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राजस्थान के टोंक जिले में लड़कियों का एक विश्वविख्यात विश्वविद्यालय है। ये पिछली सदी के तीसरे दशक के बीतते- बीतते एक छोटे से विद्यालय के रूप में शुरू हुआ था।
दरअसल इसके शुरू होने की भी एक मार्मिक कहानी है। देश की आज़ादी से पहले विभिन्न स्तरों पर भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने के कई छोटे - बड़े प्रयास देश भर में चल रहे थे। इसी सिलसिले में राजस्थान के जोबनेर में जन्मे पंडित हीरालाल शास्त्री भी प्रजामण्डल की पताका तले एक अत्यंत सक्रिय नेता के रूप में कार्य कर रहे थे। ये ग्रामीण भारत को संगठित करने की मुहिम में घूम - घूम कर काम तो कर ही रहे थे किंतु एक स्थाई स्थल के तौर पर अपनी मुहिम को संभालने के लिए ये ग्रामीण किसानों के सहयोग के आश्वासन पर बंथली नाम के एक छोटे से गांव में अपने कुछ साथियों और परिवार के साथ रहने आ गए। इस छोटे से गांव में कुछ किसानों ने उन्हें स्वेच्छा से देश भक्ति की भावना के वशीभूत अपनी बेकार पड़ी ज़मीनें उपलब्ध कराने का काम किया। पानी की कमी के चलते यहां खेती - बाड़ी कोई बहुत उम्दा दर्जे की तो थी नहीं, किंतु बड़ी मात्रा में जगह उपलब्ध हो जाने पर शास्त्री जी ने यहां "जीवन कुटीर" नाम की संस्था बना कर अपनी गतिविधियां शुरू कर दीं।
शास्त्री जी जीवन कुटीर में अपने परिवार को छोड़ कर दिन भर अपने सामाजिक सरोकारों में व्यस्त रहते। इसी समय एक छोटे से तालाब के किनारे बसे सुरम्य जीवन कुटीर के आंगन में एक विचित्र घटना घटी। शास्त्री जी की लाड़ली बेटी बारह वर्षीय शांता तालाब के किनारे गीली मिट्टी से चौकोर ईंटों के आकार की आकृतियां बना कर रख रही थी कि परिवार की कोई महिला आकर खड़ी हो गई। उसने देखा कि नन्ही शांता अपने साथ कुछ ग्रामीण सहेलियों को लिए पूरे मनोयोग से अपने काम में व्यस्त है।
- क्या कर रही है बिटिया? पूछने पर शांता बोली- ईंटें बना रही हूं।
- क्यों? महिला ने नन्ही से ठिठोली की।
- ईंटों से एक कमरा बना कर उसमें पढ़ने के लिए एक स्कूल खोलूंगी।
- किसके लिए?
- इन सब लड़कियों के लिए। ये स्कूल नहीं जातीं न, लड़कों का स्कूल होता है।
- इसमें पढ़ाएगा कौन?
- मैं ! मुझे तो पढ़ना आता है न... आपा जी (पिता) सिखाते हैं।
अच्छा - अच्छा... कहती हुई महिला नन्ही का ये दिन-दहाड़े देखा सपना औरों को भी सुनाने के लिए जीवन कुटीर के दालान में दौड़ गई।
बात आई- गई हो गई।
लेकिन कुछ ही दिन गुज़रे कि परिवार पर मानो किसी वज्रपात के अंदेशे ने दस्तक दी। बिटिया ऐसी बीमार हुई कि तेज़ ज्वर में तपने लगी। उसकी गर्दन पर एक फोड़ा भी निकल आया।
उस निपट देहात में तो कोई ऐसा डॉक्टर भी नहीं था जो "कारबंकल" नाम के इस खतरनाक रोग का इलाज भी कर सके। देखते देखते बिटिया ने दम तोड़ दिया और छोड़ गई अपना अधूरा सपना।
देखते - देखते उस वीराने में एक छोटा सा सपना बोकर बालिका शांता इस दुनिया से वापस लौट गई।
शास्त्री जी को अपनी धर्मपत्नी रतन शास्त्री के माध्यम से जब दिवंगत बिटिया की काल्पनिक उड़ान की जानकारी मिली तो भरे मन से ही उन्होंने इस सपने को पालने पोसने की ठान ली।
अपने तमाम सामाजिक और राजनैतिक सरोकारों के बीच उन्होंने रतन जी की देखरेख में ही एक छोटा सा विद्यालय खोल दिया।
ये वो ज़माना था जब लड़कियों को पढ़ाने की बात दूर की कौड़ी समझी जाती थी। लोग लड़कों को ही अपने वंश का उत्तराधिकारी समझते थे और उन्हीं के लिए अपने तमाम संसाधन लगाते थे। यद्यपि यह भी आसान नहीं था क्योंकि देश में विदेशी सरकार थी जिसे स्थानीय प्रजा के शिक्षित- अशिक्षित होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। शासन-प्रशासन के लिए चुनिंदा बच्चे तो विदेश में पढ़ कर या गिने-चुने महंगे पब्लिक स्कूलों में पढ़ कर आ जाते किंतु लॉर्ड मैकाले की शिक्षा नीति की बदौलत बहुसंख्य स्थानीय बालकों को केवल निम्न वर्गीय लिपिकीय स्वरूप के छोटे मोटे कामों के लिए ही तैयार किया जाता। ऐसे में घर की बच्चियों के लिए घरेलू काम-काज सीखना ही शिक्षा के दायरे में आता था। अभिभावक येनकेन प्रकारेण बच्चियों की परवरिश करके उन्हें दूसरे घर को सौंप देने भर की ही जोखिम उठाते थे। कहीं कहीं तो लड़कियों का जन्म लेना तक सुगम नहीं होता था, उन्हें गर्भ में ही ख़त्म करने में भी कोताही नहीं बरती जाती थी। ऐसे में केवल छः लड़कियों को किसी तरह जुटा कर यह विद्यालय खोला गया। दूसरों के अभिप्रेरण के लिए रतन जी ने स्वयं अपनी छोटी बहन को बुला कर स्कूल के पहले बैच की सदस्या बनाया। लोगों को उस विद्यालय पर थोड़ा थोड़ा विश्वास तब हुआ जब उन्होंने देखा कि स्वयं घर की बच्ची भी वहां छात्रा है।
1935 में पंजीकरण की औपचारिकता भी पूरी कर ली गई और ये छोटा सा अनूठा विद्यालय अस्तित्व में आ गया।
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