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प्रकृति बिना होश संभाले, पसीने से लथपथ, सड़क पर पागलों की तरह दौड़ने लगी। उसके माथे से पसीना ऐसे बह रहा था जैसे कोई पानी की धार बह रही हो। सांसें तेज़, कदम बेकाबू, आँखों में डर और दिमाग़ सुन्न।
दूसरी तरफ, रिध्दान जूस का गिलास लिए धीरे-धीरे लौट रहा था कि तभी अचानक दादी उससे टकरा गईं। जूस छलक गया।
दादी का चेहरा बुरी तरह घबराया हुआ था।
रिध्दान (घबराई आवाज़ में): "दादी… क्या हुआ? सब ठीक तो है?"
दादी ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कांपती आवाज़ में पूछा: "ये… ये वही है ना?"
रिध्दान एकदम हड़बड़ाया। उसका चेहरा जैसे सफ़ेद पड़ गया हो।
"क-क्या? क्या मतलब...?" (वो कुछ छुपाने की कोशिश करता है।)
वो ऊपर की ओर बढ़ने लगा तभी दादी ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
दादी (आँखों में सच्चाई और दर्द): "ये वही है ना, जिसके पीछे तू सालों से पागल होकर फिर रहा है? जिसे तू हर मोड़ पर ढूंढता रहा... अपनी ज़िंदगी की सांसों की तरह?"
रिध्दान नज़रे चुराने लगा, फिर हाथ छुड़ाकर ऊपर भागा।
दादी (आवाज़ ऊँची करते हुए): "वो यहाँ नहीं है!"
रिध्दान (एकदम शॉक में पलटा): "क…क्या मतलब?"
दादी (धीरे, अंदाज़े से): "शायद… शायद उसने तेरे कमरे की दीवार पर लगी वो पेंटिंग देख ली थी… और… और भाग गई…"
रिध्दान का चेहरा एक पल में जैसे ज़मीन पर गिर पड़ा। वह हड़बड़ाते हुए सीढ़ियों से ऊपर भागा, उसका दिल धड़क रहा था… डर, ग़लती और पछतावे से।
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उधर, प्रकृति अब थक चुकी थी। तेज़ भागने के बाद अब उसकी चाल धीमी पड़ चुकी थी। कदम लड़खड़ाते से, चेहरा बदहवास। लेकिन उसका मन अब भी डरा हुआ था।
तभी कहीं पास से कांच टूटने की आवाज़ आई।
उसने देखा, एक कोने में तीन-चार लड़के बैठे थे। उनकी नज़रों में लापरवाही और इरादों में गंदगी थी।
प्रकृति ने घबराकर पीछे मुड़ने का सोचा ही था कि तभी वे लड़के उसके सामने आकर खड़े हो गए।
पहला लड़का (बुरी नीयत से, बालों में हाथ फेरते हुए): "अरे मैडम जी… कहाँ जा रही हो… हमें भी ले चलो न..."
दूसरा (पहले को धक्का मारकर): "ये तो पागल है… आपको मदद चाहिए क्या, मैडम? हम हैं ना… बस बदले में थोड़ी सी... हेल्प आप भी कर देना..."
प्रकृति ने ज़ोर डालकर बहादुर बनने की कोशिश की: "मुझे कोई मदद नहीं चाहिए… मेरा घर पास ही है…"
तीसरा लड़का (घिनौनी नज़र से): "ऐसे नहीं मानेगी ये... पकड़ इसे और ले चलो अपने अड्डे पर…"
इतना कहते ही एक लड़के ने अपना हाथ उसके कंधे की ओर बढ़ाया…
प्रकृति ने डर के मारे आँखें ज़ोर से बंद कर लीं और उसकी चीख निकल गई—
"नहीiiiiii!"
…लेकिन कुछ सेकंड बीतने के बाद भी कंधे पर कोई स्पर्श नहीं हुआ।
उसने धीरे-से अपनी आँखें खोलीं…
और देखा कि वो लड़के का हाथ किसी और हाथ ने बीच में ही पकड़ लिया था… और उस हाथ की पकड़ में आग थी… ग़ुस्सा था…
वो हाथ था— रिध्दान रघुवंशी का।
उसकी आँखों में खून खौल रहा था। जबड़े भींचे हुए, सांसें भारी… वो सीधा उस लड़के की आँखों में देखते हुए गुर्राया:
"तेरी इतनी हिम्मत? मेरी प्रकृति को छूने की सोच भी कैसे ली? आज तुम में से कोई भी जिंदा अपने घर नहीं जाएगा..."
ये कहते ही उसने उस लड़के का हाथ मरोड़ा और उसे पीछे ज़मीन पर फेंक दिया।
दूसरे को उसने एक ज़ोरदार लात मारी—वो दूर जा गिरा।
प्रकृति हक्की-बक्की खड़ी थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। वो कुछ भी समझ नहीं पा रही थी—डर, राहत, प्यार… सब एक साथ उमड़ पड़ा था।
रिध्दान, जैसे कोई तूफ़ान हो, हर एक को मार-मार कर मिट्टी में मिला रहा था।
एक लड़का मौका देखकर प्रकृति के पास पहुंचने लगा…
प्रकृति घबराकर चीख़ी: "रिध्दाaan!"
बस यही सुनना था…
रिध्दान की आँखों में पागलपन उतर आया। उसने उस लड़के को उसके बालों से पकड़कर घसीटा और पास के खंभे से उसका सिर दे मारा।
फिर उसके चेहरे पर ताबड़तोड़ मुक्के बरसाता गया…
"तूने उसे छूने की हिम्मत कैसे की… कैसे की… कैसे की…"
वो तब तक मारता रहा जब तक उसकी सांसें उखड़ने ना लगीं…
प्रकृति दौड़ती हुई उसके पास पहुंची, आँसुओं से भीगी आवाज़ में बोली:
"Mr. Raghuvanshi… रुक जाइए… प्लीज़…"
उसकी ये एक आवाज़ सुनते ही, जैसे रिध्दान की रगों में बहता ग़ुस्सा एक पल में जम गया।
उसने एक नज़र प्रकृति को देखा… वो ज़मीन पर बैठी थी, आँखों में आँसू और होठों पर डर।
दोनों की नज़रें मिलीं।
वो नज़रे… सालों की तड़प, दर्द और चाहत की कहानी कह गईं…
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