शांति का मार्ग
एक दिन गौतम बुद्ध अपने शिष्यों के मध्य शांति की चर्चा कर रहे थे। चर्चा करते हुए उन्होंने अपने शिष्यों को एक कथा सुनाई-
एक व्यापारी था। उसने व्यापार में खूब कमाई की। बड़े-बड़े मकान टनवाए, नौकर-चाकर रखे, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि उसके दिन फिर गए। व्यापार में घाटा आया और वह एक-एक पैसे के लिए मोहताज हो गया। जब उसकी परेशानी असहनीय हो गई, तब वह एक साधु के पास गया और रोते हुए बोला, "महाराज, मुझे कोई मार्ग बताइए, जिससे मुझे शांति मिले।"
साधु ने पूछा, "तुम्हारा सबकुछ चला गया?"
व्यापारी ने कहा, "हाँ महाराज।"
साधु बोला, "तुम्हारा था तो उसे तुम्हारे पास रहना चाहिए था। वह चला कैसे गया?"
व्यापारी चुप हो गया।
"जन्म के समय तुम अपने साथ कितना धन लाए थे?"
"स्वामीजी, जन्म के समय तो सब खाली हाथ आते हैं।"
साधु बोला, "ठीक है, अब यह बताओ कि मरते समय अपने साथ कितना ले जाना चाहते हो?"
"मरते समय साथ कौन ले जाता है, जो मैं ले जाऊँगा।"
साधु बोला, "जब तुम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जाओगे तो फिर चिंता किस बात की करते हो?"
व्यापारी ने कहा, "महाराज, जब तक मौत नहीं आती, तब तक मेरी और मेरे घरवालों की गुजर-बसर कैसे होगी?"
साधु हँस पड़ा-"जो धन के भरोसे रहेगा, उसका यही हाल होगा। तुम्हारे हाथ-पैर तो हैं, उन्हें काम में लाओ। पुरुषार्थ सबसे बड़ा धन है। ईश्वर पर भरोसा रखो। शांति का यही एकमात्र मार्ग है।
व्यापारी की आँखें खुल गईं। उसका मन शांत हो गया। जाने कितने वर्षों के बाद पहली बार रात को उसे चैन की नींद आई और उसके शेष दिन बड़े आनंद में बीते।
साधु का बोध
प्रातःकाल दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर गौतम बुद्ध के सभी शिष्य एर्कत्र हो गए। गौतम बुद्ध ने संदेश देना आरंभ किया, बोले, "आज मैं तुम्हें ऐसे व्यक्ति की कथा सुनाता हूँ, जिसके पास सबकुछ होते हुए भी वह दुखी था।" गौतम बुद्ध ने कहना आरंभ किया-
किसी नगर में एक सेठ रहता था। उसके पास लाखों की संपत्ति थी, बहुत बड़ी हवेली थी, नौकर-चाकर थे। फिर भी सेठ के मन को शांति नहीं थी। एक दिन किसी ने उसे बताया कि अमुक नगर में एक साधु रहता है। वह लोगों को ऐसी सिद्धि प्राप्त करा देता है कि उससे मनचाही वस्तु मिल जाती है।
सेठ उस साधु के पास गया और उसे प्रणाम करके निवेदन किया, "महाराज, मेरे पास धन की कमी नहीं है, पर फिर भी मेरा मन बहुत अशांत रहता है। आप कुछ ऐसा उपाय बता दीजिए कि मेरी अशांति दूर हो जाए।"
सेठ ने सोचा कि साधु बाबा उसे कोई तावीज दे देंगे या और कुछ कर देंगे, जिससे उसकी इच्छा पूरी हो जाएगी; लेकिन साधु ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।
अगले दिन उसने सेठ को धूप में बिठाए रखा और स्वयं अपनी कुटिया के अंदर छाया में जाकर चैन से बैठा रहा। गरमी के दिन थे। सेठ का बुरा हाल हो गया। उसको बहुत गुस्सा आया, पर वह उसे चुपचाप पी गया।
दूसरे दिन साधु ने कहा, "आज तुम्हें दिनभर खाना नहीं मिलेगा।"
भूख के मारे दिनभर सेठ के पेट में चूहे कूदते रहे। अन्न का एक दाना भी उसके मुँह में नहीं गया; लेकिन उसने देखा कि साधु ने तरह-तरह के पकवान उसी के सामने बैठकर बड़े आनंद से खाए।
सेठ सारी रात परेशान रहा। उसे एक क्षण को भी नींद नहीं आई। वह सोचता रहा कि साधु तो बड़ा स्वार्थी है।
तीसरे दिन सवेरे ही उठकर उसने अपना बिस्तर बाँधा और चलने को तैयार हो गया। तभी साधु बाबा उसके सामने आकर खड़े हो गए और बोले, "सेठ, क्या हुआ?"
सेठ ने कहा, "मैं यहाँ बड़ी आशा लेकर आपके पास आया था, लेकिन मुझे यहाँ कुछ नहीं मिला। उलटे ऐसी मुसीबतें उठानी पड़ीं, जो मैंने जीवन में कभी नहीं उठाई। मैं जा रहा हूँ।"
साधु हँसकर बोला, "मैंने तुम्हें इतना कुछ दिया, पर तूने कुछ भी नहीं लिया।"
सेठ ने विस्मय भाव से साधु की ओर देखा और बोला, "आपने तो मुझे कुछ भी नहीं दिया।"
साधु ने कहा, "सेठ, पहले दिन जब मैंने तुम्हें धूप में बिठाया और स्वयं छाया में बैठा रहा। तब मैंने तुम्हें बताया कि मेरी छाया तेरे काम नहीं आ सकती। जब मेरी बात तेरी समझ में नहीं आई तो दूसरे दिन मैंने तुम्हें भूखा रखा और स्वयं खूब अच्छी तरह खाना खाया। उससे मैंने तुम्हें समझाया कि मेरे खा लेने से तेरा पेट नहीं भर सकता। सेठ, याद रख, मेरी साधना से तुझे सिद्धि नहीं मिलेगी। धन तूने खुद पुरुषार्थ से कमाया है और शांति भी तुझे अपने ही पुरुषार्थ से मिलेगी।"
सेठ की आँखें खुल गईं। अब उसे अपनी मंजिल पर पहुँचने का रास्ता मिल गया था। साधु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हुआ वह अपने घर लौट आया।