काफला यूँ ही चलता रहा -------(5)
खारो पर जो सारी जिंदगी चले हो, फूल भी उनको खार की तरा ही लगते है ----ये मनोविज्ञान की किताब मे लिखा कैसे मै भूल सकता हूं। लम्बा जवान सडोल बाड़ी मे पहली वार उसे देखा था... आज वो लेट ही उठा था.. खोली मे जमीन मे सोना उसे सब तकलीफो से दूर कर देता था, लेट सोना, लेट उठना उसका मूड ही बन गया था। और भी बहुत कुछ शामिल था। इसी को जिंदगी कहते है। मौज मस्ती की। वो अक्सर आपने बापू के बारे ही सोचता था। जो जयादा सच भी होता, झूठ भी, याद करता कभी मूसलादार वर्षा को -----------
कैसे एक बाप संभालता आपनी औलाद को, इतनी वर्षा मे -----किस्मत नद खोली से जयादा शायद कुछ भी नहीं दिया। सच मे। पहले पहले इतनी कठिनता थी.. जिंदगी मे, बदबू थी सब और बेशुमार ---कया करते, बस जिंदगी आदि हो गयी धीरे धीरे।
कभी कभी वो आपने पिता अशोक के बारे सोचता था।
"दादा पिता जी को सारे कयो कहते है ---- कोई कारण तो होगा... "
तभी एक महला ने आवाज़ दी ---" खोहली मे कोई है या नहीं। "
बोलो ताई... " विजय ने जल्दी मे कहा।
"आपने बाप को ले आ, बेटा नाले की दूसरी और गिरा पड़ा है, सर पर खून और लगे है किसी ने मारा है।" सुन कर विजय हड़बड़ा गया।
भाग कर गया।
देखा -------------------------------
अशोक एक तरफ लेटा हुआ, खून की कदाद जयादा निकल रही थी... साथ मे उसके तीन दोस्त और वो एक डिस्पैचरी मे उठा कर ले गए थे...
वो बस बोल रहा था --- "मादर जात छोड़ूगा नहीं... "
डिस्पेंचरी वाले थोड़ा घबरा से गए.... "जनाब पहले Fir का मामला है हम ऐसा नहीं कर सकते।"
"कयो ?" ---- "सर ऐसा कुछ भी नहीं है, आप सिग्नेचर ले सकते है। "
चलो ----- फार्मेल्टी हुई ----- राहत मिली।
पिता जी दो दिन बाद घर पर आये, मुहल्ला आ गया था, पता लेने।--------
"आप को किसी ने मारा "
"नहीं, मरेगा हमें मार कर "
"कोई काम - दाम पर नहीं गए तुम "
"कैसे जाता ---- आप आज ठीक हुए है। "
"----ओह ---- मेरी चिता मे.... "
"चलो कोई तो है जो अशोक दा की सेवा करता है " ये शब्द वो तेज़ी मे बोल गया।
फिर सब और स्नाटा था... एक लम्मी चुप।
" बड़े रामकृष्ण का ही पता ले लो... पता नहीं ये किस किस मे मुँह काला करेगा। " चिड़ कर बोला अशोक दा।
"बेटा... इसे सुधार दो। पता नहीं किस मिटी का है, टांग ही तोड़ दें कमबख्त की "
"नहीं पापा जी ----- जो बाप ने किया होता है बेटे वही तो करते है सच मे " अशोक जैसे उच्ची से हसा।
अशोक की आखें नम थी।--"--ठीक ही कहते हो बेटा ----"
अशोक दा घुट के ही रह गया था। पटरी पे चलती गाड़ी चले तो सही लगता है, अगर पलट जाए तो बस। बद नसीबी।
सुबह के 11 का टाइम था.... गड़बड़ ये थी कि भोजन किसी ने नहीं खाया था। पता कयो, बस यही फर्क होता है, पत्नी का और माँ का... वो रसोई मे हो तो कोई भूखा नहीं उठता, हमेशा याद रखना ---- ज़िन्दगी की कमान कभी ढ़ीलीं मत होने देना ---- पता कयो, कभी कोई तीर निशाने पर नहीं लगते।
(चलदा )-------------------- नीरज शर्मा