Goutam Buddh ki Prerak Kahaaniya - 9 in Hindi Short Stories by Anarchy Short Story books and stories PDF | गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 9

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गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 9

त्याग का महत्त्व

एक दिन भ्रमण करते हुए गौतम बुद्ध के एक शिष्य ने त्याग का महत्त्व एक जानने की जिज्ञासा प्रकट की। तभी गौतम बुद्ध ने अपने सभी शिष्यों को एक स्थान पर बैठने का आदेश दिया और त्याग का महत्त्व समझाते हुए उन्हें एक कथा सुनाई-

       किसी देश में एक राजा राज करता था। वह बहुत ही अभिमानी था। अपने बराबर किसी को नहीं समझता था। कारण, उसका राज्य विशाल था। राजकोष धन से भरा था। उसके पास बहुत बड़ी सेना थी और उसके आस-पास नौकर-चाकरों की पलटन थी, जो हर घड़ी उसका हुक्म बजाती रहती थी। चापलूस उसके अहंकार को बढ़ावा देते रहते थे। संयोग से एक दिन एक फकीर उस राजा के यहाँ आया। उसके चेहरे पर तेज चमक रहा था और आँखों में प्रेम भरा था। उसने राजा की ओर देखा और उसकी भाव-भंगिमा से क्षणभर में ताड़ गया कि राजा धन-दौलत और सत्ता के मद में चूर है, उसकी भीतर की आँखें बंद हैं। अपने स्वभाव के अनुसार राजा ने कड़ककर पूछा, "फकीर, तुझे क्या चाहिए?"

      मुसकराकर फकीर ने कहा, "राजन्, मैं आपसे कुछ लेने नहीं, अपितु आपको कुछ देने आया हूँ।"

      सुनकर राजा के अभिमान को गहरी चोट लगी। उसने सोचा कि इस भिखमंगे की इतनी जुर्रत कि मुझ जैसे वैभवशाली और सर्वसत्ताधारी के साथ ऐसा व्यवहार करे।

     राजा ने चीखकर कहा, "ऐ फकीर ! छोटे मुँह बड़ी बात करते तुझे शर्म नहीं आती? जिसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं, वह किसी को क्या देगा? जो स्वयं दर-दर से भीख माँगता है, वह राजा की बराबरी क्या करेगा?"
      फकीर राजा की गोंक्ति सुनकर हँसता हुए बोला, "आप ठीक कहते हैं महाराज, आपके पास बहुत कुछ है, जो मेरे पास नहीं है, पर राजन् अकिंचन के पास भी कुछ होता है, जो दुनिया की माया से अधिक महत्त्व रखता है।"

        राजा की आँखों में खून उतर आया, "अपनी बकवास बंद करो।"

       जैसे किसी रोगी से बात कर रहा हो, फकीर ने कहा, "राजन्, बिना त्याग के भोग बेस्वाद है। वैभव में जब त्याग जुड़ जाता है तो वह महक उठता है। जानते हो, त्याग के आते ही अहंकार मिट जाता है, आसक्ति दूर हो जाती है और अंदर की आँखें खुल जाती हैं।"

      फकीर के शब्दों में मानो कोई जादू था। राजा को बोध हुआ, उसका सोया हुआ इनसान जाग उठा, उसने अनुभव किया कि त्यागी के आगे भोगी कितना छोटा है। उसकी आँखों से अज्ञान का परदा हटते ही उसके जीवन में एक नया मोड़ आ गया।

       "अतः कहना उचित नहीं होगा कि त्याग का महत्त्व सर्वोपरि होता है।" कहते हुए बुद्ध ने सभी शिष्यों को आगे चलने का आदेश दिया।

बिना सेवा विद्या नाहि

धीरे रे-धीरे शाम ढलती जा रही थी। अँधेरा गहराता जा रहा था। बुद्ध के शिष्यों के चेहरों पर थकान साफ झलक रही थी, बुद्ध समझ चुके थे कि शिष्यों को विश्राम की आवश्यकता है। अतः उन्होंने एक सुरक्षित स्थान देखकर शिष्यों को रुकने का आदेश दिया।

      कुछ समय पश्चात् एक शिष्य ने बुद्ध से प्रश्न किया, "भंते! क्या विद्या को किसी से बल द्वारा भी सीखा जा सकता है?"

     "कदापि नहीं, विद्या को केवल सेवा-भाव से ही सीखा जा सकता है।" इसी संबंध में मैं तुम्हें एक बहुत बलशाली राजा की कथा सुनाता हूँ, सुनो-

      एक फकीर था। वह जंगल में घास-फूस की कुटिया बनाकर रहता था। उसे एक विद्या आती थी, वह पीतल को सोना बना देता था, लेकिन इस विद्या का प्रयोग वह तभी करता था, जब उसे उसकी बहुत आवश्यकता होती थी और वह भी गरीबों के फायदे के लिए।

     एक दिन एक बहुत ही गरीब ब्राह्मण उसके पास आया। उसको अपनी लड़की का विवाह करना था और उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसने फकीर को अपनी परेशानी बताई। फकीर ने समझ लिया कि यह सचमुच परेशानी में है।

     उसने पीतल के एक बरतन को सोने का बनाकर उसे दे दिया और कहा कि इस बरतन को बेचकर उन रुपयों से अपनी बेटी का विवाह कर लेना।

       ब्राह्मण उस बरतन को लेकर एक सुनार की दुकान पर गया।

      जब उसने सुनार को वह बरतन दिखाया तो सुनार को संदेह हुआ। ऐसे फटेहाल आदमी के पास सोने का बरतन ! हो न हो, यह राजा का ही है। सुनार उसे पकड़कर राजा के पास ले गया। राजा ने पूछा कि क्या बात है। तो उसने सारी बात सच-सच बता दी।

      बात सुनकर राजा के मन में लालच आ गया। उसने सोचा, फकीर को बुलाकर यह विद्या अवश्य सीखनी चाहिए।

      यह सोचकर उसने ब्राह्मण को तो छोड़ दिया, साथ ही अपने एक सिपाही से कहा कि जाओ और उस फकीर को पकड़कर ले आओ। सिपाही गया और थोड़ी देर में ही फकीर को लेकर आ गया। राजा ने कहा, "फकीर, तुम पीतल को सोना बनाना जानते हो?"

        फकीर बोला, "जी हाँ।"

        राजा ने कहा, "यह विद्या हमें सिखा दो।"

        फकीर निडरता से बोला, "नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता।"

        "जानते हो, मैं कौन हूँ।" राजा ने कड़ककर कहा।

         फकीर बोला, "जानता हूँ, खूब अच्छी तरह से जानता हूँ।"

          राजा को बहुत गुस्सा आया।

         उसने कहा, "मैं तुम्हें पंद्रह दिन का समय देता हूँ। अगर इस बीच तुमने मुझे विद्या सिखा दी तो ठीक, नहीं तो फाँसी पर लटकवा दूँगा।"

       उसने फकीर को भेज दिया। वह रोज शाम को उसके पास सिपाही भेजता कि वह तैयार है या नहीं। फकीर का एक ही उत्तर-"नहीं।"

      ऐसी विद्या को राजा छोड़ना नहीं चाहता। उसने देख लिया कि फकीर को डराने-धमकाने से कोई नतीजा नहीं निकलेगा तो उसने दूसरा उपाय सोचा। जब सात दिन बाकी रह गए तो उसने अपना भेष बदला और फकीर के पास जाकर उसकी सेवा करने लगा। उसने फकीर की इतनी सेवा की कि फकीर खुश हो गया। फकीर ने पूछा, "बोल, तू क्या चाहता है?"

      राजा ने कहा, "मुझे आप वह विद्या सिखा दीजिए, जिससे आप पीतल से सोना बना देते हैं।"

      फकीर ने उसे विद्या सिखा दी और कहा, "देख, इसका इस्तेमाल दीन-दुखियों की भलाई के लिए ही करना।"

       राजा अपने महल में आ गया। पंद्रहवें दिन उसने फकीर को बुलाया और कहा, "बोलो, विद्या सिखाने को तैयार हो या नहीं?"

        फकीर ने कहा, "नहीं।"

       "तो तुम्हें फाँसी लगवा दूँ।"

        "जरूर।"

        तब राजा ने गर्व से हँसकर कहा, "जिस विद्या का तुम्हें इतना घमंड है, उसे मैं जानता हूँ।" इतना कहकर राजा ने एक पीतल के बरतन को सोने का बनाकर दिखा दिया।

      फकीर ने कहा, "राजन, तुमने यह विद्या किसी की सेवा करके सीखी है। विद्या कभी भी डरा-धमकाकर हासिल नहीं की जा सकती।"

        सभी शिष्य कहानी का अर्थ समझ चुके थे। इसके पश्चात् सभी ने एक साथ भोजन किया और विश्राम करने लगे।