भाग 1: पहली मुलाकात
शहर की भीड़ में, कभी-कभी कुछ चेहरे ऐसे मिल जाते हैं जो बाकी सबको फीका कर देते हैं। ये मुलाकातें न प्लान होती हैं, न समझ आती हैं—बस दिल में उतर जाती हैं।
आरव—एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर। दिन की शुरुआत कोड से और रात का अंत लैपटॉप की नीली स्क्रीन से होता था। उसका चेहरा शांत था, लेकिन उसकी आँखों में थकान और अधूरेपन की एक परत हमेशा दिखती थी। ऑफिस, क्लाइंट्स, मीटिंग्स—यही उसकी दुनिया थी। वो हँसता था, पर भीतर से अक्सर ख़ाली महसूस करता था। किताबें उसकी एकमात्र साथी थीं, और शायरी—उसके दिल की आवाज़।
उस दिन शहर में हल्की ठंडक थी, जैसे बादलों ने धूप से कुछ पल की मोहलत माँग ली हो। शाम का वक्त था। चाय की खुशबू गली के नुक्कड़ तक फैल रही थी। आरव अपने पसंदीदा बुकस्टोर "किताबकोठी" पहुँचा। ये जगह उसके लिए सुकून का मंदिर थी—किताबों के पुराने पन्नों की खुशबू, और कोने में बजता पुराना ग़ज़ल रेडियो।
वो गुलज़ार की नज़्मों की नई संकलन ढूँढ़ रहा था। जैसे ही उसकी नज़र तीसरी शेल्फ पर गई, तभी उसके हाथ के पास किसी और की नाज़ुक उंगलियाँ भी पहुंचीं।
सफ़ेद सूती सलवार-कुर्ते में एक लड़की खड़ी थी। उसकी दो लटें उसके चेहरे पर गिर रही थीं, और आँखों में कुछ ऐसा था… जो ठहरने पर मजबूर कर दे। मासूम, लेकिन गहरी। नज़ाकत, लेकिन आत्मविश्वास से भरी।
वो हल्के से मुस्कराई, किताब उठाई और बोली,
"शायद आप भी मेरी तरह शायरियों के शौकीन हैं?"
आरव ने पहले किताब देखी, फिर उसकी आँखों में। कुछ पल के लिए जैसे समय थम गया। किसी पुराने रेट्रो फिल्म के सीन की तरह — धीमी हवा, पुरानी ग़ज़ल की तान, और एक मुस्कान जो सीधी दिल में उतर गई।
वो खुद को मुस्कुराने से रोक नहीं पाया।
"हाँ... और शायद अब एक नया शेर भी मिलने वाला है," उसने हौले से जवाब दिया।
लड़की हँसी — एक सच्ची, बेफ़िक्र मुस्कान, जैसी सिर्फ़ किताबों की दुनिया में खोए लोग मुस्कुराते हैं।
"मैं सना हूँ," उसने हाथ आगे बढ़ाया।
आरव ने हाथ मिलाया, "आरव।"
इसके बाद एक लंबी खामोशी थी — वो खामोशी जो अजनबीपन के बाद आती है, लेकिन बोझिल नहीं लगती… उल्टा, जैसे उस खामोशी में कुछ बनने वाला हो।
सना ने किताब की कुछ पंक्तियाँ पलटीं और एक जगह अटक गई। उसने पढ़ा:
“वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
इसकी आदत भी आदमी सी है।”
उसने मुस्कराकर आरव की तरफ देखा, "गुलज़ार की शायरी में कुछ ऐसा है… जो दिल के भीतर छुपे हिस्सों को भी छू लेती है, है ना?"
आरव ने धीरे से सिर हिलाया, "और कुछ रिश्ते भी… जो बस एक किताब के बहाने शुरू हो जाते हैं।"
बाहर सूरज ढल रहा था, लेकिन अंदर—एक नई रौशनी पैदा हो चुकी थी।
भाग 2: धीरे-धीरे सी हो रही थी मोहब्बत
कई रिश्ते अचानक बनते हैं, और कुछ… धीरे-धीरे, जैसे कोई नज़्म—हर मिसरे के बाद थोड़ी और गहराई लेती हुई।
बुकस्टोर की पहली मुलाकात के बाद, सना और आरव की ज़िंदगियों में कुछ बदलने लगा था। वो अब हर हफ्ते उसी बुकस्टोर में मिलते—कभी किताबों पर बहस होती, कभी चाय पर कविताएं सुनाई जातीं।
पहली बार उन्होंने साथ एक कॉफी पी। वही सड़क किनारे की दुकान, जहाँ प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं और अदरक की चाय से उठती भाप।
आरव ने देखा—सना बातें करते हुए बार-बार अपनी कलाइयों पर उँगलियाँ घुमाती थी। जब वो किसी कविता को याद करती, तो आँखें बंद कर लेती थी। और जब कोई बात दिल से कहती… तो हल्के से मुस्कराती थी, जैसे वो बात किसी खास को सुनाई जा रही हो।
सना ने उसे बताया कि वो एक प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती है—बच्चों को कविताएं, कहानियाँ, और जिंदगी से जुड़ी बातें। उसकी किताबों में सिर्फ़ शब्द नहीं, रंग भी थे।
"बच्चे जब 'आ' की मात्रा लगाकर 'प्यार' लिखना सीखते हैं, तो लगता है जैसे दुनिया में फिर से कुछ ठीक हो रहा है," सना ने एक दिन कहा।
आरव हँसा। उसके लिए ये सब नया था—इतना सजीव, इतना भावुक। उसका दिमाग अब तक लॉजिक और फॉर्मूले में उलझा रहता था, लेकिन सना जैसे उसकी सोच के कैनवास पर रंग बिखेर रही थी।
उनकी शामें अब एक पैटर्न बन गई थीं—बुकस्टोर, कॉफी, पार्क की सैर, और कभी-कभी… एक-दूसरे की खामोशियाँ भी।
एक शाम, बारिश हो रही थी। हल्की फुहारें गिर रही थीं, जैसे आसमान खुद एक कविता बुन रहा हो। पार्क में ज़मीन भीगी थी, और पेड़ों की पत्तियाँ चमक रही थीं।
आरव और सना एक पेड़ के नीचे खड़े थे। उसके बाल भीग गए थे, और उसकी पलकों पर पानी की छोटी बूँदें अटकी थीं।
सना ने एक क्षण की खामोशी के बाद पूछा—
"तुम्हें लगता है दो अलग-अलग दुनिया के लोग साथ रह सकते हैं?"
आरव ने कुछ नहीं कहा। बस सना की हथेली पकड़ी। वो हाथ थोड़ा ठंडा था, भीगा हुआ… लेकिन उसकी पकड़ में एक अजीब सी गर्मी थी। उसने धीरे से जवाब दिया—
"अगर तुम्हारी दुनिया में जगह है… तो मैं हर सीमा पार कर सकता हूँ।"
सना ने सिर झुका लिया। उसकी आँखों में एक नम चमक थी, और होंठों पर वो खामोश हँसी… जो कहती है कि शायद मोहब्बत का पहला क़दम उठ चुका है।
बारिश अब तेज़ हो रही थी, लेकिन दोनों वहीं खड़े थे—जैसे वक्त रुक गया हो, और उस बारिश में, दो अधूरी दुनियाओं ने एक साथ भीगना शुरू कर दिया हो।
भाग 3: अधूरी ख्वाहिशें (विस्तारित संस्करण)
लेकिन प्यार का रास्ता सीधा कहाँ होता है।
जिस मोड़ पर सना और आरव का रिश्ता धीरे-धीरे मोहब्बत बनता जा रहा था, उसी मोड़ पर एक तूफान उनकी तरफ बढ़ रहा था — एक ऐसा तूफान, जिसकी आहट सिर्फ़ सना ने सुनी थी।
सना के घर का माहौल पारंपरिक था — जहाँ बेटी की हँसी से ज़्यादा उसकी शादी की तारीख मायने रखती थी। माँ अक्सर कहतीं, "अच्छा रिश्ता आ रहा है, ना मत कहना। और फिर ज़्यादा सोचो मत, लड़कियाँ जितना सोचती हैं, उतना ही दुख झेलती हैं।"
उनकी नज़रों में एक "दुबई वाला डॉक्टर" सना के लिए सपना था। एक स्थिर नौकरी, विदेशी जीवन और परिवार की इज्ज़त। सना ने जब पहली बार मना किया, तो माँ की आँखों में आँसू थे, और पापा की आवाज़ में नाराज़गी।
"हमने तुझे कभी कोई कमी नहीं दी, सना। अब तू हमारी बात मानेगी भी नहीं?"
सना ने आरव से मिलने में थोड़ी दूरी बना ली। उसने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी चुप्पी में कई जवाब थे।
आरव समझ रहा था कि कुछ ठीक नहीं है। वो हर शाम उसी बेंच पर इंतज़ार करता जहाँ वो दोनों बैठा करते थे।
हर बार सना नहीं आई।
हर बार उसका फोन नहीं उठा।
हर बार उसके मैसेज ‘seen’ तक नहीं हुए।
और फिर… एक दिन, आरव को एक लिफाफा मिला—बुकस्टोर के उसी टेबल पर, जहाँ वो पहली बार मिले थे।
लिफाफे में एक चिट्ठी थी। काग़ज़ थोड़ा भीगा हुआ था… शायद बारिश में भीग गया था, या शायद लिखने वाले की आँखों से गीला हुआ था।
"आरव,
तुम्हारे साथ बिताया हर पल मेरी ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा था। तुम्हारी आँखों में जो सुकून था, वो मुझे किसी और जगह नहीं मिला। तुम्हारे शब्दों में जो समझ थी, वो मुझे दुनिया के सबसे कीमती गहनों से भी ज़्यादा प्यारी थी।
लेकिन शायद… मैं तुम्हारी ज़िन्दगी का हिस्सा नहीं बन सकती।
मेरी दुनिया छोटी है आरव, और उसमें बहुत से बंधन हैं। माँ-बाप, समाज, उनकी उम्मीदें… ये सब मिलकर मेरे गले में एक अदृश्य रस्सी डाल देते हैं। और उस रस्सी को काटने की हिम्मत… शायद मुझमें नहीं है।
तुम्हारा नाम अब भी मेरी दुआओं में है…
… पर मेरी हकीकत में नहीं।
– सना"
आरव देर तक उस चिट्ठी को हाथ में पकड़े बैठा रहा।
बुकस्टोर की खामोशी में, गुलज़ार की नज़्में भी उस दिन अधूरी लग रही थीं।
वो जानता था, ये मोहब्बत अभी ख़त्म नहीं हुई — लेकिन ये ज़रूर पता चल गया था कि मोहब्बत को पनपने के लिए सिर्फ़ दिलों का साथ नहीं, दुनिया की इजाज़त भी चाहिए।
भाग 4: एक साल बाद…
कहते हैं वक़्त हर घाव भर देता है।
लेकिन कुछ घाव ऐसे होते हैं जो दिखाई नहीं देते — बस अंदर की गहराइयों में चुपचाप रिसते रहते हैं।
सना के जाने के बाद आरव बहुत बदल गया था। पहले जहाँ उसके जीवन में किताबों और चाय की महक होती थी, वहाँ अब सिर्फ़ सन्नाटा था। वह पहले की तरह मुस्कुराता था — लेकिन वो मुस्कान अब महज़ एक सामाजिक आदत बन चुकी थी।
उसने खुद को काम में डुबो दिया। मीटिंग्स, प्रोजेक्ट्स, डेडलाइन्स… हर वो चीज़ जो उसे एक पल को भी सोचने न दे।
पर इंसान खुद को चाहे जितना भी व्यस्त रखे,
जिसे दिल ने चुना हो… वो किसी कोने में बैठा ही रहता है।
हर हफ्ते, आरव 'किताबकोठी' बुकस्टोर ज़रूर जाता था — वही पुरानी गंध, वही गुलज़ार की नज़्में… पर अब वहाँ कोई सना नहीं थी।
एक शाम, शहर में हल्की ठंडक थी। हवा कुछ पुराने ख़्वाबों की खुशबू लिए बह रही थी।
आरव बुकस्टोर के बाहर एक लकड़ी की बेंच पर बैठा था। हाथ में वही किताब — वही अधूरी पंक्तियाँ जिनके आगे वो कभी सना की आवाज़ सुनता था।
तभी… किसी ने पीछे से उसकी आँखों पर हाथ रख दिए।
साँस थमी।
हाथ… वही नाज़ुक एहसास।
दिल ने एक क्षण को धड़कना बंद कर दिया।
और फिर एक आवाज़…
"गुलज़ार की नज़्में अभी तक पूरी नहीं हुईं?"
आरव जैसे स्थिर हो गया। धीमे से हाथ हटाया… और पलटा।
वो सना थी।
थोड़ी बदली हुई। बाल थोड़े छोटे, चेहरे पर थोड़ा और गहरापन। लेकिन… आँखें वैसी ही। वही मासूम मुस्कान — जैसे वक्त ने उसकी रूह को छुआ ही नहीं हो।
कुछ पल बिना बोले बीते।
आरव की आँखें उसे पढ़ रही थीं — जैसे कोई कविता फिर से खुल गई हो, सालों बाद।
"तुमने तो कहा था तुम मेरी हकीकत नहीं बन सकतीं…"
उसने धीरे से कहा — आवाज़ में हल्की काँप, पर आँखों में आंसू नहीं… बस जिज्ञासा।
सना ने हल्की सी मुस्कान दी, "शायद तब मैं खुद को ही नहीं जानती थी…"
वो पास बैठ गई।
"मैं डरती थी, आरव। घरवालों से, समाज से, अपने ही फैसलों से… लेकिन एक दिन मैंने आईने में खुद को देखा और सवाल किया — क्या वाकई ये मेरी ज़िंदगी है?"
"फिर क्या हुआ?" आरव ने पूछा, जैसे आवाज़ उसकी नहीं, किसी बहुत अंदर की भावनाओं की हो।
"फिर… मैंने फैसला किया कि डर के साथ जीने से अच्छा है, तुम्हारे बिना न जीना। लेकिन जब तुम्हारे बिना कुछ भी पूरा नहीं लगने लगा… तब समझ में आया कि हकीकत वही है, जिसमें तुम हो।"
उसकी आँखें अब नम थीं।
"मैं लौट आई हूँ, आरव। इस बार बिना किसी डर के।"
आरव ने उसकी तरफ देखा। एक लंबा, सुकून भरा पल।
फिर हाथ आगे बढ़ाया — वही पुराना स्पर्श, लेकिन इस बार और मज़बूत।
"तो चलो… अब फिर से गुलज़ार की नज़्में साथ पढ़ते हैं… लेकिन इस बार अधूरी नहीं छोड़ेंगे।"
भाग 5: फिर से साथ
मुलाकातें एक बार फिर शुरू हुई थीं — लेकिन अब वो पहले जैसी नहीं थीं। अब उनमें एक नया रंग था।
कोई हड़बड़ी नहीं थी, न ही किसी परफेक्ट पल की तलाश — अब हर छोटी चीज़ में सुकून था।
सना ने अब अपने मन की आवाज़ को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया था।
उसने घरवालों से साफ कह दिया:
"मुझे किसी आदर्श जीवनसाथी की तलाश नहीं है — मुझे ऐसा इंसान चाहिए जो मेरी असलियत को भी अपनाए, और मेरी आवाज़ को दबाए नहीं।"
शुरुआत में विरोध हुआ — पापा ने बात करना बंद कर दिया, माँ चुप हो गईं। लेकिन धीरे-धीरे, जब उन्होंने देखा कि सना पहले से ज्यादा आत्मविश्वासी और शांत है — तो उन्हें भी एहसास हुआ कि ये वही बेटी है, लेकिन अब पूरी तरह से खुद की।
अब आरव और सना का रिश्ता बदला नहीं था, बल्कि परिपक्व हो चुका था।
उनकी मुलाकातें अब सिर्फ़ किताबों या कॉफी तक सीमित नहीं थीं — अब वो साथ में भविष्य की बातें करते थे।
घर, करियर, जीवन के उद्देश्य — और हाँ, कभी-कभी बहसें भी होतीं। लेकिन अब हर बहस के बाद सुलह करना एक रिवाज़ बन गया था।
एक दिन शाम को, जब दोनों पुराने झील के किनारे बैठे थे, चारों तरफ सन्नाटा था, और सूरज ढलने को था — सना ने सवाल किया।
"आरव, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता कि हम फिर से जुदा हो सकते हैं?"
आरव ने उसकी तरफ देखा — वो सवाल सिर्फ़ सवाल नहीं था, वो बीते समय की कसक थी।
सना की आँखों में हल्का डर, लेकिन उम्मीद भी थी — कि शायद इस बार जवाब अलग होगा।
आरव हल्के से मुस्कराया, उसकी उंगलियाँ थाम लीं और कहा —
"डर तो अब भी लगता है… पर उससे कहीं ज़्यादा यकीन भी है कि इस बार हम खुद को नहीं खोएंगे।"
"क्यों?" सना ने धीरे से पूछा।
"क्योंकि अब हम एक-दूसरे को सिर्फ़ दिल से नहीं, समझ से भी चाहते हैं। और जब प्यार में समझदारी जुड़ जाती है, तो जुदाई सिर्फ़ एक शब्द रह जाती है — हकीकत नहीं।"
सना चुप रही — लेकिन उसकी आँखें चमक रही थीं।
उसने आरव के कंधे पर सिर रखा, और दोनों देर तक उस झील की शांत लहरों को देखते रहे — जैसे मोहब्बत अब शोर नहीं, सुकून बन चुकी थी।
भाग 6: आख़िरी परीक्षा
कभी-कभी ज़िंदगी उस वक्त सबसे कठिन मोड़ लेती है जब सबकुछ ठीक लगने लगता है।
सना और आरव एक बार फिर एक-दूसरे की दुनिया में लौट आए थे। उनका प्यार अब सिर्फ़ किताबों और नज़्मों में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की छोटी-छोटी चीज़ों में साँस लेता था। लेकिन तभी… सना के पापा को हार्ट अटैक आया।
सबकुछ अचानक बदल गया।
अस्पताल, डॉक्टर्स, रिपोर्ट्स, एम्बुलेंस — वो एक हँसता-खिलखिलाता घर अब चुप और तनाव से भरा हुआ था।
रिश्तेदारों की आवाज़ें फिर से गूंजने लगीं —
“देखा? अब समझ आया कि किस पर विश्वास करना चाहिए!”
“अब भी ये अपनी मर्ज़ी पर अड़ी है?”
एक बार फिर शादी की बातें ज़ोर पकड़ने लगीं।
“कम से कम अब तो वो दुबई वाले डॉक्टर को हाँ कर दे… जो खुद फोन करके हाल पूछ रहा है।”
पर इस बार सना टूटने के लिए नहीं बनी थी।
वो बदल चुकी थी।
अस्पताल के लॉन में एक दोपहर, जब रिश्तेदार खामोश थे और डॉक्टर के शब्द सन्नाटा लाए थे,
सना ने पहली बार अपने पापा के सामने खड़े होकर कहा:
“पापा… मैं किसी डॉक्टर से नहीं, एक इंसान से प्यार करती हूँ।
जो मुझे समझता है, जो मेरी चुप्पियों को भी सुन लेता है।
जो हर रिपोर्ट पढ़ने के बाद मुझसे कहता है — ‘सब ठीक हो जाएगा’।
जो रात-रातभर आपके कमरे के बाहर बैठा रहा, बिना कुछ माँगे।
वो कोई अमीर नहीं, न ही विदेश में है।
पर वो मेरे दिल में है — और वहाँ तक पहुंचने का रास्ता बहुत कम लोग जानते हैं।”
पापा ने पहली बार सना की बातों को बिना टोके सुना।
उनके चेहरे पर थकावट थी, और आँखों में कुछ सवाल।
उन्होंने कुछ नहीं कहा — सिर्फ़ नज़रें झुका लीं।
उसी शाम, आरव अस्पताल आया।
हाथ में घर से बना सूप था, जो सना की माँ ने चुपचाप पकाया था — शायद एक मौन स्वीकृति का संकेत।
आरव पापा के पास गया, उनके सिरहाने बैठा।
“सर, मुझे नहीं पता मैं आपके लिए सही हूँ या नहीं… पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि मैं सना को कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
उसने धीरे से सना की उंगलियाँ थाम लीं — जैसे किसी पिता से इज़ाजत नहीं, बल्कि एक वादा माँग रहा हो।
पापा ने कुछ पल आरव की आँखों में देखा…
और पहली बार, बहुत हल्के से सिर हिलाया —
न सहमति, न असहमति — बस एक मानवीय स्वीकृति, जिसमें वर्षों की कठोरता पिघल गई थी।
बाहर शाम हो रही थी।
हवा में एक अजीब सी राहत थी — जैसे आसमान भी कह रहा हो,
“इम्तिहान अब ख़त्म हुआ। अब मोहब्बत को जीने दो।”
भाग 7: नई शुरुआत
प्यार की असली जीत तब होती है जब वो ज़िंदगी का हिस्सा बन जाए — शोर से दूर, भीड़ से अलग… बस दो दिलों के बीच की सच्ची समझ के साथ।
सना और आरव ने शादी कर ली।
ना शहनाइयाँ, ना बैंड-बाजा।
ना लंबी लिस्ट, ना दिखावे के मंडप।
बस एक सादा-सा समारोह — घर के आँगन में, माँ के हाथ की बनी खीर, और कुछ करीबी चेहरे।
गुलाबी साड़ी में सना, और सफ़ेद कुर्ते में आरव — दोनों जैसे किसी पुराने पोस्टकार्ड से निकले किरदार लग रहे थे।
फेरे लिए गए, लेकिन साथ में उन्होंने जो वादा किया वो अनकहा था —
"अब हम मिलकर एक नई दुनिया बनाएँगे।"
उनका सपना: एक स्कूल
शादी के बाद उन्होंने मिलकर एक छोटा-सा स्कूल शुरू किया —
"कलर एंड कोड" — नाम सना ने रखा था।
यह स्कूल केवल पढ़ाने के लिए नहीं, सोचने और महसूस करने के लिए बनाया गया था।
सना बच्चों को कविता सिखाती, उन्हें कल्पना की उड़ान देती।
आरव उन्हें कंप्यूटर, रोबोटिक्स और तकनीक की दुनिया से जोड़ता।
स्कूल की दीवारें सफेद नहीं थीं — उन पर बच्चों की बनाई तस्वीरें, रंग-बिरंगी पंक्तियाँ और टिमटिमाते सपनों के शब्द लिखे थे।
स्कूल के हर कोने में उनका प्यार साँस लेता था।
एक शाम की बात…
एक शाम, स्कूल की एक अलमारी को साफ करते वक्त, सना को अपनी पुरानी डायरी मिली — वही डायरी जिसमें उसने पहली बार आरव के लिए कुछ लिखा था।
उसने उसे धीरे से खोला, मुस्कराई, और आरव को आवाज़ दी।
"आरव, ज़रा सुनोगे?"
आरव पास आया। सना ने डायरी का एक पन्ना खोला और पढ़ना शुरू किया:
"तुम्हारे बिना अधूरी सी लगती है ज़िन्दगी,
अब जब हो साथ, तो हर सांस मुकम्मल सी लगती है।"
कुछ पल खामोशी छा गई।
फिर आरव ने धीरे से सना का हाथ थामा, उसकी आँखों में देखा और मुस्कराकर कहा —
"अब तुम्हारे बिना कुछ भी अधूरा नहीं रहेगा।"
उस दिन स्कूल की खिड़की से अंदर आती धूप कुछ ज़्यादा सुनहरी लग रही थी।
बाहर बच्चे हँस रहे थे, उड़ते पतंगों की तरह।
और अंदर, दो लोग अपने सपनों की नींव पर एक घर — और एक दुनिया — बसा चुके थे।
भाग 8: मोहब्बत अमर है
वक़्त बीतता गया — जैसे रेत की घड़ी धीरे-धीरे अपनी ज़रूरी रफ़्तार में चलती है।
सना और आरव अब पति-पत्नी ही नहीं, दोस्त, साथी, और एक-दूसरे की प्रेरणा बन चुके थे।
उनका स्कूल अब शहर भर में जाना जाने लगा था। छोटे-छोटे बच्चे वहाँ आकर बड़े सपने देखना सीखते थे।
एक सुबह, स्कूल में "किसी को चिट्ठी लिखो" नाम की गतिविधि थी।
बच्चों से कहा गया, "उन्हें लिखो जिन्हें तुम सबसे ज़्यादा प्यार करते हो।"
बच्चे अपनी माँ, पापा, दोस्तों को चिट्ठियाँ लिखने में जुट गए।
लेकिन एक बच्ची, छोटी रिया, सना के पास आई और बोली:
"मैम, क्या मैं आपको और सर को चिट्ठी लिख सकती हूँ? क्योंकि आपने तो स्कूल को घर बना दिया है…"
सना की आँखें नम हो गईं।
उसने मुस्करा कर कहा, "ज़रूर, रिया। और हम उसे किताब में संभाल कर रखेंगे।"
उस दिन सना ने आरव को देखा — बच्चों के साथ कम्प्यूटर ठीक कर रहा था, कपड़े धूल से सने हुए थे, लेकिन मुस्कान वैसी ही थी।
सना ने अपने मन में एक बात दर्ज की —
"मोहब्बत, शादी नहीं होती… वो रोज़-रोज़ निभाई जाती है, छोटे-छोटे कामों में, ध्यान में, और उस एक वादे में — 'मैं हूँ'।"
कुछ साल बाद…
सना और आरव ने मिलकर कई पीढ़ियों को बदलते देखा।
शहर बदला, सोच बदली, लेकिन उनके बीच का रिश्ता — वक़्त से ऊपर था।
एक शाम सना ने पुराने बुकस्टोर से वही किताब फिर से उठाई — गुलज़ार की नज़्में।
उसने आरव को देखते हुए कहा,
"याद है? यहीं से हमारी कहानी शुरू हुई थी।"
आरव मुस्कराया —
"और अब हम खुद एक किताब बन चुके हैं।"
अंत, लेकिन हमेशा के लिए नहीं…
उनकी मोहब्बत कभी फिल्मी नहीं थी —
वो रोज़मर्रा की धूप-छाँव थी,
कभी कड़वी कॉफ़ी, कभी गर्म जलेबी,
कभी बहस, कभी खामोशी —
लेकिन हर बार लौटकर एक-दूसरे की तरफ।
और इसीलिए…
मोहब्बत अमर है।
क्योंकि जब दो लोग मिलकर एक-दूसरे का घर बन जाएँ,
तो वक़्त भी उनकी कहानी को सलाम करता है।
समाप्त
(या शायद, एक नई शुरुआत…)