भूल-6
प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू का अलोकतांत्रिक चयन
सन् 1945 के बाद, भारत की स्वतंत्रता के नजदीक होने की उम्मीदों के साथ, सभी देशभक्त एक ऐसे व्यक्ति को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, जो मजबूत, मुखर, सक्षम, निर्णायक और समर्थ हो; जो भारत के खोए हुए गौरव को वापस लाने में सक्षम हो और इसे एक आधुनिक व समृद्ध राष्ट्र में बदल सके।
नेहरू-सरदार पटेल के बीच कोई मुकाबला नहीं
बाकी सबसे अलग और बेहतर होने के चलते लौह पुरुष सरदार पटेल स्पष्ट पसंद थे। और कोई भी एक अलोकतांत्रिक, हिचकिचाने वाला और अनभिज्ञ नेता नहीं चाहता था, जो सदियों बाद कड़ी मेहनत से मिली आजादी के साथ खिलवाड़ करे।
कांग्रेस पार्टी पहले से ही सरदार पटेल को एक शानदार निर्वाहक, आयोजक और नेता के रूप में आजमाकर देख चुकी थी, जिसके पैर जमीन पर टिके हुए थे। सरदार विभिन्न आंदोलनों और सौंपे गए कामों में अपनी क्षमता को साबित करके दिखा चुके थे, जिनमें वर्ष 1923 का नागपुर आंदोलन; 1923 का बोरसद सत्याग्रह; वर्ष 1924-27 के दौरान अहमदाबाद नगर पालिका का उत्कृष्ट प्रबंधन; 1927 में अहमदाबाद में आई बाढ़ से निबटना; 1928 का बारदोली सत्याग्रह, जिसने उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दिलवाई; 1930 का दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह; वर्ष 1934- 37 के दौरान कांग्रेस के लिए चुनावों का सफल प्रबंधन; 1938 में बड़े पैमाने पर आयोजित हुए कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन की तैयारी, आचरण और प्रबंधन; पार्टी मशीन का निर्माण; ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की तैयारी में भूमिका और 1945 के बाद से प्रमुख नेतृत्व की भूमिका में रहना शामिल था।
नेहरू की तुलना में पटेल की उपलब्धियों की सूची कहीं लंबी थी और कांग्रेस के सभी सदस्य एवं पूरा देश इस बात को अच्छे से जानता था। इसके अलावा, सरदार अकादमिक रूप से भी बेहतर थे और नेहरू की तुलना में कहीं अधिक समझदार भी थे। (विस्तृत जानकारी के लिए कृपया लेखक की अन्य पुस्तक ‘सरदार पटेल : द बेस्ट पी.एम. इंडिया नेवर हैड’ को देखें)। नेहरू की ही तरह सरदार पटेल ने भी इंग्लैंड में पढ़ाई की थी। लेकिन एक तरफ जहाँ नेहरू की पढ़ाई का पूरा खर्च उनके पिता ने उठाया था, वहीं सरदार पटेल ने अपनी पढ़ाई का सारा खर्च खुद ही उठाया, वह भी अपनी खुद की कमाई से! एक तरफ नेहरू जहाँ इंग्लैंड में खराब मानी जाने वाली द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो पाए, वहीं दूसरी तरफ सरदार पटेल ने प्रथम श्रेणी के साथ सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया!
व्यावसायिक क्षेत्र में भी पटेल एक सफल अधिवक्ता थे, जबकि नेहरू एक असफल अधिवक्ता। सरदार का काम बेहद शानदार चल रहा था और वे गांधी के कहने पर काम छोड़ने से पहले अहमदाबाद के सबसे अधिक भुगतान पाने वाले वकील थे; जबकि नेहरू अपने खुद के और अपने परिवार के खर्चों के लिए अपने पिता पर पूरी तरह से निर्भर थे। इसके अलावा, सरदार एक शानदार प्रशासक थे। बलराज कृष्ण ने लिखा—
“भारतीय सिविल सेवा के पदस्थ सदस्यों के बीच की सामान्य बातचीत स्वतंत्रता पश्चात् ये हुआ करती थी— ‘अगर सरदार पटेल के मृत शरीर को भरकर एक कुरसी पर रख दिया जाए, वे तब भी शासन कर सकते हैं’।” (वी.के./11)
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सन् 1917 के बाद से जमीनी स्तर पर व्यावहारिक अनुभव के आधार पर, 1946 में पूरे यकीन के साथ यह कहा जा सकता था कि प्रधानमंत्री जैसे महत्त्वपूर्ण पद के लिए नेहरू सरदार पटेल के मुकाबले कहीं भी नहीं ठहरते थे। निश्चित रूप से, प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू के व्यवहार ने बिना किसी शक के यह बात साबित करके रख दी कि वे सरदार ही थे, नेहरू नहीं, जिन्हें स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री होना चाहिए था।
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कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव और नेहरू-गांधी द्वारा उसे अपने कब्जे में लेना
चुनाव के लिए कानूनी प्रक्रिया
यह बात तय थी कि सन् 1946 में जो कोई भी कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाएगा, वही स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री भी नियुक्त होगा। इसलिए अध्यक्ष का चुनाव बेहद महत्त्वपूर्ण था। कई दशकों से प्रचलित प्रक्रिया के अनुसार, सिर्फ प्रदेश कांग्रेस कमेटियाँ (पी.सी.सी.) ही अध्यक्ष का चुनाव करने वाली अधिकृत निकाय थीं। ऐसी कुल 15 पी.सी.सी. मौजूद थीं। उन्हें कांग्रेस कार्य समिति (सी.डब्ल्यू.सी.) को अपना नामांकन भेजना था। अधिकतम नामांकन प्राप्त करने वाले व्यक्ति को पार्टी का अध्यक्ष चुना जाता था। 15 पी.सी.सी. होने के चलते कम-से-कम 8 पी.सी.सी. को किसी भी व्यक्ति को नामित करना पड़ता था, ताकि उसे अध्यक्ष बनने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त हो सके। सन् 1946 में अध्यक्ष पद के लिए नामांकन की अंतिम तिथि 29 अप्रैल, 1946 थी।
चुनाव का नतीजा : सरदार ने निर्विरोध जीत हासिल की
पी.सी.सी. द्वारा भेजे गए नामांकनों पर विचार करने के लिए 29 अप्रैल, 1946 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सी.डब्ल्यू.सी.) की बैठक हुई। 15 में से 12 (80 प्रतिशत) पी.सी.सी. ने सरदार पटेल को नामित किया (आर.जी./370) और 15 में से 3 (20 प्रतिशत) पी.सी.सी. ने किसी को भी नामित नहीं किया। (आई.टी.वी.) इसके चलते यह पूरी तरह से एकतरफा मुकाबला हो गया। सरदार पटेल एकमात्र विकल्प थे और एक अविवादित विकल्प, जिनके विरोध में कोई भी नहीं था।
यहाँ पर गौर करने वाली बात यह थी कि 20 अप्रैल, 1946 को, यानी नामांकन की अंतिम तारीख 29 अप्रैल, 1946 से ठीक नौ दिन पहले गांधी ने नेहरू के प्रति अपनी तरजीह के संकेत दिए थे। इसके बावजूद एक भी पी.सी.सी. ने नेहरू को नामित नहीं किया।
नेहरू-गांधी द्वारा चुनाव को अपने कब्जे में लेना
इस अप्रत्याशित (गांधी के लिए अप्रत्याशित) गतिविधि के मद्देनजर गांधी ने कृपलानी को उकसाया कि वे पार्टी अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम का प्रस्ताव देने के लिए सी.डब्ल्यू.सी. के कुछ सदस्यों को राजी करें। कृपलानी जैसे गांधीवादियों ने तुरंत ही अपने गुरु (महात्मा) के निर्देश का पालन किया। कृपलानी ने तत्काल और निर्विवाद तरीके से काम को अंजाम दिया—उन्होंने कुछ को नेहरू के नाम का प्रस्ताव देने के लिए राजी किया। इस अजीब गतिविधि को देखते हुए सरदार पटेल ने गांधी से जानकारी ली और उनसे सलाह माँगी। गांधी ने उन्हें अपना नाम वापस लेने की सलाह दी। पटेल ने तत्काल ही उनकी आज्ञा का पालन किया और कोई सवाल नहीं उठाया। ऐसे में नेहरू के लिए रास्ता साफ हो गया। ‘लोकतांत्रिक’ नेहरू ने चुनाव पर अपने और गांधी के इस कब्जे पर जरा भी शर्मिंदगी महसूस नहीं की और बेशर्मी के साथ अपना खुद का नामांकन स्वीकार कर लिया।
कृपलानी ने बाद में कहा, “सरदार को मेरा दखल देना पसंद नहीं आया।” (आर.जी./371) आचार्य कृपलानी ने कई वर्षों बाद दुर्गादास से कहा था—
“सभी पी.सी.सी. ने पूर्ण बहुमत के साथ पटेल का नाम भेजा था, जबकि सिर्फ एक या दो ने इसके अलावा राजन बाबू का नाम प्रस्तावित किया था; लेकिन उनमें से किसी ने भी जवाहरलाल का नाम नहीं भेजा था। मुझे पता था कि गांधी जवाहरलाल को एक साल के लिए अध्यक्ष बनाना चाहते थे और मैंने खुद ही एक प्रस्ताव तैयार किया (गांधी के उकसाने पर), जिसमें यह कहा गया था कि ‘दिल्ली के कुछ साथी जवाहरलाल का नाम चाहते हैं’। मैंने उसे कार्य समिति के कुछ सदस्यों के बीच वितरित किया, ताकि उनका समर्थन मिल सके। यह मेरी शरारत थी। मैं दोषी हूँ। पटेल ने मुझे कभी इसके लिए माफ नहीं किया। वे (सरदार पटेल) दृढ़ और निश्चयी व्यक्ति थे। आपने उनका चेहरा देखा! उसमें साल-दर-साल शक्ति और दृढ़ संकल्प का इजाफा होता रहा।” (डी.डी./229)
नेहरू का हठ
यह पता लगने पर कि किसी ने भी नेहरू के नाम की सिफारिश नहीं की है, गांधी ने कथित तौर पर नेहरू से कहा, “किसी भी पी.सी.सी. ने आपके नाम का अनुमोदन नहीं किया है, सिर्फ (कुछ सदस्यों ने) कार्य समिति ने किया है।” (आर.जी./371) हालाँकि नेहरू ने इस अर्थपूर्ण टिप्पणी का जवाब पूर्ण चुप्पी के साथ दिया।” (आर.जी./371) गांधी के अपने पिता-तुल्य होने और उनके बेटे, चेले और अनुयायी होने के बड़े आडंबर के बावजूद नेहरू चुपचाप अवज्ञाकारी बने रहे और गांधी को इस बात का संकेत दे दिया कि वे किसी अन्य की छाया में काम करने को तैयार नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मोतीलाल और उनके बेटे द्वारा देश के लिए किया गया संपूर्ण ‘बलिदान’ सिर्फ इसलिए किया गया था, ताकि अंततः नेहरू वंश के लिए सत्ता को हथियाया जा सके! दावा तो यह भी किया जाता है कि नेहरू ने ब्लैकमेल किया—उन्होंने इस मुद्दे पर कांग्रेस को विभाजित करने की धमकी दी।
किसी ने गांधी से पूछा कि उन्होंने नेहरू का पक्ष क्यों लिया? कहा जाता है कि गांधी का कारण यह था— वे चाहते थे कि नेहरू और पटेल दोनों मिलकर देश का नेतृत्व करें। लेकिन एक तरफ जहाँ नेहरू सरदार पटेल के नेतृत्व में काम करने को तैयार नहीं थे, वे यह जानते थे कि वे राष्ट्र-हित में सरदार पटेल को नेहरू के अधीन काम करने को राजी कर सकते हैं, क्योंकि सरदार उनकी बात को टालेंगे नहीं। (आई.टी.वी.) गांधी ने जो कहा, उसका मतलब यह है— सरदार पटेल भले ही वरिष्ठ और अधिक अनुभवी थे और उन्हें बहुमत भी प्राप्त था, वे इतने राष्ट्रभक्त थे कि गांधी द्वारा राजी किए जाने पर राष्ट्रहित में नेहरू के नेतृत्व में काम करने को भी तैयार थे; वहीं दूसरी तरफ नेहरू कनिष्ठ, कम अनुभवी थे और उन्हें एक भी पी.सी.सी. का समर्थन प्राप्त नहीं था, सिर्फ पी.एम. बनना चाहते थे और वे इतने राष्ट्रभक्त नहीं थे कि पटेल के नेतृत्व में काम करें, यहाँ तक कि गांधी द्वारा मनाए जाने पर भी, राष्ट्रहित में भी नहीं!
दुर्गादास ने निम्नलिखित का वर्णन किया—
“मैंने गांधी से पछूा ...वे (गांधी) आसानी से इस बात पर सहमत हो गए कि कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में पटेल एक बेहतर वार्त्ताकार और व्यवस्थापक साबित होते; लकिन उन्हें लगता था कि नेहरू को सरकार का नेतत्व करना चाहिए? मैंने उनसे पछूा कि उन्होंने एक नेता के रूप में पटेल के गुणों के साथ इस बात को स्वीकार कैसे कर लिया, तो वे हसे और बोले, ‘जवाहरलाल मेरे शिविर में इकलौता अंग्रेज है। (फिर आप स्वदेशी और स्वराज की बात क्यों करते हैं!) जवाहरलाल दूसरा स्थान नहीं स्वीकार करेंगे। उन्हें विदेशों में सरदार के मुकाबले अधिक जाना जाता है और वे अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत की भूमिका को महत्त्वपूर्ण बना देंगे (फिर उन्हें विदेश मंत्री क्यों नहीं बना देते? हालाँकि नेहरू ने विदेश नीति का मजाक बनाकर रख दिया—कृपया भूल#48-58 तक देखें)। सरदार देश के मामलों को सँभालगें। वे दो ऐसे बैलों की तरह होंगे, जो सरकारी गाड़ी में जुते हुए होंगे। एक को दूसरे की आवश्यकता होगी और दोनों एक साथ मिलकर इस गाड़ी को खींचेंगे।” (डी.डी./30)
नेहरू-गांधी का कब्जे वाला कारनामा : आखिर क्यों पूर्णतः अनुचित है?
गांधी के कामों को उनके ‘महात्मा’ और ‘सत्य और अहिंसा के पुजारी’ होने की पृष्ठभूमि के आलोक में आँका जाना चाहिए। जैसाकि गांधी ने खुद ही जोर दिया था, ‘अहिंसा’ की संकीर्ण व्याख्या सिर्फ हिंसा न करना ही नहीं है, बल्कि इसकी एक व्यापक व्याख्या भी है, जिसमें क्रोध, गैर-कानूनी और अन्यायपूर्ण काम भी हिंसा की व्यापक परिभाषा के तहत आते हैं। गांधी और नेहरू ने मिलकर जो दाँव खेला, वह न सिर्फ गैर-कानूनी, अनैतिक और न्याय-विरुद्ध तथा व्यक्तिगत अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित था, बल्कि राष्ट्र-हित के खिलाफ भी था। आइए, जानते हैं कि यह ऐसा क्यों था—
1. गैर-कानूनी : अध्यक्ष को चुनने के लिए सिर्फ पी.सी.सी. ही अधिकृत थी। कांग्रेस के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं था, जो उस नियम को पलटने की अनुमति प्रदान करता हो। गांधी उसे कैसे खारिज कर सकते हैं, जिसकी सिफारिश 15 पी.सी.सी. ने की हो? किस कानूनी आधार पर? गांधी का काम गैर-कानूनी था।
2. निरर्थक : गांधी ने सन् 1934 में ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इसलिए इस्तीफा दे दिया था, ताकि वे खुद को ‘रचनात्मक कार्यों’ के लिए समर्पित कर सकें (क्या राजनीतिक काम और स्वतंत्रता के लिए लड़ना ‘विनाशकारी’ था?)। उन्होंने इसके बाद दोबारा कभी भी कांग्रेस की सदस्यता नहीं ग्रहण की। ऐसे में, गांधी जैसा कोई गैर- कांग्रेसी सदस्य यह कैसे तय कर सकता है कि कांग्रेस का अध्यक्ष किसे बनना चाहिए या फिर पी.सी.सी. की बैठकों में भी कैसे भाग ले सकता है? एक और अवैधता।
3. अतर्कसंगत : क्या गांधी ने लिखित या फिर मौखिक रूप से पी.सी.सी. की सिफारिशों को खारिज करने की अपनी वजहों को दर्ज किया? नहीं।
4. अनुचित : क्या गांधी ने लिखित या फिर मौखिक रूप से दर्ज किया कि पटेल अध्यक्ष और इसलिए पहले प्रधानमंत्री के रूप में उपयुक्त नहीं हैं और क्यों नेहरू एक बेहतर विकल्प थे? नहीं।
5. गलत : क्या सी.डब्ल्यू.सी. में इस बात को लेकर एक उचित और घिसी-पिटी बहस हुई थी कि आखिर पटेल इस पद के लिए क्यों अनुकूल नहीं हैं और इसलिए पी.सी.सी. की सिफारिशों को क्यों नजरअंदाज किया जाना चाहिए? और क्यों इसके बजाय नेहरू को चुना जाना चाहिए? नहीं।
6. मनमाना : अगर सी.डब्ल्यू.सी. पी.सी.सी. की सिफारिशों से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं था तो उसने मामले को वापस पी.सी.सी. को क्यों नहीं भेजा और उन्हें विस्तृत कारणों के साथ अपनी सिफारिशों को दोबारा प्रस्तुत करने के लिए नहीं कहा? फैसले को टाला जा सकता था।
7. हास्यास्पद : इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण प्रकृति की जिम्मेदारी को किसी भी व्यक्ति की सापेक्ष उपयुक्तता को सी.डब्ल्यू.सी. के सभी सदस्यों के बीच निष्पक्ष एवं लोकतांत्रिक चर्चा के जरिए और निश्चित रूप से, आखिरकार मतदान के जरिए भलीभाँति जाँचे बिना कैसे किसी को सौंपा जा सकता है?
8. राष्ट्रीय हित के खिलाफ : राष्ट्रीय हितों की माँग थी कि व्यक्ति का चुनाव व्यक्तिगत पक्षपात और फरमानों से न करते हुए उपयुक्तता और आपसी सहमति के आधार पर किया जाना चाहिए और उसके कारणों को रिकॉर्ड में लाया जाना चाहिए।
9. तानाशाही : आखिर कैसे गांधी जैसा एक व्यक्ति इस बात का हुक्म दे सकता है कि किसे अध्यक्ष और आखिरकार पहला प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए और किसे नहीं? और अगर कांग्रेस को इस बात से कोई परेशानी नहीं थी तो फिर चुनावों का नाटक और मतदान के लिए पी.सी.सी. क्यों?
10. अलोकतांत्रिक : हमारे पास गांधीवादी कांग्रेस में ऐसे कैसे स्वतंत्रता ‘सेनानी’ मौजूद थे कि वे सी.डब्ल्यू.सी. में भी अपनी आजादी का दावा तक नहीं कर सकते थे या फिर गांधी की गलुामी के खिलाफ साहस का प्रदर्शन कर सकते थे और अपनी राय को सबके सामने रखते? क्या गांधी एक व्यक्ति के रूप में ठीक थे और क्या 15 पी.सी.सी. गलत थे?
11. अनैतिक : कानूनी और दूसरे पहलुओं को अगर छोड़ भी दें तो क्या गांधी ने जो किया, वह उनके लिए नैतिक और सदाचारपूर्ण और सत्य था? अगर उन्हें वास्तव में ऐसा लगता था कि वे ठीक हैं और बाकी सब पूरी तरह से गलत हैं तो उनसे कम-से-कम यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि उन्हें अपने कारणों और तर्क को खुलकर सबके सामने रखना चाहिए। या फिर वे इस सबसे परे थे? आप जो चाहें, वह करें— आपसे कोई सवाल नहीं पूछा जाएगा।
12. सत्यनिष्ठा का अभाव : आखिर ऐसा कैसे संभव है कि एक ऐसा व्यक्ति, जिसे अध्यक्ष और इसके चलते ही पहले भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नामांकित किया गया हो, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और नैतिकता से इतना दूर कैसे हो सकता है कि वह खुलकर पी.सी.सी. की सिफारिशों को कूड़ेदान में फेंके जाने के गैर-कानूनी काम में सहयोगी बन जाए और खुद को ही नामांकित करने की अनुमति दे दे, हालाँकि किसी ने भी उसके पक्ष में मतदान न किया हो?
13. बेशर्म : क्या इस बात ने नेहरू को जरा भी शर्मिंदा नहीं किया कि वे अनैतिक तरीकों का प्रयोग करके एक पद को असंवैधानिक तरीके से हड़प रहे हैं? क्या एक भावी प्रधानमंत्री के लिए ऐसा करना उचित था?
14. धब्बा और गलती; विनाशकारी : कुल मिलाकर, यह सी.डब्ल्यू.सी. के कामकाज तथा सी.डब्ल्यू.सी. के सदस्यों और विशेषकर गांधी व नेहरू के स्तर पर धब्बा ही था कि उन्होंने इतनी बेशर्मी के साथ इतनी बड़ी गलती की, जो अंततः देश को काफी महँगी पड़ी। नेहरू-गांधी के काम के नतीजे ने यह साबित कर दिया कि यह देश के प्रति उनके सबसे विनाशकारी कामों में से एक था।
इस अनुचित कदम पर दिग्गजों की राय
“अगर गांधी के पास जवाहरलाल को चाहने के अपने कारण थे तो पार्टी के पास (सरदार) पटेल को चाहने के अपने, जिसे उसने देखा भी, जैसाकि कृपलानी ने आगे जाकर कहा, ‘एक शानदार प्रबंधक, व्यवस्थापक और नेता’ के रूप में जिसके पाँव जमीन पर टिके हुए थे। इसके अलावा, पार्टी सरदार के ‘भारत छोड़ो’ के सफल प्रयास को लेकर भी सचेत थी, जिसकी बराबरी जवाहरलाल नहीं करते थे।” —राजमोहन गांधी (आर.जी./370)
“मैंने एक कागज आगे बढ़ाया, जिसमें जवाहरलाल का नाम प्रस्तावित किया गया था। यह बात तय थी कि अगर जवाहरलाल का नाम प्रस्तावित नहीं किया गया होता तो सरदार को पार्टी का अध्यक्ष चुन लिया गया होता। सरदार को मेरा हस्तक्षेप पसंद नहीं था। मैं उसके बाद से ही यह बात सोचता आया हूँ कि क्या एक महासचिव के रूप में मुझे इस मामले में गांधी की इच्छाओं का आदर करते हुए जवाहरलाल का नाम प्रस्तावित करने में सहायक होना चाहिए था? लेकिन भविष्य का पूर्वानुमान कौन लगा सकता है? ऐसे तुच्छ-से दिखाई देने वाले इत्तेफाकों पर ही मनुष्य और यहाँ तक कि देशों का भाग्य भी निर्भर करता है।” —आचार्य कृपलानी (कृप/248-9)
“जब हम महाकौशल पी.सी.सी. के सदस्यों ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू के बजाय उन्हें (पटेल) को वरीयता दी तो हमारा इरादा नेहरू को भविष्य में प्रधानमंत्री के पद से वंचित करने का जरा भी नहीं था। उम्र में छोटा व्यक्ति तब तक तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद तक पहुँच चुका था और इसलिए हम लोगों ने यह सोचा कि यह ठीक और उचित रहेगा कि पटेल, जो उम्र में बड़े हैं, को कम-से-कम दूसरा मौका तो मिलना ही चाहिए (अध्यक्ष पद और इसलिए पहले प्रधानमंत्री)।” —डी.पी. मिश्रा (आर.जी./372) (डी.पी.एम./185-6)
“गांधी ने एक बार फिर सम्मोहक नेहरू के लिए अपने विश्वासपात्र लेफ्टिनेंट पटेल की बलि दे दी है।” —डॉ. राजेंद्र प्रसाद (आर.जी./371)
...सभी तथ्यों पर विचार करते हुए मुझे ऐसा लगा कि नेहरू को नया अध्यक्ष (1946 में कांग्रेस का और इसलिए पी.एम.) बनाया जाना चाहिए। तदनुसार मैंने 26 अप्रैल, 1946 को अध्यक्ष पद के लिए उनके नाम का प्रस्ताव करते हुए एक बयान जारी कर दिया... (उसके बाद) मैं जो अच्छे-से-अच्छा कर सकता था, वह मैंने किया, लेकिन उसके बाद से चीजें जिस प्रकार से घटित हुई हैं, उन्होंने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि यह शायद मेरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। मेरी दूसरी गलती यह थी कि मैंने जब स्वयं खड़े नहीं होने का निश्चय किया तो सरदार पटेल का समर्थन भी नहीं किया। कई मुद्दों पर हमारी राय बिल्कुल जुदा थी; लेकिन मुझे इस बात का पूरा भरोसा है कि अगर उन्होंने मेरे बाद कांग्रेस के अध्यक्ष का पद सँभाला होता तो उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना को सफलतापूर्वक लागू किया जाना जरूर सुनिश्चित किया होता। उन्होंने कभी भी ऐसी गलती नहीं की होती, जैसी जवाहरलाल ने की, जिसने श्रीमान जिन्ना की योजना को नाकाम करने का मौका प्रदान किया। मैं जब भी यह सोचता हूँ कि अगर मैंने ये गलतियाँ नहीं की होतीं तो अंतिम दस वर्षों का इतिहास शायद बिल्कुल ही अलग होता और मैं खुद को इसके लिए कभी माफ नहीं कर सकता।” —मौलाना आजाद (आजाद/162)
“(हुमायूँ) कबीर (मौलाना आजाद की आत्मकथा के अनुवादक और संपादक) का मानना है कि नेहरू के कामकाज को देखने के बाद आजाद ने यह महसूस किया था कि पटेल को भारत का पहला प्रधानमंत्री और नेहरू को भारत का राष्ट्रपति होना चाहिए था। पटेल के एक कट्टर प्रतिद्वंद्वी की तरफ से ऐसी बात का सामने आना वास्तव में एक बड़ा खुलासा है। एक साल पहले राजगोपालाचारी ने भी बिल्कुल यही बात कही थी।” —‘बियॉण्ड द लाइंस’ में कुलदीप नैयर (के.एन./एल-1752)
“कांग्रेस के हलकों में आम भावना यही थी कि यह सम्मान सरदार वल्लभभाई पटेल को मिलना चाहिए।”(आर.जी.5/322) (पहली बार तब, जब सन् 1929 में गांधी ने कहीं अधिक योग्य सरदार पटेल को पीछे धकेलते हुए नेहरू को अध्यक्ष बनाया था।) एक और मौके पर नेताजी ने कहा, “मुझे गांधीजी का नेहरूओं का तुष्टीकरण पसंद नहीं है। हम बंगाल में वास्तविक क्रांतिकारी ताकत का प्रतिनिधित्व करते हैं। जवाहर केवल बोलते हैं, हम करके दिखाते हैं।” (डी.डी./129) —नेताजी सुभाषचंद्र बोस
“जब भारत की स्वतंत्रता हमारे नजदीक आ रही थी और गांधीजी हमारे सभी मामलों के मूक नायक थे तो हम सभी इस नतीजे पर पहुँचे कि नेहरू, जो विदेश नीति के मामले से सभी कांग्रेस नेताओं में सबसे अधिक जानकार थे (हालाँकि नेहरू के राज वाले वर्षों ने यह साबित कर दिया कि नेहरू ने हमारी विदेश नीति और बाह्य सुरक्षा का कबाड़ा करके रख दिया), को भारत का प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए; हालाँकि उन्हें यह बात अच्छे से मालूम थी कि वल्लभभाई उन सब में से सर्वश्रेष्ठ प्रशासक साबित होंगे। निश्चित रूप से यह अधिक बेहतर होता, अगर नेहरू को विदेश मंत्री नियुक्त किया जाता और पटेल को प्रधानमंत्री। मैं भी यह मानने की गलती कर बैठा कि दोनों में से जवाहरलाल अधिक प्रबुद्ध व्यक्ति होंगे। पटेल को लेकर एक सोच यह बन गई थी कि वे मुसलमानों के प्रति कठोर रहेंगे। यह एक गलत धारणा थी, लकिन यह प्रचलित पूर्वाग्रह था।” —राजाजी, ‘स्वराज्य’, 27 नवंबर, 1971 (आर.जी.3/443)
गांधी ने वर्धा में आयोजित ए.आई.सी.सी. की बैठक में 15 जनवरी, 1942 को जवाहरलाल नेहरू को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया— “...किसी का ऐसा कहना है कि पं. जवाहरलाल और मैं विरक्त हो गए हैं। यह पूरी तरह से निराधार है। जवाहरलाल जबसे मेरे संपर्क में आए हैं, वे तब से मेरा विरोध कर रहे हैं। आप पानी को बार-बार डंडे से मारकर अलग नहीं कर सकते। यह उतना ही कठिन है, जितना हमें अलग करना। मैं हमेशा से यह कहता आया हूँ कि न तो राजाजी और न ही सरदार, बल्कि जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे। वे हमेशा वही कहते हैं, जो उनके दिमाग में होता है; लेकिन वे हमेशा वही करते हैं, जो मैं चाहता हूँ। मेरे जाने के बाद वे वही करेंगे, जो मैं अभी कर रहा हूँ। तब वे मेरी भाषा भी बोलेंगे। आखिरकार, वे इसी जमीन पर पैदा हुए हैं। वे हर दिन कुछ नया सीखते हैं। वे मुझसे इसलिए झगड़ते हैं, क्योंकि मैं वहाँ पर हूँ। मेरे जाने के बाद वे किससे झगड़ेंगे? और कौन उस झगड़े को भुगतेगा? आखिरकार, उन्हें मेरी भाषा बोलनी ही पड़ेगी। अगर ऐसा नहीं भी होता है तो मैं कम-से-कम ऐसा मानते हुए मर तो सकूँगा।” —महात्मा गांधी (सी.डब्ल्यू.एम.जी./खंड-81/432-33)
(कथित रूप से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले संगठन के लिए काफी अजीब। क्या कांग्रेस गांधी की जागीर थी, जो वे अपना उत्तराधिकारी नामित कर सकते थे?)
राजाजी ने एक बार अपने दिल की बात बोलते हुए सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार किया कि उन्होंने सरदार पटेल के साथ बहुत गलत किया था। “अब मैं खुद को बिल्कुल वैसी ही स्थिति में पाता हूँ— आज मेरे भीतर आत्म-भर्त्सना की भावना प्रबल है। उनके जीते-जी मैं सिर्फ एक आलोचक ही नहीं, बल्कि महान् सरदार का एक विरोधी भी था।” —जयप्रकाश नारायण (जे.पी.), 1972 (बी.के./243)
“मेरा अपना मानना है कि अगर उस समय नेहरू के स्थान पर सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो भारत कहीं आगे होता और अधिक तेजी के साथ बढ़ता।” —मीनू मसानी ‘अगेंस्ट द टाइड’ (एम.आई.एम./195)
“सरदार, जैसाकि उन्हें कांग्रेस का बाहुबली कहा जाता था, समस्याओं से दूर भागने के बजाय टिकने और जो भी समस्याएँ सामने हों, उनका हल करने के लिए दृढ़ निश्चयी थे। उन्होंने नेहरू को हमेशा एक कमजोर कड़ी के रूप में देखा और अकसर यह सोचते थे कि आखिर गांधी उन्हें इतना अधिक क्यों आँकते थे?” —स्टेनली वोलपर्ट (वॉल्प.2/377-8)
राजाजी ने 21 जून, 1948 को भारत के गवर्नर जनरल के रूप में माउंटबेटन से पदभार सँभाला। जब नेहरू ने गवर्नर जनरल के रूप में राजाजी का नाम सुझाया था, तो राजाजी ने असल में नेहरू को लिखा था कि उन्हें (नेहरू को) खुद गवर्नर जनरल का पद सँभाल लेना चाहिए और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। हालाँकि नेहरू ने 21 मई, 1948 को राजाजी को लिखे अपने पत्र में उनके इस सुझाव को विनम्रता के साथ ठुकरा दिया था— “कृपया मुझे 12 मई, 1948 के अपने टेलीग्राम संख्या 26-एस का उत्तर देने में देरी होने के लिए माफ करें, जिसमें आपने सुझाव दिया है कि मैं (नेहरू) जी.जी. (गवर्नर जनरल) हो सकता हूँ। आपका कोई भी सुझाव विचारणीय होता है; लेकिन मेरा मानना है कि मौजूदा दौर में विभिन्न दृष्टिकोणों के चलते यह पूरी तरह से अव्यावहारिक है।” (जे.एन.एस.डब्ल्यू./खंड-6/356)
सरदार पटेल
गांधी ने सन् 1946 में जो कुछ भी किया, वह सरदार के लिए जरा भी आश्चर्य के रूप में नहीं आना चाहिए था। गांधी का पूर्वाग्रह सन् 1929 से भी स्पष्ट था। (भूल-1)
उन्हें गांधी के अनुचित पक्षपात और पूर्वाग्रह में फँसना ही नहीं चाहिए था और अपनी अलग रणनीति तैयार करनी चाहिए थी। पटेल को गांधी के अलोकतांत्रिक हठ के आगे झुकना नहीं चाहिए था। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं के चलते नहीं, बल्कि देश की खातिर। सरदार नेहरू की कमजोरियों के साथ प्रधानमंत्री के रूप में उनकी अनुपयुक्तता से भी भलीभाँति परिचित थे। वे जानते थे कि नेहरू बड़ी गलतियाँ करने में सक्षम हैं और इसके नमूने वे कई बार वकालत के दौरान दे चुके थे। वे जानते थे कि नेहरू के हाथों में शक्ति और पी.एम. का पद सौंपना देश को बड़े खतरे में झोंकने जैसा है। हाँ, वे विनम्रता के साथ झुक गए। यह बिल्कुल भी सरदार-जैसा नहीं था। उन्हें उस समय लौह पुरुष वाला व्यक्तित्व दिखाना चाहिए था।
एक सठियाए हुए बूढ़े, अलोकतांत्रिक गांधी को मनाना ज्यादा जरूरी था या फिर देश को बचाना और उसे आगे लेकर जाना अधिक महत्त्वपूर्ण था? सरदार को गांधी जैसे एक व्यक्ति का आज्ञाकारी चेला बनने के बजाय देश के प्रति अपने ऐतिहासिक दायित्व को पूरा करने के लिए पर्याप्त महत्त्वाकांक्षी और राष्ट्रवादी होना चाहिए था। निश्चित रूप से, यह सरदार के स्तर पर की गई एक ऐसी भूल थी, जिसकी देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हें जोखिम उठाकर देश के हित को देखते हुए लड़ना चाहिए था। सरदार को गांधी के मुकाबले देश के प्रति अधिक वफादार होना चाहिए था।
राजमोहन गांधी ने ‘पटेल : ए लाइफ’ में लिखा—
“सी.आर. (राजाजी) ने उनके (सरदार पटेल के) रवैए को देखते हुए टिप्पणी की, ‘गांधीजी के कई ऐसे अंधभक्त हैं, जो अपनी आँखों से कुछ नहीं देखेंगे, बल्कि सिर्फ उनकी ही नजर से देखेंगे। लेकिन सरदार एक अंधभक्त के रूप में अपने आप में विलक्षण हैं। उनकी आँखें स्पष्ट और चमकदार हैं। वे सब कुछ देख सकते हैं, लेकिन वे जानबूझकर अपनी आँखों को झपकने की अनुमति प्रदान करते हैं और सिर्फ गांधीजी की नजर से ही देखने का प्रयास करते हैं?’ ” (आर.जी.2/एल-4222)
नेहरू का उम्र में कम होना भी निश्चित रूप से मायने नहीं रखता था। आप देश की बागडोर युवा, लेकिन बड़ी गलतियाँ करने वालों के हाथों नहीं सौंप सकते। सरदार को पी.एम. के रूप में जिम्मेदारी को अपने कंधों पर लेना चाहिए था और बाद में, जब वे अस्वस्थ हुए, तब उन्हें बागडोर राजाजी या फिर आंबेडकर जैसे सक्षम लोगों को सौंप देनी चाहिए थी।