son of a rich father in Hindi Short Stories by Bikash parajuli books and stories PDF | अमीर बाप का औलाद

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अमीर बाप का औलाद

पहला भाग – शुरुआत

दिल्ली के एक पॉश इलाके में विशाल कोठी में रहने वाला अर्जुन मल्होत्रा सिर्फ़ 22 साल का था। उसका बाप राकेश मल्होत्रा शहर के सबसे बड़े बिज़नेसमैन में से एक था। पैसों की कोई कमी नहीं थी।
अर्जुन की ज़िंदगी तीन चीज़ों में ही सिमट चुकी थी —
गाड़ियाँ, पार्टियाँ और फ़िज़ूलखर्ची।

राकेश मल्होत्रा अपने बेटे से बहुत प्यार करता था, लेकिन एक पिता की तरह चाहता था कि बेटा पढ़ाई करे, मेहनत सीखे, अपने पैरों पर खड़ा हो। मगर अर्जुन को लगता था —
"जब पापा के पास इतना पैसा है, तो मेहनत करने की क्या ज़रूरत है?"

दूसरा भाग – बिगड़ती आदतें

अर्जुन देर रात तक दोस्तों के साथ पार्टी करता, शराब पीता, रेसिंग करता, और रोज़ पापा के क्रेडिट कार्ड से हज़ारों रुपये उड़ाता।
एक दिन राकेश मल्होत्रा ने गुस्से में कहा —

 "अर्जुन! जिस तरह से तुम पैसे उड़ा रहे हो, एक दिन सब बर्बाद हो जाएगा। पैसे पेड़ पर नहीं उगते!"


अर्जुन ने हँसते हुए जवाब दिया —

"डैड! पैसे आपके लिए मुश्किल से आते होंगे, मेरे लिए नहीं। आप कमाते रहिए, मैं खर्च करता रहूँगा!"


राकेश मल्होत्रा चुप हो गए, लेकिन अंदर ही अंदर उन्होंने एक फ़ैसला ले लिया।

तीसरा भाग – कड़वा सच

कुछ महीनों बाद, अर्जुन के 23वें जन्मदिन पर, राकेश मल्होत्रा ने उसे एक गिफ़्ट दिया। अर्जुन को लगा होगा कि कोई महंगी गाड़ी होगी, मगर डिब्बे में सिर्फ़ एक चिट्ठी थी।
चिट्ठी में लिखा था:

"अर्जुन,
अब वक़्त आ गया है कि तुम अपनी ज़िंदगी अपने बलबूते पर जीना सीखो।
आज से तुम्हारे सारे क्रेडिट कार्ड बंद कर दिए गए हैं, तुम्हारे नाम पर जो कंपनी की गाड़ियाँ और प्रॉपर्टी थी, वो भी वापस ले ली गई हैं।
अगर तुम अपनी काबिलियत साबित कर पाओ, तो ये सब तुम्हारा है…
वरना समझ लेना कि दौलत सिर्फ़ मेहनती लोगों के लिए होती है।"

अर्जुन को यक़ीन ही नहीं हुआ। पहली बार ज़िंदगी में उसके पास न पैसा था, न कार, न फ़िज़ूलखर्ची की आदत पूरी करने का तरीका।

चौथा भाग – संघर्ष की शुरुआत

अर्जुन ने सोचा,
"कोई बात नहीं, मैं दोस्तों से मदद लूँगा।"
लेकिन जिन दोस्तों के साथ वो रोज़ पार्टी करता था, उनमें से किसी ने भी मदद नहीं की। सबने बहाने बनाए।
अर्जुन पहली बार समझा कि जिनके साथ वो रातें बिताता था, वो सिर्फ़ उसके पैसों के दोस्त थे।

कई दिनों तक उसने नौकरी ढूँढी, मगर कोई भी कंपनी उसे नहीं लेती थी। उसके पास कोई स्किल नहीं थी, कोई डिग्री नहीं, सिर्फ़ बाप का नाम था।

पेट की भूख ने उसे छोटे-छोटे काम करने पर मजबूर कर दिया। कभी रेस्टोरेंट में बर्तन धोना पड़ा, कभी कैफ़े में वेटर बनना पड़ा।
यही वो समय था जब उसे एहसास हुआ कि मेहनत से कमाए गए पैसों की क़ीमत क्या होती है।

पाँचवाँ भाग – असली बदलावा

6 महीने की कड़ी मेहनत के बाद, अर्जुन को एक छोटे स्टार्टअप में सेल्स एग्ज़ीक्यूटिव की नौकरी मिल गई।
वहाँ उसने मार्केटिंग सीखी, लोगों से बातचीत करना सीखा, और धीरे-धीरे अपनी मेहनत और हुनर से अच्छा नाम कमा लिया।

उसने पहली बार अपनी सैलरी से पापा के लिए एक छोटा सा तोहफ़ा खरीदा — एक सस्ता लेकिन दिल से दिया हुआ पेन।

जब अर्जुन घर पहुँचा और पापा को वो पेन दिया, राकेश मल्होत्रा की आँखों में आँसू थे।
उन्होंने कहा —
आज तुमने वो कर दिखाया, जो मैं सालों से चाहता था। अब तुम समझ गए हो न बेटा, दौलत की असली क़ीमत क्या होती है?"

अर्जुन ने पापा के गले लगते हुए कहा —

"हाँ डैड, अब समझ गया हूँ…
पैसा तब तक हमारा नहीं होता, जब तक वो हमारी मेहनत से न कमाया जाए।"

छठा भाग – सफलता की उड़ान

अर्जुन यहीं नहीं रुका। उसने अपनी स्किल्स पर काम किया, छोटे-छोटे कोर्स किए, और तीन साल में अपनी खुद की डिजिटल मार्केटिंग कंपनी शुरू कर दी।
आज वो अपने दम पर करोड़ों कमा रहा था।
अब उसके पास फिर से लग्ज़री गाड़ियाँ थीं, बड़ा घर था, लेकिन फ़र्क ये था कि इस बार सब उसकी मेहनत का था।

राकेश मल्होत्रा गर्व से कहते थे —

"ये मेरा बेटा नहीं, मेरी मेहनत की पहचान है।"

अर्जुन मुस्कुराकर जवाब देता —

 "नहीं डैड, ये आपकी सीख की जीत है।"

सीख

"पैसा खर्च करने से नहीं, कमाने से बड़ा बनता है।
मेहनत की कमाई की मिठास, बाप की दौलत की मिठास से कहीं ज़्यादा होती है।"