भूल-11
स्वतंत्रता पूर्व वंशवाद को बढ़ावा
जवाहरलाल नेहरू की वंशवादी प्रवृत्तियाँ, जो उन्हें अपने पिता मोतीलाल से विरासत में मिली थीं, उनके प्रधानमंत्री बनने से काफी समय पहले, 1930 के दशक में ही, दिखाई देने लगी थीं।
वर्ष 1937 के चुनावों के बाद जब यू.पी. में मंत्रालय तैयार किया जा रहा था तो गोविंद बल्लभ पंत (जो मुख्यमंत्री बने) और रफी अहमद किदवई ने नेहरू से श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित (नेहरू की बहन) को मंत्रालय में शामिल करने का प्रस्ताव रखा, जिसे नेहरू ने बड़ी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसलिए नहीं कि वे विजयलक्ष्मी को इस पद के लिए सक्षम मानते थे, बल्कि इसलिए, क्योंकि उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि ऐसा करने के चलते उन्हें नेहरू का वरदहस्त मिला रहेगा और उन्हें आशा थी कि वे खुद को नेहरू के अनावश्यक हस्तक्षेप और प्रकोप से बचाने में कामयाब रहेंगे! (डी.डी./184)
विजयलक्ष्मी पंडित से जुड़ा उस समय का एक वाकया है, जब नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के मुखिया थे, जैसाकि स्टैनली वॉलपर्ट ने अपनी पुस्तक ‘नेहरू : ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में लिखा है—
“अंतरिम सरकार में शामिल लियाकत अली खाँ और नेहरू उस समय लगभग झगड़े की स्थिति में पहुँच गए थे, जब नेहरू ने माॅस्को में भारत के प्रथम राजदूत के रूप में अपनी बहन नान (विजयलक्ष्मी पंडित) का नाम प्रस्तावित किया। लियाकत अली खाँ ऐसे निरंकुश वंशवाद से बहुत अधिक नाराज हुए; लेकिन उनके विरोध से किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। नेहरू ने अपनी आवाज ऊँची रखी और इस मामले में डिकी (माउंटबेटन) द्वारा लियाकत का पक्ष लिये जाने पर तुरंत इस्तीफा देने की धमकी दी।” (वॉल्पर्ट/398)
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स्वतंत्रता पूर्व वंशवाद को बढ़ावा
जवाहरलाल नेहरू की वंशवादी प्रवृत्तियाँ, जो उन्हें अपने पिता मोतीलाल से विरासत में मिली थीं, उनके प्रधानमंत्री बनने से काफी समय पहले, 1930 के दशक में ही, दिखाई देने लगी थीं।
वर्ष 1937 के चुनावों के बाद जब यू.पी. में मंत्रालय तैयार किया जा रहा था तो गोविंद बल्लभ पंत (जो मुख्यमंत्री बने) और रफी अहमद किदवई ने नेहरू से श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित (नेहरू की बहन) को मंत्रालय में शामिल करने का प्रस्ताव रखा, जिसे नेहरू ने बड़ी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया। आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? इसलिए नहीं कि वे विजयलक्ष्मी को इस पद के लिए सक्षम मानते थे, बल्कि इसलिए, क्योंकि उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि ऐसा करने के चलते उन्हें नेहरू का वरदहस्त मिला रहेगा और उन्हें आशा थी कि वे खुद को नेहरू के अनावश्यक हस्तक्षेप और प्रकोप से बचाने में कामयाब रहेंगे! (डी.डी./184)
विजयलक्ष्मी पंडित से जुड़ा उस समय का एक वाकया है, जब नेहरू 1946 में अंतरिम सरकार के मुखिया थे, जैसाकि स्टैनली वॉलपर्ट ने अपनी पुस्तक ‘नेहरू : ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ में लिखा है—
“अंतरिम सरकार में शामिल लियाकत अली खाँ और नेहरू उस समय लगभग झगड़े की स्थिति में पहुँच गए थे, जब नेहरू ने माॅस्को में भारत के प्रथम राजदूत के रूप में अपनी बहन नान (विजयलक्ष्मी पंडित) का नाम प्रस्तावित किया। लियाकत अली खाँ ऐसे निरंकुश वंशवाद से बहुत अधिक नाराज हुए; लेकिन उनके विरोध से किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। नेहरू ने अपनी आवाज ऊँची रखी और इस मामले में डिकी (माउंटबेटन) द्वारा लियाकत का पक्ष लिये जाने पर तुरंत इस्तीफा देने की धमकी दी।” (वॉल्पर्ट/398)