Kafla yu hi Chlta Raha - 1 in Hindi Motivational Stories by Neeraj Sharma books and stories PDF | काफला यूँ ही चलता रहा - 1

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काफला यूँ ही चलता रहा - 1

काफला यूँ ही चलता रहा ---- ये उपन्यास भी सत्य घटना पर आधारित है, इसको भी सत्य ही समझा जाये, मेरी जिम्मेदारी है, मगर इसके पात्र जो है कल्पनिक, स्थान वही है।

ये कहानी की स्क्रिप्ट एक बुड़े आदमी अशोक दा से शुरू होती है, जिसकी बहुत सी मछियो की दुकानों मे उसकी भी एक छोटी सी दुकान है, जो बम्बे की झोपड़ पटी की सड़क पर है। रात के नौ वजे का समय ------

तभी एक पुलिस वर्दी मे एक कद मे छोटा गोल मटोल सा कास्टेबल हाथ मे डंडा लिए उपस्थित होता है।

" अशोक दा कैसे लगायी ये संगाड़ा मछी। "

" आप के लिए जनाब 300 की किलो छलाई कर के साहब " देखने मे अशोक दा 50 की उम्र का होगा -- सधारण किस्म का, मगर सब उसको दादा नाम से पुकारते थे। माथे पर एक वालो की घनी लट ऐसे ही गिरी रहती थी, वो काले रंग की कुदरती ही थी।

जायदा तर वो चुप ही रहता था... कारण कोई होगा पीछे।

"चलो 2 किलो कर दो, साफ काट कर... काटा न हो --" उसने जैसे उदेश्य दिया। जल्दी से उसने ऐसा ही किया। 600 रु कास्टेबल ने दिए.. वो उसने मोमजामे के पर्स मे रख लिए।

अब उसने दुकान को समेट दिया था कल के लिए। अशोक दा नीचे उत्तराई से उतर गया था.. और झूपड़ी की और निकल पड़ा था, एक छोटी सा खोला था.. जिसमे उसने जिंदगी को समेटे हुए था ----साथ दो बड़े बच्चे थे, वो दसवीं तक ही मुश्किल से पढ़े थे। दिमाग़ के बहुत तेज होने के कारण एक कारपोहेड ऑफिस की कार का ड्राइवर था, दूसरा थोड़ा चुस्त और बाईमान किस्म का कर के कुछ लफ्टरो से मिल कर बड़ी दुकानों से हफ्ता वसूली करता था। अशोक दा की बीवी जल्दी स्वर्ग सिधार गयी थी। उसकी फोटो खोले मे बड़ी सी कर रखी हुई थी।

ये उपन्यास की पहली कड़ी थी....

उसका दूसरा मित्र चिता मनी था.. जो उसके लगभग उम्र का था ---- अमीर था बस बईमानी के पैसे से बना हुआ।

आज भी पैसे उधार देता था सूद पर। अच्छा घर था। एक बेटी जो लड़न पढ़ने के लिए गयी थी। हाँ, अगर कोई सुंदर गठिले जिस्म वाली आज भी आ जाती.. तो उसे सूद कम कर लेता था। नाले का बेशर्म कच्चा था। सच मे।

ये उपन्यास की कहानी मर्मिक है, कैसे कैसे लोग है इस धरती पर जो मगनू जैसे लहू चूसते है आदमी का -------

फिर चिंतामनी की तरा परेशान रहते है..." सोचते है अशोक दा इतना कम कमाता है खोले मे रहता है खुश कयो है ??"

बस यही बात तो कभी समझ आती ही नहीं... हमें सकून कयो नहीं है ------

उसे सकून कयो है, बस -------- गरीब इंसान की हसरत भी तो पैसो को देख कर ही बनती है, ऐशो आराम भला किसे अच्छे नहीं लगते। कौन जीना नहीं चाहता ऐशो आराम मे, भूख कया है किसी भूखे को पूछ कर देखो,  रजे हुए के तो नखरे ही काफ़ी होते है। जिंदगी वही है जिसको सकून मिल जाये। वर्ना जिंदगी भर आदमी सकून के मगर भागता रहता है।

गरीब आराम से जीता है, मरता भी वो सकून से ही है।

(चलदा ) --- नीरज शर्मा।