Beete samay ki REKHA - 15 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 15

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बीते समय की रेखा - 15

15.

लगातार काम में लगी रेखा के लिए हॉस्टल मेस से खाना भी रात को आठ बजे उसके चैंबर में ही आ गया।
अपने लैपटॉप को बंद करके रेखा खाने की सुध लेने की सोच ही रही थी कि तभी एक फ़ोन आ गया।
इस बार फ़ोन विश्वविद्यालय भोजनालय के प्रबंधक का था। रूटीन का समय होता तो यह फ़ोन वाइस चांसलर की पीए को ही उठाना था। परन्तु मानवीय आधार पर यहां यह रेखा की ही एक सहृदयता सिद्ध हुई कि पीए सीट पर नहीं थी।
शाम इतनी देर हो चुकी थी कि यूनिवर्सिटी से काफ़ी दूर रहने वाली अपनी पीए को रेखा ने उसके मांगने पर घर जाने की अनुमति दे दी थी।
लिहाज़ा फ़ोन उसे ख़ुद उठाना पड़ा।
फ़ोन प्रबंधक की ओर से शिकायत का था कि कुछ वरिष्ठ लोग अपनी आयु का हवाला देकर अपने को भोजन कक्ष में आने में असमर्थ बता रहे हैं और भोजन उनके आवासीय स्थल पर ही पहुंचाने की मांग कर रहे हैं। जबकि यह सुविधा नियमानुसार अनुमत नहीं है। इसके लिए मेस के कर्मचारियों को भी अनुमति नहीं है।
पाठको, रेखा ने फ़ोन पर क्या कहा, यह बताने से पहले हमारे समाज के मौजूदा दौर की  कुछ नव- प्रवृत्तियों पर बात करना ज़रूरी लग रहा है।
महिला संस्थानों की परिपाटी यह कहती है कि पुरुषों में आज भी महिलाओं को कुछ न समझने की प्रवृत्ति जारी है। वो अपने घर की महिलाओं को तो अपने अधीन समझते ही हैं उनके मन में अपने से उच्च पद पर बैठी महिला के लिए सम्मान - स्वीकार नहीं, बल्कि ईर्ष्या और अवमानना का भाव है। वो अवसर मिलते ही अपनी इस तुच्छ प्रवृत्ति को ज़ाहिर करने से चूकते भी नहीं हैं। हमारे यहां नियम तोड़ना भी एक गौरव पूर्ण कृत्य समझा जाता है। ऐसा करने वाले अपने को वीआईपी समझने का आनंद लेते हैं। 
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय समाज में पद सोपान की दृष्टि से प्रायः उम्र की वरिष्ठता को मान दिया जाता रहा है किंतु जब इस वरिष्ठता को योग्यता की तुलना में रख कर जूनियर व्यक्ति को उच्च पद दिया जाता है तो कोई नियम यह नहीं बताता कि इसका व्यावहारिक अनुपालन कैसे हो? आज़ादी के बाद भारत में कुछ नेताओं ने पुरानी परंपराओं को तोड़ कर ऐसी स्थिति पैदा की है। आपके देखते- देखते जब आपसे कनिष्ठ व्यक्ति आपके अधिकारी के रूप में बैठाया जाता है तो व्यवहार शास्त्र का गणित रामभरोसे हो जाता है। आप नहीं जानते कि आपके मातहत लोग आपको वांछित सम्मान देंगे या नहीं। आपको प्रयोगवादी रुख अपना कर अपना काम निकालना होता है। एक सामंतशाही युग में आप जाने- अनजाने पहुंच जाते हैं। समाज रसातल में जाने लगता है।
कहीं कहीं संविधान प्रदत्त आरक्षण ने इस स्थिति को और भी जटिल बनाया है और शायद चारों ओर दिखाई देती अराजकता का एक कारण यह भी हो।
ख़ैर, एक विकासशील देश समस्याओं से बच नहीं सकता। यह दिक्कत तो विकसित देशों में भी कभी आई होगी।
तो आइए, अब जानते हैं कि रेखा ने मेस प्रबंधक को क्या उत्तर दिया!
रेखा ने उनसे कहा कि आपके पास लिखित नियम पहुंचा दिए गए हैं, उनका पालन करने और उन्हें न मानने वालों के नामों की रिपोर्टिंग करना आपका काम है।
कुछ खिन्न व अनमनी सी होकर रेखा ने खाना खाने के लिए अभी हाथ धोए ही थे कि फ़ोन फ़िर बज उठा।
उधर से बताया गया कि वयोवृद्ध शिक्षक नाराज़ होकर चले गए हैं और जाते समय कार्यालय में कह गए हैं कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है और वह कुछ दिन नहीं आ सकेंगे।
रेखा की कहानी का इस बात से कोई लेना - देना नहीं है कि सरकारें साठ साल की उम्र में लोगों को सेवानिवृत्त करके अच्छा करती हैं अथवा नहीं बहरहाल फ़ोन पर कही गई आख़िरी बात ने रेखा को चौंका ज़रूर दिया।
क्योंकि यह शिक्षक महोदय वही थे जिन्हें अगली सुबह होने वाले उदघाटन समारोह में सबसे पहले स्वागत भाषण देना था और विश्वविद्यालय संबंधी सभी महत्वपूर्ण जानकारी भी सुनने वालों को उपलब्ध करवानी थी।
खिन्न होकर रेखा ने एक बार फ़िर से अपना लैपटॉप खोला और सरसरी तौर पर उस सूची को देखा जिसमें से अब कोई वैकल्पिक नाम तलाश करने की संभावना बन सकती थी। ज़ाहिर है कि भोजन करने की बात एक बार फिर प्राथमिकता क्रम में पीछे छूट गई।
समारोह का मुख्य स्वागत भाषण जिसे भी देना था उन्होंने पर्याप्त तैयारी से उसे कई दिन की मेहनत से तैयार किया था लेकिन क्रोध और अवसाद में घर जाते हुए वो उसके बारे में न किसी से बात कर सके और न ही किसी को बता सके कि कोई और उसे तैयार करेगा तो उसे सामग्री या कंटेंट कैसे और कहां से उपलब्ध होगा।
उधर ऑनलाइन वॉलीबॉल का खेल शुरू हो गया। अर्थात जिसे भी यह दायित्व देने की बात कही गई उसी ने मांग रख दी कि उसे इस संदर्भ में तैयार मैटेरियल दे दिया जाए तभी उसके लिए ऐसा करना संभव हो सकेगा।
तात्पर्य यह कि एक बार फ़िर रेखा ने ही यह ज़िम्मेदारी संभाली कि इस तथ्यात्मक आलेख को किसी तरह तैयार किया जाए।
तनाव और अनिश्चितता के वातावरण में सृष्टि का प्रथम नियम भोजन एक बार फिर पीछे छूट गया और ढकी रखी हुई भरी थाली को मेस कर्मचारी ने देर रात वाइस चांसलर चैंबर से वापस उठाया।
रेखा अपने आवास में जा चुकी थी।
10 सितंबर 2008
विवशता में ये कहानी उसी आधी रात से शुरू करनी पड़ती है जब रात के बारह बजे तारीख तो बदल कर "दस" हो गई लेकिन रेखा नौ तारीख के अपने रूटीन में ही उलझ कर अब तक सोई नहीं थी। वह रात ढाई बजे तक अपने लैपटॉप पर कार्य करती रही। आप सोचेंगे कि इतना क्या काम था जो ख़त्म होने में ही नहीं आ रहा था।
दरअसल इसके दो कारण थे। एक तो यह कि विश्वविद्यालय भी नया था और रेखा भी यहां नई थी। इस कारण उसे यहां के अधिकारियों या कर्मचारियों की क्षमता व कार्य प्रतिबद्धता के बारे में ठीक से पता भी नहीं था। अतः वह कोई जोखिम लिए बिना सारे कार्य को एक बार स्वयं देख लेना चाहती थी ताकि ऐनवक्त पर कोई चूक न रह जाए। नए संस्थान में जो कुछ आरम्भ में होता वही आगे के लिए परंपरा बन जाना था। समस्त नियमों को इस प्रकाश में जांचा जाना आवश्यक था। जबकि यदि रेखा अपने पुराने संस्थान में होती तो आसानी से दूसरे, परखे हुए लोगों पर भरोसा कर के उन्हें केवल निर्देश दे सकती थी।
दूसरा कारण यह था कि इस परिसर में उससे उम्र में बड़े, पद में छोटे लोगों का आधिक्य था। अतः किसी के भी द्वारा स्वविवेक से कोई कार्य करने पर कुछ अप्रिय स्थिति आ जाने की आशंका थी। इसका एक नमूना वह पिछले दिनों देख ही चुकी थी। अतः वह नींद की परवाह किए बिना अगले दिन से संबंधित सभी तैयारियों को देख लेना चाहती थी। 
वस्तुतः उसकी स्थिति उन युवा आई.ए.एस. अधिकारियों के समान हो रही थी जो एक दिन शिक्षा विभाग में भेजे जाते हैं तथा कुछ समय बाद कहीं जिला कलेक्टर रहने के बाद  पेट्रोलियम विभाग में, और फ़िर वित्त मंत्रालय का काम देखने के लिए तैनात हो जाते हैं।
वहां फ़िर भी सरकारी तंत्र की पूर्व संचालित प्रक्रियाएं तो होती हैं, यहां तो एक सर्वथा नए कार्य के संपादन निष्पादन की कसौटी सामने थी।
खैर। समय ने उसे ज़िम्मेदारी भी तो उसकी क्षमताओं तथा अनुभवों का आकलन करने के बाद ही सौंपी होगी। अतः किसी भी बहाने की कोई गुंजाइश ही कहां थी।
सुबह साढ़े पांच बजे घड़ी ने अलार्म बजाया। घड़ी क्या जाने कि उसके नजदीक लेटी हुई महिला रात को ढाई बजे सोई है और पिछले कई घंटों से न उसके पेट में कोई भोजन गया है और न ही ठीक से पानी। पिछली रात सहकर्मी स्टाफ की नाराज़गी के बाद उसने खाना भी नहीं खाया था और उसकी थाली कक्ष से बैरंग लौटा दी गई थी।
किसका दोष था?
शायद भावना का । या उन संस्कारों का जो अपनी जिम्मेदारियों का अनुपालन करने में खाने - पीने की सुध - बुध खो देने की परवाह भी नहीं करते।
बहरहाल कैंटीनकर्मी ने रोज़ की भांति बेड टी के नाम पर चाय और बिस्कुट की प्लेट सुबह- सवेरे ही मैडम के आवास कक्ष में पहुंचा दी।
संयोग देखिए। रेखा ने कप हाथ में लेकर एक बिस्किट अंगुलियों में उठाया ही था कि फ़ोन बज उठा। कप और बिस्किट यथास्थान वापस रख कर रेखा ने फ़ोन उठाया। फ़ोन उन पंडित जी का था जो कार्यक्रम से पहले सुबह नौ बजे से परिसर में हवन अर्चना करने वाले थे।
वैसे तो पूजा व्यवस्था तथा पंडित जी देखरेख हेतु एक महिला अलग से तैनात ही थीं, किंतु पंडित जी ने फ़ोन उन महिला को न करके सीधे कुलपति को किया। शायद वो उच्च अधिकारी तक अपनी प्रतिबद्धता तथा आत्मीयता पहुंचाना चाहते थे, ताकि इंचार्ज महिला पर यह दबाव बना सकें कि उनकी पहुंच ऊपर तक है। पंडित जी की आयु तथा उनके विद्वतापूर्ण सम्मान का रुतबा कुलपति महोदया उनसे प्रथम भेंट में ही देख चुकी थीं अतः शायद इसीलिए उन्हें एकाएक यह न कह सकीं कि आप पूजा की इंचार्ज प्रोफ़ेसर से बात कर लीजिए। शिष्टता और धैर्य ने उन्हें विवश किया कि पंडित जी की पूरी बात मनोयोग और गंभीरता से सुनी जाए। पंडित जी इतना विनम्र उच्च - पदस्थ  श्रोता पाकर गदगद थे और उन्होंने विस्तार से यह सारी जानकारी देने में ज़रा भी कोताही नहीं बरती कि उन्होंने कहां से हवन सामग्री मंगवाई है, कहां से घी, कहां से फूल और कहां से साज - सज्जा का अन्य सामान। 
लिहाज़ा घड़ी ने पौने आठ बजा दिए। लेकिन इससे उन्हें क्या, वे तो ब्रह्ममुहुर्त में सुबह चार बजे के ही जागे हुए रहे होंगे। 
अब रेखा के पास केवल दो ही विकल्प थे। या तो ठंडी हो चुकी चाय को छोड़ कर कैंटीन से दोबारा गर्म चाय मंगवाई जाए तथा उसका कुछ देर इंतज़ार किया जाए या फिर चाय का झमेला- चक्कर छोड़ कर ऐसे ही वाशरूम की ओर प्रस्थान किया जाए क्योंकि नहाने - धोने में कम से कम घंटा भर तो लगना ही था। समारोह के लिए सुरुचिपूर्ण तरीके से तैयार होने की चुनौती अलग सामने थी।
रेखा जैसे ही तैयार होकर कैंटीन में नाश्ता ले आने का संकेत करने जा रही थी, हाथ में लिया हुआ मोबाइल स्वतः ही बज उठा।
संस्थान के अध्यक्ष महाशय सपत्नीक परिसर में आ चुके थे और कुलपति महोदया को याद कर रहे थे। उन्हें हवन में पत्नी सहित बैठना था और वह कुलपति मैडम को यह सरप्राइज़ देना चाहते थे कि वह समय के कितने पाबंद हैं और समय से कुछ पहले ही आ पहुंचे हैं।
सब कार्य होने थे, केवल नाश्ता ही एकमात्र ऐसी शय थी जिसे टाला जा सकता था...! वही हुआ।
***