Nehru Files - 9 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-9

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नेहरू फाइल्स - भूल-9

भूल-9
हिंदू सिंधियों के साथ यहूदियों जैसा व्यवहार 

सिंध दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता (इंडस या फिर सिंधु घाटी सभ्यता) का ठिकाना है, जिसकी प्रमुख पहचान मोहनजोदड़ो में की गई खुदाई में सामने आई, जो 7,000 ईस्वी पूर्व की है। 3,180 किलोमीटर लंबी इंडस या सिंधु नदी का उद्गम तिब्बत के पठार में मानसरोवर झील के पास से होता है और यह पाकिस्तान में लद्दाख, गिलगित-बाल्टिस्तान एवं पश्चिमी पंजाब से होकर निकलती है और यह सिंध के बंदरगाह वाले शहर कराची के पास अरब सागर में मिल जाती है। संस्कृत में ‘सिंधु’ का अर्थ है—पानी। ‘इंडिया’ नाम भी ‘इंडस’ से लिया गया है। सिंधु नदी की कई सहायक नदियाँ हैं। ऋग्‍वेद में सिंधु डेल्टा का उल्लेख सप्त-सिंधु (पारसी धर्मग्रंथ ‘जेंद अवेस्ता’ में ‘हप्त हिंदू’ के रूप में), जिसका मतलब—‘सात नदियाँ’ के रूप में लिया गया है। आर्य भारत के मूल निवासी थे और इसलिए सिंधु के भी। आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को काफी समय पहले ही निर्णायक रूप से खारिज किया जा चुका है। आनुवंशिक अध्ययन भी इस बात को साबित करते हैं। आर्यों और द्रविड़ों के बीच विभाजन की बातों को भी उपनिवेशवादियों द्वारा उनकी ‘बाँटो और राज करो’ तथा धर्मांतरण की रणनीति को पूरा करने के लिए जान-बूझकर फैलाया गया एक मिथक था। 

सिंध दूसरे वैदिक काल के दौरान महाराज दशरथ (श्रीराम के पिता) के साम्राज्य का एक हिस्सा था। जब श्रीराम रावण को हराकर वनवास से वापस लौटे और राजा बने तो उन्होंने अपने भाई भरत को सिंध एवं मुल्तान पर शासन करने की जिम्मेदारी दी। बाद में गांधार (कंधार) भी उनके अधीन आ गया। पेशावर और तक्षशिला शहरों के निर्माण का श्रेय भरत के पुत्रों को जाता है। 

606-647 ईसवी के दौरान भारत और सिंध पर शासन करने वाले हर्षवर्धन के शासनकाल तक सिंध अच्छे हाथों में था और उसके बाद वह कमजोर हाथों में चला गया। बौद्ध धर्म, जिसने पूरी शक्ति से अहिंसा का पाठ पढ़ाया और जिसकी सिंध में मौजूदगी भी थी, ने भी उसकी रक्षा क्षमताओं को कमजोर करने में अपना योगदान दिया। सिंध में उस समय सैकड़ों की संख्या में बौद्ध संघ और कई हजार बौद्ध भिक्षु मौजूद थे। 

638 ईस्वी और 711 ईस्वी के मध्य सिंध पर कब्जा करने के प्रयास से 15 बार जमीनी और समुद्री दोनों मार्गों से आक्रमण किया गया; लेकिन सभी को नाकाम कर दिया गया। आखिरकार, 712 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम सिंध को लूटने में कामयाब रहा। उसने सबसे पहले अप्रैल 712 ईस्वी में समुद्र के पास स्थित महत्त्वपूर्ण धार्मिक शहर देवल पर आक्रमण किया और फिर सिंध के राजा दाहिर को हराने के लिए आगे बढ़ा और आखिरकार, 16 जून, 712 ईस्वी को अपने मनसूबों में कामयाब हो गया। कासिम और उसकी सेना ने दाहिर के राज्यों की संपत्ति की लूटमार की और वहाँ से मिले माल को लेकर बगदाद स्थित हज्जाज की राजसभा में ले गया। कई महिलाओं को उठाकर बगदाद ले जाया गया। इसलाम धर्म को अपनाने से मना करने वाले 17 साल से अधिक के सभी पुरुषों को मार दिया गया। लेकिन जब यह देखा गया कि मारने के लिए हिंदुओं की संख्या बहुत अधिक है तो उन्हें नियमित रूप से ‘जजिया’ कर का भुगतान करने पर ‘धिम्मी’ का दर्जा प्रदान कर दिया गया। 

मोहम्मद बिन कासिम की मौत से जुड़ी कहानी भी बेहद दिलचस्प है। उस दौर के एक सिंधी इतिवृत्त ‘चचनामा’ के मुताबिक, कासिम ने राजा दाहिर की दो बेटियों को खलीफा के हरम के लिए उपहार के रूप में भेजा था। कासिम के हाथों हुई अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए उन दोनों बेटियों ने खलीफा से झूठ बोला कि कासिम ने उन्हें भेजने से पहले ही नापाक कर दिया है। इस बात से खफा खलीफा ने हुक्म दिया कि कासिम को बैलों की खाल में लपेटकर और सिलकर सीरिया लाया जाए। इसके परिणामस्वरूप दम घुटने से उसकी मौत हो गई। दोनों बहनों के इस धोखे के बारे में पता चलने पर खलीफा ने दोनों बहनों को दीवार में जिंदा चुनवाने का आदेश दिया। 

राम जेठमलानी ने के.आर. मलकानी की लिखी पस्‍तुक ‘द सिंध स्टोरी’ के लिए लिखी गई प्रस्तावना में एक गंभीर कथन कहा है—“सिंध की सीमाओं से परे बाकी के बचे भारतीय निश्चित रूप से अरबों की जीत के बारे में जानते थे। इसने उनके गंभीर अस्तित्व के शांत पानी पर जरा सी भी तरंग नहीं पैदा की। उनके लिए जीवन हमेशा की तरह सामान्य रूप से आगे बढ़ता रहा। उनके बीच न तो एक साथी हिंदू राजा के क्षेत्रीय नुकसान का बोध था और न ही एक नए (इसलामी) खतरे की प्रकृति की समझ थी। सिंध की हार को एक और लूटमार के रूप में खारिज कर दिया गया। ऐसा लगता था कि कमजोर करने वाले शांति के मार्ग से पीड़ित और अहिंसा के विचार से घिरे हुए भारतीयों ने आक्रांताओं से लड़ने का जिम्मा पूरी तरह से पेशेवर सैनिकों के भरोसे छोड़ दिया था। आसपास के बाकी के लोगों ने हिंदू मातृभूृमि की रक्षा के लिए एक उँगली तक नहीं उठाई। भारत की शानदार संपदा और उसकी नाजुक एवं सुंदर महिलाओं के प्रति आसक्त आक्रमणकारियों को कभी भी उस प्रकार के प्रतिरोध का सामना ही नहीं करना पड़ा, जो एक राष्‍ट्र पैदा कर सकता था।” (के.आर.एम.) 

सिंध को विभाजित क्यों नहीं किया गया? 
सिंध सन् 1843 में अंग्रेजों के अधीन आया और इसे बॉम्बे प्रेसीडेंसी के एक भाग के रूप में शामिल किया गया। विभाजन के समय सिंध एक ब्रिटिश भारतीय प्रांत था। इसकी सीमा बलूचिस्तान और पश्चिमी पंजाब (उत्तर में) तथा बहावलपुर (उत्तर-पूर्व), लास बेला (पश्चिम), कलात (पश्चिम) और खैरपुर (पूर्व : सिंध प्रांत इसे तीन ओर से घेरता था) की रियासतों से लगती थी। इसके पूर्व में राजस्थान था और गुजरात इसके दक्षिण की ओर था। 

स्वतंत्रता से पूर्व की अंतिम जनगणना के अनुसार, सिंध की आबादी करीब 41 लाख थी, जिनमें से 73 प्रतिशत मुसलमान थे, 26 प्रतिशत हिंदू थे और शेष 1 प्रतिशत ईसाई व सिख आदि थे। हिंदू जहाँ शहरी क्षेत्रों में केंद्रित थे, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में मुसलमानों का वर्चस्व था। सिंध के पाँच सबसे बड़े शहरों में से चार में हिंदू पूर्ण बहुमत में थे (उदाहरण के लिए, हैदराबाद में 70 प्रतिशत हिंदू थे)। और कराची इसका एक अपवाद था, जहाँ करीब 48 प्रतिशत मुसलमान, 46 प्रतिशत हिंदू और बाकी 6 प्रतिशत गैर-मुसलमान अन्य धर्मों से ताल्लुक रखते थे। यहाँ पर भी मुसलमान पूर्ण बहुमत वाली स्थिति में नहीं थे। भारत से लगते दक्षिण-पूर्व में चार उप-जिले उमरकोट, नगर पारकर, मीठी और छाछरो में भी 57 प्रतिशत के साथ हिंदुओं का बहुमत था। इसके अलावा, आसपास के कई उप-जिलों में भी करीब 40 से 45 प्रतिशत हिंदू आबादी थी। 

उपर्युक्त स्थिति को देखते हुए सिंध को हिंदू सिंधियों को स्थान देने के लिए विभाजित किया जा सकता था। दक्षिण-पूर्व सिंध और इसके साथ आसपास का कुछ निश्चित क्षेत्र सिंध के दूसरे भागों को छोड़ने वाले हिंदू सिंधियों को बसाने के लिए हिंदू या भारतीय सिंध हो सकता था। सिंध के उप-क्षेत्रीय हिंदू-मुसलिम अनुपात को देखते हुए कांग्रेस सिंध के कुछ हिस्सों को हिंदुओं के लिए अलग करवाने की कोशिश कर सकती थी। यह देखते हुए कि मुसलिम लीग सिंध में पड़े मतों में से सिर्फ 46 प्रतिशत ही हासिल करने में कामयाब हुई थी और लीग को मिले हर चार वोट के मुकाबले तीन वोट राष्ट्रवादी मुसलमानों ने डाले थे, कांग्रेस हिंदू बहुलता वाले क्षेत्रों में जनमत-संग्रह करवाने के लिए जोर डाल सकती थी। हालाँकि ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने सिंध को बिल्कुल उसी तरह से ‘एक दूर की जगह’ के रूप में छोड़ दिया था, जैसे चैंबरलेन ने सन् 1938 में चेकोस्लोवाकिया को यह कहते हुए हिटलर के लिए छोड़ दिया था कि ‘यह एक सुदूर देश है, जिसके बारे में हम बहुत कम जानते हैं।’ 

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खैरपुर भारत के पूर्व में स्थित एक रियासत थी और यह सिंध द्वारा बाकी तीनों तरफ से घिरा हुआ था। इसके मीर ने नेहरू से भारत में विलय की पेशकश की थी; लेकिन नेहरू ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया और भारत ने उनके विलय के कागजात उन्हें वापस लौटा दिए! अगर उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता तो खैरपुर और उसके साथ-साथ उससे लगा बाकी का हिंदू बहुल इलाका हिंदू या भारतीय सिंध हो सकता था।
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इतना सब होने के बावजूद हिंदू सिंधियों के लिए कुछ भी नहीं किया गया। उन्हें हजारों वर्षों की उनकी मातृभूमि से वंचित कर दिया गया। वे नए यहूदी बन गए, हालाँकि उनका इतिहास और मातृभूमि यहूदियों और इजराइल की तुलना में कई हजार साल पुरानी थी। ऐसा अन्याय क्यों? गांधी, नेहरू और अन्य भारतीय नेताओं ने उनके लिए बहुत कम प्रयास क्यों किए? 

एक तर्क यह दिया गया कि थार का रेगिस्तान भारत व पाकिस्तान के मध्य एक प्राकृतिक सीमा बनाता था और सिंध उस थार रेगिस्तान के उस ओर पड़ता था। यह तर्क उस स्थिति में तो उचित साबित हो सकता था, अगर भारत-पाकिस्तान का बँटवारा प्राकृतिक सीमाओं को ध्यान में रखते हुए किया गया होता; लेकिन मामला ऐसा नहीं था। भारत का हिस्सा बनने वाले पूर्वी पंजाब और पाकिस्तान में जानेवाले पश्चिमी पंजाब, जिसने नशे के सौदागरों और आतंकवादियों को पाकिस्तान से भारत आने की अनुमति दी, के मामले में वह प्राकृतिक सीमा कहाँ थी! या फिर पूर्वी बंगाल (पूर्वी पाकिस्तान, अब बँगलादेश) और पश्चिम बंगाल, जिसने बँगलादेशी घुसपैठियों को भारत में बड़ी संख्या में घुस आने की अनुमति दी, के बीच। या फिर जम्मू कश्मीर, पाकिस्तान और पी.ओ.के. के बीच, जो आतंकवादियों को पाकिस्तान से घुसपैठ का मौका देता है। अगर पंजाब, बंगाल और जम्मू कश्मीर के बीच बिना प्राकृतिक सीमा के ऐसा किया जा सकता है तो फिर सिंध के साथ क्यों नहीं? आखिर क्यों एक हिंदू सिंध या भारतीय सिंध नहीं होना चाहिए था? 

एक और तर्क यह है कि सभी क्षेत्रों में इस प्रकार का विभाजन किया जाना संभव नहीं था। अन्यथा क्षेत्रों को चिह्न‍ांकित क्यों नहीं किया, जैसे मुसलमानों के लिए यू.पी.? ऐसा करने के कई कारण हैं। उस समय यू.पी. में कोई मुसलमान बाहुल्य जिला नहीं था। विभाजन सिर्फ सीमावर्ती क्षेत्रों तक ही सीमित था, भारत और पाकिस्तान के भीतर कहीं भी नहीं। सिंध सीमा-क्षेत्र में स्थित था। शुरुआत में पाकिस्तान की अवधारणा सिर्फ उत्तर-पश्चिम भारत तक ही सीमित थी—इसमें पूर्वी बंगाल तक भी शामिल नहीं था।

1930 के दशक में और उसके बाद भी जब मुसलिम लीग ने सिंध को अपने भविष्य के पाकिस्तान के अंगों में से एक के रूप में प्रस्तावित किया या फिर जब समूहीकरण (समूह ए, बी, सी) प्रस्तावित किए गए, उस समय भी भारतीय नेताओं को या फिर हिंदू सिंधियों को समूचे सिंध को पाकिस्तान में मुसलमान बहुल क्षेत्र के रूप में शामिल किए जाने पर आपत्ति उठानी चाहिए थी। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

तथापि उनके लिए उनकी मातृभूमि का एक हिस्सा बचाए रखने के लिए, जैसाकि पंजाबियों या फिर बंगालियों के लिए किया गया, कुछ न किए जाने का सबसे बड़ा कारण शायद यह रहा कि हिंदू व सिखों ने इसके लिए सिखों या फिर हिंदू बंगालियों की तरह इसके लिए अपनी आवाज बुलंद नहीं की। सिंध के हिंदू आमतौर पर पंजाब के गैर-मुसलमान अल्पसंख्यकों की तरह आक्रामक या फिर लड़ाकू नहीं थे। यह दुनिया व्यापक रूप से तब तक लोगों के किसी भी वर्ग की दुर्दशा के प्रति अत्यधिक क्रूर और उदासीन रहती है, जब तक कि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद नहीं करते और बलिदान नहीं देते। यहूदियों ने सदियों तक कष्ट झेला, जब तक कि उन्होंने खुद को इजराइल के निर्माण के साथ स्थापित नहीं कर लिया। अपने अहिंसक बौद्ध धर्म के साथ तिब्बतियों को भी उनके देश से वंचित किया गया है। यजीदी और कुर्द, जो सदियों तक झेलते ही आए हैं, ने अब पलटवार करना प्रारंभ किया है। अपने हजारों वर्षों के सुसंस्कृत अतीत और व्यवसाय में आपकी व्यस्तता के चलते हिंदू सिंधी विरोध करने, आंदोलन करने या फिर लड़ने के प्रति बेहद शांत स्वभाव के थे। 

फिर भी गांधी-नेहरू और उनकी मंडली वाले भारतीय नेतृत्व से कुछ तो अपेक्षित था, जिनमें सिंधियों ने अपना विश्वास जताया था। सिर्फ यह कहा जा सकता है कि शायद हमारे स्वाधीनता आंदोलन की प्रकृति और हमारे राष्ट्रीय नेताओं की गुणवत्ता और क्षमता बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं थी। अफसोस की बात यह है कि गांधी-नेहरू और उनकी मंडली एक स्वाभाविक दोषपूर्ण वैश्विक दृष्टिकोण से पीड़ित थे और वे रणनीतिज्ञों, व्यूह-कुशल और जमीनी स्तर पर कार्यान्वयनकर्ता के रूप में मुसलिम लीग और ब्रिटिशों का मुकाबला करने के या फिर उनकी तैयार की हुई योजना के सामने खड़े होने में जरा भी सक्षम नहीं थे—और ऐसा सिर्फ सिंध के मामले में ही नहीं था, बल्कि बाकी के सभी मामलों के साथ भी यही हाल था! सरदार पटेल के पास वह प्रतिभा मौजूद थी, लेकिन नेहरू-गांधी की जोड़ी ने अकसर या तो उनकी अनदेखी की या फिर उन्हें कभी भी आजादी से काम करने का मौका नहीं दिया। 

हिंदू सिंधियों को यहूदियों जैसा बनाना 
आजादी के समय हिंदू सिधिं यों की आबादी लगभग 14 लाख (वर्ष 1931 की जनगणना के बाद से जनसंख्या में वृद्धि के आधार पर) थी, जिनमें से अधिकांश ने खुद को हिंसा से बचाने के लिए क्षेत्र को छोड़ने का फैसला लिया, विशेषकर मुसलमान शरणार्थियों (मुजाहिरों) की भीड़ के घुस आने के बाद, जिन्होंने उनकी (हिंदू सिधिं यों की) संपत्तियों को लूटना शुरू कर दिया और उन्हें उनके घरों से निकालना प्रारंभ कर दिया। जून 1948 तक करीब 10 लाख सिंधी भारत आने के लिए पाकिस्तान छोड़ चुके थे। यह पलायन उसके बाद भी जारी रहा और वर्ष 1951 में जाकर इस पर कुछ लगाम लगी। 

यद्यपि हिंदू सिंधियों को उनकी मातृभूमि, सांस्कृतिक विरासत और पहचान, व्यवसाय, जमीन, दुकानों, संपत्तियों और घरों से बेदखल कर दिया गया था—समृद्ध परिवारों को भिखारी की हालत में छोड़ दिया गया; लेकिन किसी ने भी आश्चर्य तक नहीं दिखाया—न ही संयुक्त राष्ट्र ने, न ही किसी मानवाधिकार संगठन, न ही अमेरिका, न ही ब्रिटेन या फिर पाकिस्तानी, जिनके साथ उनका सदियों का नाता था। और तो और, भारतीयों ने भी उनके पक्ष में आवाज नहीं उठाई! उनकी स्थिति अतीत के यहूदियों (1948 में इजराइल के बनने से पहले) या फिर 1950 के दशक के तिब्बतियों या फिर 1990 के दशक के कश्मीरी पंडितों या मौजूदा दौर के कुर्दों और यजीदियों जैसी हो गई। 

भारत एक गरीब देश था और इस बात का श्रेय नेहरूवादी आर्थिक नीतियों को जाता है कि वह एक गरीब देश ही बना रहा। नेहरूवादी भारत ने अपना सबकुछ खो चुके असहाय सिंधी हिंदू शरणार्थियों की सहायता के लिए न के बराबर कदम उठाए। उन्हें उनके दयनीय भाग्य पर छोड़ दिया गया और बिना किसी उपयुक्त मदद या सुविधा के विभिन्न शहरों और कस्बों के बाहरी क्षेत्रों में फेंक दिया गया। इसके बावजूद आपको हिंदू सिंधी समुदाय की इच्छा-शक्ति और कड़ी मेहनत का लोहा मानना ही पड़ेगा, जो बिना किसी सरकारी सहायता के धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़े हुए और समृद्ध बने। 

अगर भारतीय नेताओं, गांधी-नेहरू और मंडली, ने विभाजन के आंबेडकर के सुझाए मॉडल (इस पुस्‍तक में अन्यत्र विस्‍तारपूर्वक दिया गया) और आबादी तथा संपत्ति की शांतिपूर्ण अदला- बदली को अपनाया होता तो हिंदू सिंधी समुदाय को पाकिस्तान में हुई अपनी संपत्ति के नुकसान का पर्याप्त मुआवजा मिला होता, बल्कि उन्हें हिंसा और नुकसान का सामना करने से भी बचाया जा सकता था।