भूमिका
यह कहानी उत्तराखंड के एक छोटे से गाँव 'नगनी' की है। यह गाँव प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर था, लेकिन यहाँ एक रहस्य छिपा था जिसे लोग खुलकर नहीं बताते थे। गाँव के बीचों-बीच एक प्राचीन कुआँ था, जिसे लोग 'प्रेतों का कुआँ' कहते थे। कहा जाता था कि वहाँ रात के समय अजीब सी आवाजें आती थीं, और जो भी व्यक्ति रात में वहाँ गया, वह या तो कभी वापस नहीं लौटा या फिर पागल हो गया।
कहानी की शुरुआत
यह 2017 की बात है। दिल्ली यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में एम.ए. कर रहा एक छात्र 'अनिरुद्ध' रिसर्च के लिए उत्तराखंड आया। उसका विषय था – "मानव मस्तिष्क पर भय और अंधविश्वास का प्रभाव"। अनिरुद्ध को इस गाँव के बारे में एक स्थानीय पत्रिका में पढ़ने को मिला और वह रिसर्च के लिए वहाँ पहुँच गया।
गाँव के बुजुर्गों ने उसे पहले ही चेताया कि वह कुएं के पास न जाए। लेकिन अनिरुद्ध एक व्यावहारिक और तर्कवादी युवक था। उसे इन सब बातों पर विश्वास नहीं था।
पहली रात
गाँव के बाहर एक पुराना घर उसे ठहरने के लिए दिया गया। पहली रात को ही अजीब घटनाएँ शुरू हो गईं। रात के 2 बजे दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुल गया। उसने समझा कि हवा होगी, लेकिन अगले दिन सुबह जब उसने गाँव वालों से इस बारे में पूछा तो वे चुप हो गए। किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उनकी आँखों में डर साफ़ झलक रहा था।
रात के साए
दूसरी रात उसे सपने में एक औरत दिखाई दी – सफेद साड़ी में, बिखरे बाल, आँखों में गहरा दर्द और क्रोध। वह बार-बार कह रही थी: "उसे बाहर मत निकालो... उसे बंद ही रहने दो!" अनिरुद्ध की नींद टूट गई और उसने पाया कि उसका कमरा बर्फ की तरह ठंडा हो गया था।
कुएँ की ओर
तीसरे दिन वह सीधे उस कुएँ की ओर गया। चारों ओर एक अजीब सी चुप्पी थी। उसने देखा कि कुएं के आसपास पीली मिट्टी फैली हुई थी और वहाँ हवा भी स्थिर थी।
अचानक उसे कुएँ से किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। वह झांकने ही वाला था कि पीछे से किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया। वह गाँव की एक बूढ़ी औरत थी, जिसका नाम था – सोमवती। उसने कहा, “इस कुएं में सिर्फ़ पानी नहीं, आत्माएँ भी हैं।”
भूतिया इतिहास
सोमवती ने जो बताया वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था। 1947 के समय जब विभाजन हुआ था, तब उस गाँव में कुछ हिंसक लोग घुस आए थे। उन्होंने गाँव की कई महिलाओं को उसी कुएं में फेंक दिया था। तब से वहाँ उन महिलाओं की आत्माएँ भटक रही हैं।
कुएँ पर एक तांत्रिक ने मंत्रों से उसे बंद कर दिया था, लेकिन हर पूर्णिमा को उस कुएँ की मुहर ढीली पड़ जाती है और आत्माएँ बाहर आने की कोशिश करती हैं।
अनुसंधान से विनाश की ओर
अनिरुद्ध ने अपनी रिसर्च जारी रखी। उसने निर्णय लिया कि वह कुएँ की सच्चाई सबके सामने लाएगा। एक रात वह अपने कैमरा और उपकरणों के साथ कुएँ के पास गया। जैसे ही वह कैमरा ऑन कर कुएँ की वीडियो बनाने लगा, हवा तेज़ हो गई। पेड़ हिलने लगे, जानवर चिल्लाने लगे, और कुएँ से काली धुंध निकलने लगी।
मिलन – परछाई का
अचानक उसकी आँखों के सामने वही औरत प्रकट हुई जो उसे सपनों में दिखती थी। लेकिन इस बार वह बेहद क्रोधित थी। उसने कहा – “तुमने मेरी नींद तोड़ी है, अब तुम भी हमारे साथ चलो।” और देखते ही देखते अनिरुद्ध कुएँ में खिंचने लगा।
बचाव और विस्मृति
सोमवती समय रहते वहाँ पहुँच गई। उसने अपने पति द्वारा सिखाए कुछ प्राचीन मंत्रों का जाप शुरू किया और एक त्रिशूल के सहारे उस आत्मा को रोकने की कोशिश की। भारी संघर्ष के बाद, अनिरुद्ध को बाहर खींच लिया गया, लेकिन वह होश में नहीं था।
मनोविज्ञान से आत्मविज्ञान तक
जब वह होश में आया तो उसे कुछ भी याद नहीं था। उसकी रिसर्च अधूरी रह गई। वह दिल्ली लौट गया, लेकिन अब वह पहले जैसा नहीं रहा। अक्सर रात को नींद में बोलता – "उसे बाहर मत निकालो... नहीं, नहीं!"
अंतिम चेतावनी
गाँव के लोगों ने अब उस कुएँ के चारों ओर लोहे की मोटी जंजीर और सीमेंट का ढक्कन लगा दिया है। लेकिन कहते हैं – हर पूर्णिमा की रात, वहाँ से किसी औरत की चीख़ अब भी सुनाई देती है।
निष्कर्ष
यह कहानी सिर्फ़ अंधविश्वास नहीं, बल्कि उस सत्य का प्रतीक है जो हमारी आँखों से परे है। विज्ञान बहुत कुछ समझा सकता है, लेकिन आत्मिक शक्तियाँ और उनकी व्यथा आज भी हमारे बीच कहीं न कहीं जीवित हैं।
(यह कहानी एकत्रित तथ्यों और प्रत्यक्षदर्शियों के आधार पर आधारित है। पाठकों को सुझाव है कि वह इसे खुले मन से पढ़ें और स्वयं निर्णय लें कि यह कहानी सिर्फ़ डर है... या हकीकत।)
-समाप्त-
लेखक:- शैलेश वर्मा