Ishq aur Ashq - 18 in Hindi Love Stories by Aradhana books and stories PDF | इश्क और अश्क - 18

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इश्क और अश्क - 18

प्रणाली (जोर से):
"जो भी है... बाहर आओ।
मैं जानती हूं मैं यहां अकेली नहीं हूं!"

(चारों तरफ से नकाबपोश निकलते हैं – 6 लोग)

लड़ाई शुरू होती है!
प्रणाली बहादुरी से लड़ती है... पर संख्या भारी पड़ती है।


---
पेड़ की डाल पर एक रहस्यमय युवक ऊपर एक शाख पर बैठा लड़ाई देख रहा है – मजबूत, लंबा, गेरुआ वस्त्र, चेहरा तेज़…

युवक (मुस्कुराकर):
"मानना पड़ेगा... तुम कमाल की योद्धा हो...
पर समझदारी भी कोई चीज होती है।
हर लड़ाई ताकत से नहीं... कभी-कभी पीछे हटना भी हुनर होता है।"

प्रणाली (बिना देखे):
"तो मौका क्यों गंवा रहे हो?
आओ... हरा दो मुझे भी!"
युवक बात को आगे बढ़ाता है: मदद ले लो अकेली नहीं कर पाओगी...


(फिर भी लड़ रही है… तभी उसका खंजर गिरता है... दुश्मन घेर लेते हैं… एक चाकू उसकी ओर बढ़ रहा है)
डर से प्रणाली की आंखे बंद हो जाती

(तभी चाकू रुकता है… एक हाथ सामने आ जाता है – वो युवक ज़मीन पर कूद पड़ा है और अपना फौलादी हाथ आगे कर दिया है — चाकू उसके हाथ में धंस चुका है)

प्रणाली (हैरान):
"तुम...?"

युवक (धीरे से):
"चोट तुम्हारी वजह से लगी है।"

प्रणाली (गुस्से में):
"मैंने मांगी थी तुम्हारी मदद...?
और अगर तुम मुझे बातें न कराते तो... ज़रूरत भी न पड़ती!"

युवक (चिढ़ते हुए):
"हां हां... तुम तो बहुत वीरांगना हो!"

(प्रणाली टोकरी उठाती है, मुड़ती है…)

युवक (छलकी हंसी में):
"चूहा..."
प्रणाली डर गई और उसके हाथ से वो टोकरी जाकर ऊपर पेड़ पर अटक गई। वो फिसली और उस व्यक्ति की बाहों में जा गिरी। दोनो के ऊपर गुलाबी, पीले, और सफेद फूलों की बारिश होने लगी। मानो खुद कुदरत उनकी पहली मुलाकात को शगुन बना रही हो। एक-एक करके पंखुड़ियां उनपर गिरती जा रही थीं, पर दोनों की नज़रें सिर्फ़ एक-दूसरे में उलझी थीं। जैसे समय थम गया हो।

वो व्यक्ति — अपनी मजबूत बाहों में उसे थामे — धीरे से मुस्कुराया और बोला:
"तुम तो सच में आसमान से गिरी लग रही हो... फूलों के साथ आई हो या खुद फूल हो?"

प्रणाली उसकी बात पर थोड़ा सकपकाई और दूर हट गई।

"अच्छा… तो तुम फूल वाली हो?" – उसने शरारत से कहा।

प्रणाली पहले गुस्से में कुछ कहने वाली थी, "तुम्हारा दिमाग..." लेकिन फिर उसे याद आया — किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि वो राजकुमारी है।
तो वो एक प्यारी सी मुस्कान लाकर बोली:
"हां... बिल्कुल सही पहचाना तुमने। मैं फूल बेचने वाली हूं।"

उसकी आवाज़ और बोलने का तरीका कुछ अलग था — जैसे कोई राजसी लहजा हो जिसे वो छुपाने की कोशिश कर रही हो।

"और तुम कौन हो?" – उसने पूछा।

"मैं वर्धान हूं… एक किसान का बेटा।" — वो बोला, सीधा, सादा।

"बीजापुर के ही हो?"

"क्यों, ऐसे पूछ रही हो जैसे बीजापुर के हर शख्स को जानती हो?" — उसकी आंखों में शंका झलक उठी।

प्रणाली थोड़ा घबरा गई।
"अच्छा अब मैं चलती हूं..." – वो बोलकर मुड़ गई।

"ठीक है, पर अपना दुपट्टा तो देती जाओ..." — वर्धान ने मुस्कुराते हुए कहा।

प्रणाली पलटी — हैरानी और झुंझलाहट से:
"क्या...?"

"अरे, बड़ी मतलबी लड़की हो... जान बचाई तुम्हारी, और एक फटा दुपट्टा भी नहीं बांध सकती मेरे ज़ख्म पर?"

प्रणाली चिढ़ गई:
"मैंने तुम्हें बुलाया थोड़ी था!"

"ठीक है, जाओ फिर!" – वो नाटकीय अंदाज़ में बोला।

जाते-जाते प्रणाली ने अपने दुपट्टे का एक टुकड़ा उन्हीं फूलों पर फेंक दिया।
"कपड़े से काम नहीं चलेगा, हल्दी का लेप लगा लेना!" – वो दूर से चिल्लाई।

वर्धान मुस्कुरा दिया।
"अजीब लड़की है... पर कुछ तो बात है इसमें..." – उसने मन ही मन सोचा।

लेकिन एक सवाल उसे खटक गया — एक फूल बेचने वाली के पीछे इतने लोग क्यों थे?

वो उसके पीछे चलने लगा... और देखता है कि वो महल के पिछले दरवाजे से अंदर जा रही है।

"समझ गया... खेल कुछ और है।"


---

[महल का दृश्य]

प्रणाली जैसे ही कमरे में पहुंचती है, उसके माता-पिता पहले से वहां होते हैं। वो चौंक जाती है। कपड़े गंदे हैं, दुपट्टा अधूरा... खून भी लगा है।

राजा अग्रेण (गंभीर स्वर में):
"हमें सब पता चल गया है... अब सफाई मत दो।"

प्रणाली (डरी हुई आवाज़ में):
"पिता जी... जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ नहीं है। मैं सब बताती हूं..."

राजा (गुस्से में):
"रानी मालविका, आप इसे समझाइए... हम इसे हर खतरे से बचा रहे हैं, और ये है कि खुद को खतरे में डाल रही है!"

रानी मालविका (प्रेम से, समझाते हुए):
"बेटा... आपके ओहदे का ख्याल रखो, आप राजकुमारी हैं..."
(फिर वो प्रणाली के कपड़ों पर खून देखती हैं)
"महाराज... खून!"

दोनों घबरा जाते हैं।

"कोई राजवैद्य को बुलाओ!" – राजा घबरा जाते हैं।

प्रणाली याद करती है — वो खून वर्धान का था।
"मां, पिताजी, ये मेरा खून नहीं है..."

"तो किसका है?"

थोड़ा मुस्कुराते हुए:
"वो... जंगल में एक छछुंदर घायल मिला था, बस..."

(मन में सोचती है: अगर सच्चाई बता दी, तो वो वर्धान को खोज लेंगे।)


---

[राजदरबार में अविराज का प्रवेश]

दरबान:
"महाराज, राजकुमार अविराज आए हैं।"

अविराज:
"महाराज, मुझे युद्ध के लिए जाना है। पिता जी की तबियत ठीक नहीं, इसलिए मैं जा रहा हूं।"

अग्रेण:
"तो विवाह टालना चाह रहे हो? स्वंवर की शर्त के अनुसार एक माह में विवाह होना चाहिए!"

अविराज:
"मैं राज्य का प्रतिनिधि हूं। एक ज़िम्मेदारी है, इसे निभाना मेरा धर्म है।"

अग्रेण:
"तो ठीक है, हम प्रणाली का विवाह किसी और से कर देंगे!"




प्रणाली चुपके से दरबार में पहुंची और बातें सुनने लगी। दिल कांप रहा था।

अविराज:
"महाराज, रिवाजों के अनुसार अब प्रणाली मेरी होने वाली पत्नी है। आप अगर कुछ और सोच रहे हैं तो… तो सीकर पुर अपनी कुलवधु को और भी तरीको से अपने राज्य में ले जाना आता है.....
महाराज: तो आप चुनौती दे रहे है.....?
अविराज: नहीं महाराज विनती कर रहा हूँ। में सीकर पुर का भावी राजा हूँ, ओर प्रणाली अब बीजापुर की राजकुमारी नहीं ,अपितु मेरी रानी है। में जल्दी लौट आऊंगा

(कदमों की आहट)
"प्रणाली... सामने आइए। मुझे पता है आप यहीं हैं।"
अविराज ने आवाज लगाई।।।।

प्रणाली बाहर आई।
अविराज ने अपनी गर्दन से एक शुभ माला निकाली और उसके गले में डाल दी।

"अब ये हमारी अमानत हैं, महाराज। सीकरपुर की कुलवधू।"

उसने प्रणाली के आंसू पोंछे और धीरे से कहा:
"तुम्हारी खुशी के लिए जा रहा हूं... लेकिन वादा करो, अपना ख्याल रखोगी।"

प्रणाली (भीगी आंखों से मुस्कुराते हुए):
"और तुम भी... मुझे मेरा सबसे अच्छा दोस्त और जीवनसाथी सही सलामत चाहिए।"

अविराज चला गया — पर पीछे छोड़ गया एक वादा, एक रिश्ता, और एक दिल जो अब केवल प्रणाली के नाम की धड़कनें जानता था।


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