भाग 1: अंधकार का आगमनवर्ष 1128 ईस्वी का अंतिम मास था। मध्य भारत के घने वनों के बीच बसा था एक महान और समृद्ध राज्य — वर्धनगढ़। ऊँचे पहाड़ों, गहरी नदियों और दुर्गम घाटियों से घिरा यह राज्य, वर्षों से अपने शौर्य, वैभव और रहस्यों के लिए जाना जाता था। परंतु इसके मध्य स्थित था एक रहस्य — "कृष्णदुर्ग", एक काला किला जो सदियों से वीरान और श्रापित माना जाता था।कोई नहीं जानता था कि कृष्णदुर्ग में क्या है। लोगों का विश्वास था कि वहाँ रक्तचंदा देवी की आत्मा बसती है — एक दैवी शक्ति जिसे वर्धनगढ़ के पूर्वजों ने श्रापित किया था। कहते हैं, जो भी कृष्णदुर्ग में प्रवेश करता है, या तो जीवित नहीं लौटता, या फिर पागल होकर जीवन भर भटकता है।इसी रहस्य के बीच जन्मी थी राजकुमारी निशायिनी। महाराज वीरसिंह और रानी भानुमति की एकमात्र संतान — बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, और गहन अंधकार की ओर आकर्षित। जहाँ अन्य राजकुमारियाँ श्रृंगार और संगीत में लीन होतीं, निशायिनी तलवार, शस्त्र, और रहस्यग्रंथों की जिज्ञासु विद्यार्थी थी। वह दिन में सूर्य की तरह तेजस्वी और रात में चंद्रमा की तरह रहस्यमयी थी।
भाग 2: वह रातएक रात्रि, अमावस्या की रात, वर्धनगढ़ के राजमहल में अचानक आकाश से अग्नि-पिंड गिरा। समूचा महल हिल उठा। आकाश में विचित्र नीली रौशनी फैली। उस क्षण राजपुरोहित ने भविष्यवाणी की —"श्राप जाग चुका है… कृष्णदुर्ग का द्वार फिर खुलेगा… और उसका सामना केवल ‘रात्रि में जन्मी कन्या’ ही कर सकती है…"निशायिनी चौंकी। उसका जन्म भी अमावस्या की रात को हुआ था। क्या वह वही कन्या है?रानी भानुमति भयभीत हो उठीं। राजा वीरसिंह ने राजपुरोहित की भविष्यवाणी को नकारा, परंतु निशायिनी जान चुकी थी — भाग्य उसे एक अदृश्य युद्ध की ओर खींच रहा था।
भाग 3: रहस्य का द्वारएक सप्ताह पश्चात, वर्धनगढ़ में भयावह घटनाएं घटने लगीं। गाँवों के लोग गायब होने लगे। सैनिकों को जंगलों में खून से लथपथ लाशें मिलतीं, जिनके चेहरे डर से विकृत होते। हर शव के पास काले धागे से बनी एक प्रतीक-मुद्रा पाई जाती — वह थी रक्तचंदा देवी का प्रतीक।निशायिनी ने अकेले ही जंगलों का भ्रमण प्रारंभ किया। वहाँ उसे एक बूढ़ा तांत्रिक मिला — महर्षि वेगदत्त। उसने कहा,"कृष्णदुर्ग का श्राप जाग चुका है, कन्या… अब समय है कि तुम अपने पूर्वजों के अपराध का प्रायश्चित करो…"“कैसे?” — निशायिनी ने पूछा।"रक्तचंदा को शांति तभी मिलेगी जब उसके रक्षक की आत्मा मुक्त की जाएगी — वह रक्षक तुम हो… पिछले जन्म की रक्षक…
"भाग 4: पूर्वजन्म का रहस्यमहर्षि वेगदत्त ने उसे एक प्राचीन ज्योति-पत्र दिखाया। उसमें एक योद्धा स्त्री चित्रित थी — उसकी आँखें, चेहरा, सब कुछ निशायिनी से मिलता था। वह थी — "धारा", रक्तचंदा की मुख्य रक्षक, जिसने हजार वर्ष पूर्व राक्षसी शक्तियों से युद्ध किया था, परंतु धोखे से उसे ही श्रापित कर दिया गया।अब वही आत्मा पुनर्जन्म लेकर निशायिनी बनी थी। और रक्तचंदा की आत्मा अब भी कृष्णदुर्ग में कैद थी — प्यास, क्रोध और बदले से भरी हुई।
भाग 5: कृष्णदुर्ग का प्रवेशएक काली रात, निशायिनी ने अपने घोड़े "मेघवर्ण" के साथ कृष्णदुर्ग की ओर प्रस्थान किया। चारों ओर घना अंधकार था, पक्षियों की चीख, पेड़ों की सरसराहट और हर कदम पर मृत्यु का आभास।कृष्णदुर्ग का द्वार खुलते ही एक सर्द हवा की लहर निकली। अंदर अजीब सी दीवारों पर रक्त की छाप थी, गलियारों में अनजानी चीखें गूंज रहीं थीं। वहाँ समय थमा हुआ था।वह भीतर बढ़ी। तभी एक परछाईं प्रकट हुई — "कालपुरुष", रक्तचंदा का सेवक, जो पिछले 800 वर्षों से उसकी आत्मा की रक्षा कर रहा था।"कन्या! तू नहीं बच सकेगी… यह तेरी नहीं, मृत्यु की यात्रा है…"निशायिनी ने तलवार निकाली। घमासान युद्ध शुरू हुआ। कालपुरुष की तलवार आग उगलती थी, पर निशायिनी की गति बिजलियों से भी तीव्र थी। एक वार, फिर दूसरा, और अन्ततः… निशायिनी ने कालपुरुष की आत्मा को मोक्ष प्रदान किया।
भाग 6: रक्तचंदा की आत्माकालपुरुष की आत्मा को मुक्ति देने के पश्चात, कृष्णदुर्ग की दीवारें थर्राने लगीं। वहाँ की हर ईंट, हर पत्थर जैसे पीड़ा से कराह उठा। एक विकराल कराह… और तभी प्रकट हुई — रक्तचंदा।वह एक अग्नि-ज्वाला से बनी स्त्री आकृति थी — केशों में नाग, आँखों में ज्वाला, और स्पर्श में मृत्यु।"धारा…!" — उसका स्वर गूंजा — "तू लौट आई? क्या फिर मुझे छला जाएगा?"निशायिनी ने सिर झुकाकर कहा —"मैं छली नहीं, प्रायश्चित करने आई हूँ। तेरे क्रोध ने सैकड़ों निर्दोषों की जान ली है, अब तुझे शांति चाहिए… तुझे मोक्ष चाहिए।"रक्तचंदा हँसी। उसकी हँसी से कृष्णदुर्ग की छत ढहने लगी।"शांति? मैं अग्नि हूँ, मैं दंड हूँ… तू क्या जाने मेरे भीतर की तपिश?"निशायिनी ने अपने रक्त से रचित मंत्रों की माला उठाई — वह माला जो महर्षि वेगदत्त ने दी थी। जैसे ही उसने वह माला हवा में घुमाई, पूरा किला लाल आभा में चमकने लगा। मंत्रोच्चार प्रारंभ हुआ।"ॐ रक्तायै नमः… जगत्स्वरूपिण्यै नमः…"रक्तचंदा चीखी — उसका अस्तित्व डगमगाने लगा। वह पीछे हटी —"मुझे बंद मत कर… मुझे फिर श्राप मत दे…"निशायिनी चुप रही। उसने आखिरी मंत्र बोला और रक्तचंदा की आत्मा को प्राचीन अग्निशिला में बाँध दिया — परंतु…
भाग 7: आत्मसंघर्षअग्निशिला जलने लगी — लेकिन कुछ पल पश्चात, एक अद्भुत घटना घटी।निशायिनी की आँखें रक्तचंदा की तरह चमकने लगीं।महर्षि वेगदत्त दौड़े-दौड़े वहाँ पहुँचे।"यह क्या हुआ?" — एक सैनिक चिल्लाया।महर्षि बोले —"निशायिनी ने न केवल श्रापित आत्मा को बांधा… उसने उस शक्ति को अपने भीतर समाहित कर लिया…"निशायिनी अब ‘धारा’ और ‘रक्तचंदा’ दोनों थी — प्रकाश और अंधकार का संगम।उसने कहा —"अब मैं किसी किले में कैद आत्मा नहीं… मैं स्वयं एक शक्ति हूँ… और मेरी शक्ति का उद्देश्य है — जन की रक्षा।
"भाग 8: राज्य की मुक्तिवर्धनगढ़ में उजाला फैल चुका था। लोगों ने देखा, कृष्णदुर्ग से स्वर्ण-ज्योति उठी — मानो सदियों का श्राप भस्म हो चुका हो।निशायिनी ने सारे ग्रामीणों की हड्डियाँ इकट्ठी कर उन्हें सम्मानपूर्वक अग्निसंस्कार दिया। पूरे राज्य में शांति लौटी।महाराज वीरसिंह ने निशायिनी को वर्धनगढ़ की रक्षिका घोषित किया — "अब यह कन्या, नारी नहीं, एक युग की देवी है।"
भाग 9: अंतिम रहस्यपरंतु महर्षि वेगदत्त ने एक गूढ़ भविष्यवाणी की —"एक दिन, जब पुनः अंधकार उठेगा, और मानवता अपने पथ से भटकेगी, तब ‘निशायिनी’ फिर जन्म लेगी — एक नई देह में, एक नए युग में… पर उद्देश्य वही होगा — रक्षा और प्रायश्चित।"
भाग 10: काल के पारवर्षों बीते। निशायिनी ने विवाह नहीं किया। उसने जीवन ब्रह्मचर्य और तपस्या में बिताया। परंतु वह गुमनाम नहीं हुई —
वह जननी बनी हजारों योद्धाओं की।कहते हैं, आज भी कृष्णदुर्ग के खंडहरों में, रात्रि की शांति में कोई स्त्री-छाया तलवार चलाती दिखाई देती है —
वह निशायिनी है।
समाप्त
शैलेश वर्मा