़ी चिट्ठियाँ और नक्शा उसकी आँखों के सामने बिखर गए।
हर काग़ज़ पर लिखा था—
“रिया… तू मेरी है।”
रिया की आँखों से आँसू फूट पड़े, लेकिन उसी पल उसने एक चिट्ठी ज़ोर से पढ़ दी—
“अगर मैं तुझे ना पा सका तो कोई और भी तुझे नहीं पा सकेगा।”
अयान गरज उठा—
“देख लिया, कबीर? यही तेरी नफ़रत है। और मेरी मोहब्बत? ये कभी किसी की कैद नहीं बन सकती।”
खून और इश्क़ का इम्तिहान…
कबीर फिर से वार करने ही वाला था कि ट्रेन और पास आ गई।
हवा का झोंका प्लेटफ़ॉर्म को हिला गया।
अयान और कबीर का बदन आपस में भिड़ते हुए पटरी के किनारे तक पहुँच गया।
रिया चीख पड़ी—
“अयान!!!”
कबीर की आँखों में पागलपन था—
“आज या तो तू गिरेगा… या मैं!! लेकिन रिया मेरी यादों से कभी आज़ाद नहीं होगी।”
अयान ने उसकी कलाई पकड़कर ज़ोर से झटका—
“यादें इश्क़ की नहीं… नफ़रत की क़ैद बनाती हैं, कबीर! और आज मैं तुझे तेरे अंधेरे में धकेल दूँगा।”
अगला मोड़…
कबीर और अयान की जंग पटरी पर आती ट्रेन के सामने पहुँच चुकी थी।
हर साँस मौत और मोहब्बत के बीच अटकी थी।
रिया के हाथ काँप रहे थे, लेकिन उसकी आँखों में अब डर नहीं—इश्क़ का साहस था।
क्या रिया अपने इश्क़ को बचाने का कोई कदम उठा पाएगी?
या ट्रेन की गर्जना इस जंग का हमेशा के लिए अंत लिख देगी?
अगले भाग में:
मोहब्बत और नफ़रत का फ़ैसला किसका होगा?
कबीर की जुनूनी आग… या अयान की मोहब्बत की लौ?
भाग 18: “पटरियों पर लिखा फ़ैसला”
रचना: बाबुल हक़ अंसारी