भाग-1: बारिश की पहली बूँद और एक अधूरा नाम
रचयिता: बाबुल हक़ अंसारी
उस रोज़ बारिश कुछ अलग थी…
ना ज़ोर से बरसी, ना आहिस्ता गिरी — बस जैसे किसी की यादों को छूने आई हो।
आर्यन अपने कमरे की खिड़की से बाहर टकटकी लगाए बैठा था।
सामने मैदान में कुछ बच्चे भीग रहे थे, कुछ पंछी फड़फड़ा कर छत की ओट में चले गए थे,
और बारिश की हर बूँद मानो किसी भूले हुए नाम की पुकार थी।
उसका मन अचानक फिर से वहीं अटक गया —
एक आवाज़… एक चेहरा… और वो अधूरा नाम — **"रिया..."**
वो नाम अब सिर्फ़ एक स्मृति था, लेकिन उसकी हर स्मृति आज भी साँस लेती थी।
पाँच साल बीत चुके थे, पर दिल की तह में वही नमी आज भी थी,
जैसे उस पहली मुलाकात वाली बारिश सूखने से इनकार कर रही हो।
तब पहली बार रिया उसके सामने आई थी —
लाल सूती दुपट्टा, आंखों में घुला सा दर्द और होंठों पर एक अजीब सी ख़ामोशी।
वो कॉलेज का पहला दिन था,
और रिया… जैसे बारिश में उतरी कोई अधूरी कविता।
आर्यन ने तब कुछ कहा नहीं था,
पर दिल ने पहली बार किसी को बिना मांगे महसूस किया था।
अब इतने सालों बाद, उसी खिड़की से देखता हुआ वो खुद से पूछ रहा था —
**"क्या तन्हा सफ़र सिर्फ़ अकेलेपन का होता है, या यादों का भी?"**
उसे पता नहीं था कि वो सफ़र जो रिया के साथ शुरू हुआ था,
अब भी उसकी हर सांस में चल रहा है।
हर मोड़ पर कोई ख़्याल बैठा था,
हर बारिश में कोई मुस्कान भीग रही थी।
शाम ढलने लगी थी,
और आर्यन के होंठ बुदबुदाए —
**"शायद मोहब्बत लौटकर नहीं आती… पर इंतज़ार कभी जाता भी नहीं।"**
बारिश रुक गई थी…
लेकिन आर्यन का तन्हा सफ़र अब फिर से शुरू हो गया था
अगली सुबह की हल्की धूप, खिड़की से अंदर ऐसे आई जैसे किसी ने पुराने ज़ख्मों पर हल्का सा हाथ रख दिया हो।
आर्यन का मन अब भी रात की बारिश में कहीं भीगा हुआ था।
उसने मेज़ पर रखी रिया की वही पुरानी डायरी उठाई —
पीली पड़ चुकी जिल्द, कोनों से मुड़ी हुईं पन्नियाँ…
पर हर शब्द अब भी वही गर्माहट लिए हुए।
उसने पढ़ा —
*"“अगर किसी दिन मैं बिना बताए चली जाऊँ, तो समझना मैं गई नहीं… बस कहीं खो गई हूँ… तुम्हारे ही अंदर।”*
आर्यन की आँखें भर आईं।
रिया की लिखी बातें अब उसके दिल से नहीं उतरती थीं।
कॉफी का प्याला सामने रखा था, लेकिन उसके स्वाद में अब वो मिठास नहीं थी…
जो तब होती थी, जब रिया पास बैठती थी।
कॉलेज लाइब्रेरी का वो कोना याद आ गया —
जहाँ दोनों अक्सर बिना कुछ बोले घंटों बैठे रहते थे।
रिया की आदत थी — हर किताब में एक गुलाब की सूखी पंखुड़ी रखना,
और हर पंखुड़ी पर कोई एक पंक्ति लिख देना।
एक दिन आर्यन ने वही पंखुड़ी पढ़ी थी —
*"तन्हाई में जब भी तुम्हारा नाम लूं, सारा जहां चुप हो जाता है..."*
अब वही पंखुड़ी उस डायरी में थी,
और आर्यन के पास बस ख़ामोशी थी।
उसने एक लंबा साँस लिया…
फिर बुदबुदाया —
**"कभी-कभी तन्हाई में सबसे ज़्यादा आवाज़ें होती हैं… बस सुनने वाला कोई नहीं होता।"**
उसकी आँखें अब गीली नहीं थीं,
क्योंकि अब वो आँसू बहाना छोड़ चुका था —
उसे अब **इंतज़ार की आदत हो गई थी