Nehru Files - 10 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-10

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नेहरू फाइल्स - भूल-10

भूल-10 
पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देना 

भारत और पाकिस्तान के बीच नवंबर 1947 में इस बात पर सहमति बनी थी कि अविभाजित भारत की संपत्ति के हिस्से के रूप में पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपयों का भुगतान किया जाएगा। हालाँकि सरदार पटेल के जोर देने पर भारत ने इस समझौते के दो घंटे के भीतर ही पाकिस्तान को सूचित किया कि इस समझौते का वास्तविक कार्यान्वयन कश्मीर पर एक समझौते पर टिका होगा। सरदार पटेल ने कहा— 
“हमने संपत्ति के विभाजन में पाकिस्तान के साथ बेहद उदारतापूर्ण व्यवहार किया। लेकिन हम अपने ही ऊपर चलाई जानेवाली गोली को बनाने के लिए एक पाई भी खर्च किए जाने को बरदाश्त नहीं कर सकते। परिसंपत्तियों का निपटान एक सहमति डिक्री की तरह है। एक बार सभी शेष बिंदुओं को संतोषजनक तरीके से सुलझा लिये जाने के बाद ही डिक्री को निष्पादित किया जाएगा।” (आर.जी./461) 

पाकिस्तान भारत पर लगातार 55 करोड़ रुपयों (मौजूदा समय में करीब 50 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक) के लिए दबाव बना रहा था। जनवरी 1948 में आयोजित मंत्रिमंडल की बैठक में सरदार पटेल ने कहा कि अगर पैसा दिया जाता है तो यह निश्चित है कि पाकिस्तान उसे कश्मीर में इस्तेमाल करने के लिए खुद को हथियारबंद करने में करेगा। इसलिए इस भुगतान को अभी रोक लेना चाहिए। डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी, एन.वी. गाडगिल और डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने पटेल का समर्थन किया। नेहरू ने भी अपनी पूर्ण स्वीकृति प्रदान की। परिणामस्वरूप मंत्रिमंडल में भुगतान को रोक लेने का फैसला किया। 12 जनवरी, 1948 को आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में सरदार पटेल ने बताया कि “55 करोड़ रुपए के मुद्दे को अन्य संबंधित मुद्दों से अलग नहीं किया जा सकता।” (आर.जी./462) 

गांधी ने इसके अगले ही दिन (13 जनवरी, 1948 को) पटेल से कहा कि पाकिस्तान को दिए जानेवाले 55 करोड़ रुपयों को रोकना, जैसाकि माउंटबेटन ने उन्हें सलाह दी है—“एक नीच कृत्य, अराजनीतिज्ञोचित और नासमझी भरा फैसला होगा।” (आर.जी./462) और उनका (गांधी) यह मानना है कि यह अनैतिक भी होगा। पटेल यह सुनते ही भड़क उठे और उन्होंने माउंटबेटन से पछूा, “आप एक संवैधानिक गवर्नर जनरल के रूप में मेरी पीठ पीछे ऐसा कैसे कर सकते हैं? क्या आप तथ्यों से परिचित हैं?...” (आर.जी./462) 

जाहिर तौर पर, गांधी इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि माउंटबेटन और ब्रिटिश पाकिस्तान का पक्ष लेने पर पूरी तरह से आमादा थे—यहाँ तक कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान की आक्रामकता के बावजूद। आखिर एक शीर्ष नेता की आँखों पर इतनी बड़ी सच्‍चाई को लेकर पट्टी कैसे बँध सकती है? दुर्भाग्य से, नेहरू ने पटेल का समर्थन करने और उस पर टिके रहने, जिस पर उन्होंने खुद अपनी सहमति प्रदान की थी और मंत्रिमंडल में पारित करवाया था, अपनी प्रतिबद्धता से मुकर गए और गांधी से कहा, “हाँ, इसे पारित किया गया था (मंत्रिमंडल में), लेकिन हमारे पास इसका कोई कारण नहीं है। यह कानूनी टाल-मटोल है।” (आर.जी./463)

गांधी और नेहरू ने देश-हित के प्रति दूरदर्शी बने रहने के बजाय वह माना, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रतिनिधि माउंटबेटन, जिसका अपना स्वार्थ निहित था, ने उनसे कहा और मंत्रिमंडल के फैसले को पलट दिया गया, जिससे पाकिस्तान को पैसा मिल सके तथा वह जम्मू व कश्मीर में भारत की परेशानी को और अधिक बढ़ा सके! अंतिम नतीजे पर प्रभावी रूप से नजर डालने पर ऐसा प्रतीत होता है कि गांधी के लिए अपने ‘ब्रांड महात्मा’ और उससे संबद्ध ‘नैतिकता’ को बनाए रखना ज्यादा जरूरी था। सवाल तो यह उठता है कि आखिर क्यों गांधी और माउंटबेटन ने पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर हमला करने के अनैतिक कृत्य पर विचार तक नहीं किया, जबकि वह भारत में विलय कर चुका था? अगर पाकिस्तान कश्मीर में अपने गैर-कानूनी कदम को वापस लेने के लिए राजी हो जाता तो यह रकम उसे वैसे भी मिलनी तय ही थी। इसके अलावा, गांधी पाकिस्तान और भारत में मौजूद मुसलमानों की नजरों में अच्छा दिखना चाहते थे। तुष्टीकरण और खुद की छवि के लिए राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता! और नेहरू के लिए तो माउंटबेटन और गांधी के सामने नतमस्तक हो जाना सबसे बड़ी प्राथमिकता था, बनिस्बत इसके कि वे अपने मंत्रिमंडल के उस फैसले के पक्ष में खड़े रहते, जिसका वे खुद एक हिस्सा थे। सरदार पटेल जैसे लोग इस तरह के परिदृश्य से बाहर थे। गांधी ने इस मुद्दे को अपने पक्ष में करने के लिए उपवास किया (यह उन्हें उपवास के लिए प्रेरित करनेवाले कई मुद्दों में से एक था)। पटेल ने समर्पण कर दिया, गांधी जीते और भारत हार गया। राजमोहन गांधी ने लिखा— 
“55 करोड़ रुपयों को लेकर माउंटबेटन के पीठ पीछे चुगली करने और जवाहरलाल के विश्वासघात तथा गांधी के पक्ष से आहत पटेल ने भी यह महसूस किया कि गांधी के उपवास के समय का चयन ‘निराशाजनक रूप से गलत’ था।” (आर.जी./464) 

वे सभी नेता, जिनमें माउंटबेटन और नेहरू भी शामिल हैं, जिन्होंने गांधी को उस अनुचित स्थिति (अनशन पर बैठने) के लिए प्रोत्साहित किया या प्रेरित किया, अप्रत्यक्ष रूप से उनकी असामयिक मृत्यु का दोषी था। पटेल ने जनरल रॉय बुचर से भी बिल्कुल ऐसा ही कुछ कहा था—
“देहरादून में हमारी एक बैठक के दौरान सरदार (पटेल) ने मुझे बताया था कि जिन्होंने महात्मा को यह सुझाव देने के लिए राजी किया था कि भारत के पास रखे धन (55 करोड़ रुपए) को पाकिस्तान के हवाले कर दिया जाना चाहिए, उस त्रासदी के लिए जिम्मेदार थे और एक बार उस धन को पाकिस्तान को सौंप देने के बाद महात्मा एक जाने-पहचाने क्रांतिकारी हिंदू संगठन द्वारा हत्या किए जानेवाले नेताओं की सूची में शीर्ष पर पहुँच गए थे। मुझे विशेष रूप से सरदार की यह बात याद है—‘आप अच्छी तरह से इस बात को जानते हैं कि गांधी के लिए किसी इच्छा को व्यक्त करना लगभग एक आदेश देने जैसा ही था।’ ऐसा गांधी के आग्रह पर ही किया गया था कि उनकी (गांधी की) सुरक्षा वापस ले ली गई थी।” (बी.के.2/21-22)