Beete samay ki REKHA - 7 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 7

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बीते समय की रेखा - 7

7.
जैसे... किसी भी बात में बहस मत करो, लॉजिक या तर्क - शास्त्र लड़कियों के लिए नहीं है, इसके पीछे मत छिपो, सीधे कार्य को कर के दिखा दो। संशय को पूर्णता से हराओ।
... पुरुषों को सफलता से तमगे भी मिलते हैं और श्रेय भी। हमें केवल आत्मसंतोष। उसी के लिए काम करो।
... हमारा वेतन, ईनाम या पारिश्रमिक लड़कों से कम है। कार्य या लक्ष्य की क्वालिटी ऐसी रखो कि तुम्हें श्रेय न देने की उनकी इच्छा कम होकर ढेर हो जाए।
... हिम्मत रखो, एक दिन ब्यूटी पार्लर मर्दों के भी बनेंगे।
लेकिन समय - समय पर यह सब कहते हुए रेखा ने नकारात्मकता को कभी अपने व्यवहार में नहीं आने दिया। वह जीतने के लिए ही जन्मी थी।
अपने इन्हीं मौलिक विचारों के चलते ही रेखा पहले अपने विभाग की हैड बनी और फ़िर जल्दी ही डीन भी। मुंबई और दिल्ली जैसे स्थानों पर कार्य करने का तजुर्बा उसे उन लोगों से बहुत अलग कर दिखाता था जो अपने करियर में अपनी जगह से हिलना ही नहीं चाहते। 
लोगों का कम से कम काम करना, और ज़्यादा से ज़्यादा पाने की लालसा रखना उसे वर्तमान युग की सबसे बड़ी बीमारी की तरह लगता था।
उसने कई छात्राओं को अपने निर्देशन में शोध कराया और हर बार शोध को डिग्री के लिए नहीं, बल्कि नवीन खोज के लिए समझा। उसके शोध निर्देशन में डॉक्टरेट किए हुए विद्यार्थी छोटी आयु में ही बड़े पदों पर पहुंचे।
जिन परीक्षाओं को उसने कभी अपने घर - परिवार की सुविधा के लिए छोड़ा वह एक दिन उन्हीं की परीक्षक और पेपर सैटर बनी। उसने साथियों के इस तंज को सिरे से खारिज़ कर दिया कि वो उन परीक्षाओं में किसी शंका के चलते नहीं बैठी।
राष्ट्रीय ख्याति के संस्थान में कार्य करते हुए उसे विभिन्न अवसरों पर देश के राष्ट्रपति, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, बड़े वैज्ञानिकों, विशिष्ट जनों के साथ सीधे संवाद करने का मौका कई बार मिला। वह इन अवसरों को कोई औपचारिक नकली शान न समझ गंभीर विमर्श का साधन ही समझती थी और देश की शिक्षा प्रणाली या नीति पर उनसे बराबरी के स्तर पर चर्चा करती थी।
एक बार उसकी किसी छात्रा ने रेखा से कहा - मैम, आपकी इतनी बड़ी सरकारी नौकरी थी जिसमें आपको रिटायर होने के बाद भी ज़िंदगी भर अच्छी पेंशन मिलती फ़िर आपने वह नौकरी क्यों छोड़ी?
रेखा ने जवाब दिया - अगर ज़िंदगी में कोई ऐसा समय आना है कि आदमी कुछ न करे और बैठे - बैठे खाए, तो कम से कम मेरे जीवन में तो वो नहीं आए!
छात्रा बोली - लेकिन वृद्धावस्था में तो यह विवशता होती ही है।
तब रेखा बोली - बुढ़ापा किसने देखा है, मैं खाली बैठ कर कभी दुनिया नहीं देखूंगी।
रेखा ने क्योंकि अपनी आरंभिक शिक्षा हिंदी माध्यम से ली थी वह भाषा के प्रश्न को लेकर भी पर्याप्त संवेदनशील थी। 
बनस्थली विद्यापीठ में उन दिनों पढ़ाई का माध्यम केवल हिंदी ही था। इसी के द्वारा बोर्ड और यूनिवर्सिटी टॉप करने के बावजूद एक वैज्ञानिक के रूप में क्या - क्या कठिनाइयां विद्यार्थियों को आती हैं इससे वह भली - भांति परिचित थी। अतः उसने कंप्यूटर साइंस की प्रोफ़ेसर बनने के बाद अनुवाद और भाषिक चिंतन पर पर्याप्त ध्यान दिया। वह अनुवाद की बुनियादी संभावनाओं को लेकर पुणे के सी- डेक जैसे संस्थान से भी जुड़ी। लगातार बहुत काम किया। वह अन्य विषयों में भी कंप्यूटर साइंस के दखल की पक्षधर थी किंतु उसे प्राथमिक शिक्षा के रूप में मातृभाषा में पढ़ाई करवाने के लक्ष्य को हासिल करना भी ज़रूरी लगता था। वह कहती थी कि यह क्रूरता है कि बच्चा जीवन में कोई भी नई बात सीखने से पहले एक नई भाषा भी सीखे। यदि यह किसी देश के स्तर पर हो रहा है तो वह और भी ग़लत है।
कंप्यूटर साइंस को केवल एक साध्य न मान कर उसने एक साधन ही माना और इसके अनुप्रयोग पर विशेष ध्यान दिया। अन्य विषयों में इसके प्रयोग के लिए चिंतन- अनुचिंतन में भाग लिया।
बनस्थली विद्यापीठ इस दिशा में आरम्भ से ही सचेत रह कर विद्यार्थियों को नए - नए पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने में प्रवृत्त था। वहां पर गणित, सांख्यिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर साइंस को सम्मिलित रूप से लेकर इसके संस्थापक पंडित हीरालाल शास्त्री के नाम पर "एम एंड एक्ट" नाम से एक स्वायत्त संस्थान खोला गया। रेखा को इसकी पहली डीन बनने का गौरव भी प्राप्त हुआ। इस संस्थान से देश भर से कई छात्राओं ने एम. सी. ए., बी. सी. ए. आदि कोर्स किए।
यहां कई विषयों में स्नातकोत्तर डिग्री की सुविधा थी।
विद्यापीठ के प्रबंधन पाठ्यक्रमों में भी सूचना प्रौद्योगिकी, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आदि का बेहतरीन समावेश हुआ।
डीम्ड यूनिवर्सिटी बन जाने के बाद विद्यापीठ को परीक्षाओं में भी स्वायत्तता प्राप्त हो गई और यहां के पाठ्यक्रमों ने देशभर में विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित किया।
एक दिलचस्प तथ्य यह भी था कि सरकार बनस्थली विद्यापीठ को विश्व विद्यालय का दर्ज़ा तो बहुत पहले ही दे देना चाहती थी किंतु शास्त्री जी सार्वभौमिक शिक्षा की इस सरकारी शर्त को कतई मानने के लिए तैयार नहीं थे कि यहां अन्य विश्व विद्यालयों की भांति लड़के - लड़कियों दोनों की सहशिक्षा की व्यवस्था हो। शास्त्रीजी का स्पष्ट मानना था कि सहशिक्षा केंद्रों में पुरुष वादी मानसिकता के डोमिनेट करने के चलते महिलाओं के साथ पूर्णतः न्याय नहीं हो पाता है और फलस्वरूप उनका व्यक्तित्व अपेक्षाकृत दब जाता है। 
उनका यह दृष्टिकोण विद्यापीठ को महिला शिक्षा का अनूठा केंद्र ही बनाए रखने का था।
विद्यापीठ में आरम्भ से ही केवल कर्मचारियों के लड़कों को प्राथमिक शिक्षा तक की अनुमति प्राप्त थी। उनके लिए कोई हॉस्टल या अलग आवासीय सुविधा भी नहीं थी। इस कारण दो- चार प्रतिशत की तादाद में लड़के भी लड़कियों के साथ ही पढ़ते थे।
यह सुविधा इसलिए दी गई थी क्योंकि इसके अभाव में बहुत छोटे लड़कों के अभिभावक बनस्थली में कार्य नहीं कर सकते थे। जबकि लड़कियों के लिए कई छात्रावास निरंतर बढ़ते ही जा रहे थे।
कुछ वर्षों के बाद बनस्थली गांव में लड़कों के लिए एक सरकारी स्कूल खुला जो मिडिल, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के रूप में क्रमोन्नत होता गया। किंतु यह विद्यालय बनस्थली विद्यापीठ परिसर से अलग बाहरी क्षेत्र में अवस्थित था। बाद में बनस्थली विद्यापीठ परिसर में भी लड़कों के लिए एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल खुल गया।
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