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विधिवत स्कूल आरम्भ हो जाने के बाद इसकी स्थापना करने वाली रतन जी को लगा कि यह प्रदेश में अपनी तरह का पहला शिक्षा केंद्र है जो केवल लड़कियों की शिक्षा के लिए शुरू किया गया है, अतः इसके लिए पाठ्यक्रम आदि भी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से स्वयं ही तैयार किया जाए।
सबसे पहले तो जीवन कुटीर के पास ही लड़कियों को रखने के लिए एक घास-फूस की छत वाला मिट्टी का अहाता तैयार किया गया। इसके साथ कुछ शिक्षकों के रहने व कार्यालय आदि के लिए भी सीमित संसाधनों से कच्चे कमरे तैयार किए गए।
विद्यालय का दृष्टिकोण यह था कि लड़कियों की पढ़ाई पर न तो लोग ज़्यादा खर्च करने को तैयार होंगे और न ही किसी भी तरह उनकी मदद करने वाले मिलेंगे। इसलिए शिक्षा ऐसी हो जो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाए और उनके घरवालों पर कम से कम बोझ पड़े। लोगों का पारंपरिक सोच यही था कि लड़की को तो शादी के बाद दूसरे घर में चले जाना है तो इस पर हम क्यों खर्चा करें।
ऐसे में विद्यालय में बेहद किफायत और सादगी सहित अक्षर ज्ञान के साथ- साथ घरेलू काम-काज में दक्षता को भी जोड़ा गया। चित्रकला, संगीत, खेलकूद द्वारा उस निर्जन स्थान पर छात्राओं के मनोरंजन व स्वास्थ्य के उपाय तलाश किए गए। स्वस्थ रहने के लिए "प्रिवेंशन इज़ बैटर दैन क्योर" का सिद्धांत अपनाया गया कि इलाज करने से अच्छा है बीमार न पड़ने के लिए सतर्क रहना। ऐसे में सादा भोजन, नियमित दिनचर्या, स्वच्छता आदि के उपाय किए गए।
छात्राओं को अपने सभी कार्य स्वयं करने के लिए प्रेरित किया जाता। सादगी के लिए देश के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर खादी के वस्त्रों को अनिवार्य रूप में अपना लिया गया। शाकाहारी भोजन पर बल दिया गया। और सिलाई कढ़ाई, बुनाई आदि पारंपरिक कामों में भी छात्राओं को दक्ष बनाने की कवायद शुरू हुई ताकि घरवाले यह कह कर अंगुली न उठाएं कि लड़की पढ़ने लगी तो घर के काम- काज भूल गई।
धीरे - धीरे समय के साथ विद्यालय में लड़कियों की संख्या बढ़ने तो लगी किंतु इसके साथ ही वहां के संचालकों को कुछ अनुभव और भी हुए।
पहली समस्या यह आई कि आसपास या दूर से भी कुछ लोग अपनी बच्चियों को पढ़ाना तो चाहते थे लेकिन रोज़ उन्हें इस सुदूर अंचल में पहुंचाने और लेने आने की परेशानी भी कम न थी। इसका हल यह निकाला गया कि विद्यालय को पूर्णतः आवासीय बना दिया गया। कई कमरों के एक कच्चे छात्रावास का निर्माण कर के उसका नाम शांता के नाम पर "शांता बाई शिक्षा कुटीर" रख दिया गया। इसमें बेहद सादगी और स्वच्छता से बिल्कुल घरेलू वातावरण में छात्राओं को रखने की व्यवस्था की गई। इसे बेहद कम खर्च में सीमित संसाधनों से चलाया गया।
बंथली गांव के प्रति अपनापन और कृतज्ञता जताने के उद्देश्य से विद्यालय का नाम बनस्थली विद्यापीठ रख दिया गया। कुछ सेवाभावी कार्यकर्ता, शिक्षक आदि भी आते गए और यह कारवां बढ़ने लगा।
दूसरी समस्या यह थी कि इस निर्जन ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली छात्राएं अपनी पढ़ाई के बाद के समय को कैसे बिताएं? कैसे उनका समय कटे, कैसे मनोरंजन हो।
इन सभी बातों के मद्देनजर विद्यापीठ में पढ़ाई के साथ साथ अन्य कई गतिविधियों का प्रादुर्भाव होता गया। खुले वातावरण में खेलने-कूदने, चित्रकला, संगीत, नृत्य, घूमने, साइकिल चलाने आदि की तो सुविधा थी ही इन गतिविधियों को विद्यालय के शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल करके और अधिक महत्व प्रदान किया गया।
यह स्थान जयपुर शहर से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित था और यहां सरकार की ओर से कोई बस, रेल आदि के आवागमन की सुविधा नहीं थी। ऐसे में बैलगाड़ी, ऊंट, साइकिल के साथ कुछ निजी वाहन ही आवागमन के साधन होते। यहां तक कि आरंभ में यह स्थान सड़क से भी जुड़ा हुआ नहीं था।
लेकिन कहते हैं न कि उड़ान केवल पंखों से नहीं, बल्कि हौसलों से होती है। उसमें कोई कमी नहीं थी। शास्त्री परिवार ने एक शांता को खोकर कई शांताओं को अपनी बेटियों की तरह जुटाना शुरू कर दिया था।
जंगल में मंगल की तरह बसे इस संस्थान में वैसे तो सुरक्षा के कोई औपचारिक माकूल इंतज़ाम नहीं थे लेकिन गांव के लोग ही अपनी बच्चियों की तरह मान कर उन्हें सहयोग देते थे और उन्हीं में से पहरेदार, चौकीदार आदि ओहदों पर नियुक्तियां भी हो जाती थीं।
लेकिन रतन जी इस बात पर विशेष बल देती थीं कि लड़कियों को अपने जीवन में मज़बूत और आत्मनिर्भर होना ही चाहिए। वो देखती थीं कि छुट्टियों में, त्यौहार पर घर जाने वाली लड़कियां आने-जाने में देर लगा देतीं और पूछने पर जवाब मिलता कैसे आते, पिताजी को छुट्टी ही नहीं मिली, भाई को समय ही नहीं मिला, छोड़ने कौन आता? अकेले कैसे आते?
इस बात ने भी विद्यापीठ के संचालकों को खासा चिंतित किया और वहां लड़कियों को सबल बनाने के और भी पुख़्ता प्रयास किए जाते। केवल बातों से ही नहीं बल्कि व्यावहारिक रूप से लाठी चलाना, तलवार चलाना जैसे प्रशिक्षण भी शुरू कर दिए गए। नज़दीक के एक तालाब में नाव चलाने का प्रशिक्षण तो शुरू हुआ ही, एक स्विमिंग पूल बना कर तैरना भी सिखाया जाने लगा।
इतना ही नहीं बल्कि लड़कियों में साहस का संचार करने के लिए कुछ घोड़े खरीदे गए और विधिवत घुड़सवारी का प्रशिक्षण भी वहां दिया जाने लगा। साईस की नियुक्ति हुई। ट्रेनर रखे गए।
आरम्भ में इन घोड़ों को जयपुर में एक बहुत पुराने पड़े सिनेमाघर के अहाते में रखा गया फ़िर बनस्थली में ही उनके लिए रखरखाव की एक घुड़शाला बना दी गई। लड़कियां अपनी रुचि और चाव से यहां घोड़े चलाना सीखतीं।
स्थानीय ज़रूरत के लिए एक गौशाला भी बनाई गई ताकि छात्राओं को शुद्ध दूध, दही, छाछ आदि मिले।
शास्त्री जी के अपने राजनैतिक और सामाजिक कामों में व्यस्त रहने के कारण इतना लाभ संस्था को भी मिलता कि यहां जो कुछ सोचा जाता उसकी कार्य रूप में परिणीती भी हो ही जाती। उनके कारण देश और राज्य के कई बड़े - बड़े नेताओं का ध्यान भी इस अनूठे शिक्षा केंद्र पर बना रहता। इसे सेवा कार्य मान कर पूंजीपतियों व अन्य समर्थ लोगों से आर्थिक सहयोग भी मिलता रहता।
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