Goutam Buddh ki Prerak Kahaaniya - 5 in Hindi Short Stories by Anarchy Short Story books and stories PDF | गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 5

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गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 5

मृत्यु ही अटल सत्य

एक दिन पुनः राजकुमार सिद्धार्थ को नगर-भ्रमण की इच्छा हुई। राजकुमार के आदेश पर छंदक ने रथ तैयार किया और सिद्धार्थ को लेकर नगर-भ्रमण को चल पड़ा। बहुत सावधानी के बाद भी मार्ग में एक करुणाजनक दृश्य दिखाई पड़ ही गया। वह व्यक्ति रोग की अधिकता के कारण निर्बल हो गया था। वह काँपता-कराहता एक ओर को चल रहा था।
       उसे कराहते देख सिद्धार्थ ने पूछा, "इस व्यक्ति को क्या कष्ट है? यह कराह क्यों रहा है?"
        "राजकुमार! यह व्यक्ति कभी बहुत शक्तिशाली था, किंतु रोग ने इसे निर्वल बना दिया है और रोग के कष्टों के कारण ही यह कराह-चिल्ला रहा है।"
             "ओह! क्या यह रोग हर किसी को हो जाता है?"

        "हाँ राजकुमार! रोग राजा, रंक, छोटा, बड़ा और स्त्री-पुरुष किसी में भेद नहीं करता। यह किसी को भी अपनी चपेट में ले लेता है।"

         छंदक की बात सुनकर राजकुमार क्षणभर के लिए विचारमग्न हो गया। छंदक धीरे-धीरे रथ आगे बढ़ा रहा था। अभी उनकी दृष्टि से एक दृश्य हटा ही था कि एक और कारुणिक दृश्य उनके सामने आ गया। चार व्यक्ति एक शैया को चारों कोनों से थामे बढ़े चले जा रहे थे। उनके पीछे कुछ व्यक्ति रोते हुए और कुछ मौन चल रहे थे।

     "छंदक! यह क्या है?" राजकुमार ने पूछा।

     "राजकुमार! एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई है। ये लोग शैया पर डालकर उसका अंतिम संस्कार करने ले जा रहे है। जो व्यक्ति उसके पीछे रोते हुए चल रहे हैं, वे मरने वाले के परिजन हैं।"
        "इस व्यक्ति की मृत्यु क्यों हो गई, छंदक?"

     "राजकुमार! मृत्यु तो अटल सत्य है। यह तो संसार के सभी प्राणियों को आनी है।"

      "तब क्या मैं, यशोधरा, महाराज आदि सभी मृत्यु को प्राप्त होंगे?"

       "अवश्य राजकुमार! कुछ समय पहले या बाद में सभी प्राणियों की मृत्यु होनी निश्चित है, जो जन्म लेता है, वह मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है।"
      छंदक की बात सुनकर सिद्धार्थ मौन हो गया। रथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। राजकुमार सिद्धार्थ की आँखों के सामने दृश्य लगातार बदलते जा रहे थे। सिद्धार्थ अभी विचारमग्न ही था कि आगे से भगवा वस्त्र धारण किए एक व्यक्ति आता हुआ दिखाई दिया। तप और साधना से उस व्यक्ति का मुखमंडल दमक रहा था। उसके होंठों पर स्थायी मुसकान विराजमान थी।

      सिद्धार्थ ने उसे देखकर पूछा, "छंदक ! यह प्रसन्नचित्त और तेजस्वी पुरुष कौन है?"

     "राजकुमार ! यह तपस्वी-संन्यासी है। यह संसार के राग-द्वेष से मुक्त है। संसार में कुछ भी होता रहे, यह सदैव निर्लिप्त रहता है। इसी कारण यह सदैव प्रसन्न रहता है।"

      अब राजकुमार सिद्धार्थ ने मन-ही-मन विचार किया कि इस संसार के भोग विलास में कुछ नहीं रखा। अब मैं भी इस संसार में निर्लिप्त होकर संन्यासी ही बनूँगा। यह विचार कर उसे कुछ संतुष्टि मिली।

सत्य की खोज

राजकुमार सिद्धार्थ ने मन-ही-मन ठान लिया था कि अब उन्हें भी संसार का मोह त्यागकर संन्यासी हो जाना है। सांसारिक सुख, ऐश्वर्य और वैभव विलास में जीवन को व्यर्थ नष्ट करना उचित नहीं है। संसार के रिश्ते-नातों और वैभव प्रदर्शन से उन्हें गहन विरक्ति होने लगी। इसी विरक्ति ने उनके अंतर से संसार की प्रत्येक जड़-चेतन वस्तु-व्यक्ति से मोह को निकालकर बाहर किया।

    जब सिद्धार्थ नगर-भ्रमण से महल में लौटा तो उसे शुभ समाचार मिला कि यशोधरा ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया है। इसी उपलक्ष्य में सारे महल में मंगलगीत गाए जा रहे थे और महल को ही नहीं, राज्यभर को तरह-तरह से सजाया जा रहा था।

    महाराज शुद्धोधन और महारानी प्रजावती की प्रसन्नता की कोई सीमा न थी, किंतु इस शुभ समाचार को सुनकर भी राजकुमार सिद्धार्थ ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की। ऐसा लगता था कि उनके मन में निर्लिप्तता की भावना अपनी जड़ें जमा चुकी थी। सांसारिकता से उनका पूर्णतया मोह भंग हो गया था।

    राजमहल में तरह-तरह के उत्सव और नृत्यगान के आयोजन हो रहे थे, किंतु किसी भी आयोजन में सिद्धार्थ का मन न लगा।

     सिद्धार्थ को पुत्र होने की न तो प्रसन्नता हुई और न ही शोक हुआ। जब शिशु का नामकरण किया गया तो वे मौन ही रहे, निर्लिप्त ही रहे। शिशु का नाम 'राहुल' रखा गया।

    राहुल अभी अत्यंत छोटा ही था कि सिद्धार्थ ने गृह-त्याग कर सत्य की खोज में निकलने का निर्णय किया। यह आषाढ़ की पूर्णिमा थी। चाँद पृथ्वी पर अपनी शीतल छटा बिखेर रहा था। सिद्धार्थ ने अंतिम बार राहुल और यशोधरा की ओर देखा और राजमहल छोड़कर बाहर निकल आए।
      सिद्धार्थ ने अपने सेवक छंदक को निद्रा से जगाया और रथ तैयार करने को कहा। छंदक ने सोचा, संभवतः स्वामी इस समय भ्रमण करने की इच्छा रखते हैं। उसने तुरंत रथ तैयार कर दिया। रथ में सवार होकर सिद्धार्थ ने छंदक को वन की ओर चलने को कहा।

    अनोमा नदी के निकट जंगल में जाकर सिद्धार्थ ने छंदक से रथ रोकने को कहा। रथ रुकते ही वे रथ से नीचे आ गए। सिद्धार्थ ने अपने सभी राजसी अलंकरण ओर वस्त्र उतारकर छंदक को सौंपे और उसे महल लौट जाने का आदेश दिया।
    सिद्धार्थ का आदेश सुनकर छंदक फूट-फूटकर रोने लगा।
    "राजकुमार!" छंदक शोकाकुल स्वर में बोला, "जब महाराज और महारानी आपके संन्यासी होने का समाचार सुनेंगे तो उनका तो हृदय ही फट जाएगा। वे इस दुख को कैसे सहन कर पाएँगे?"

     "छंदक ! यह संपूर्ण संसार ही दुखों का मेला है। संसार में रहकर केवल दुख ही पाया जा सकता है। यदि सुख पाना है तो यह संसार छोड़ना होगा। मैं सुख-दुख की इस श्रृंखला को समाप्त करने के लिए ही गृह त्याग कर रहा हूँ।" और फिर सिद्धार्थ ने कटार से अपने रेशमी, मुलायम केशों को काट डाला।

     छंदक को उन्होंने समझाते हुए कहा, "छंदक। माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना और कहना कि संसार के दुखों-कष्टों को समाप्त करके मुक्ति का मार्ग खोजने के लिए ही मैं गृहत्याग कर रहा हूँ।"
      और इसके बाद सिद्धार्थ ने छंदक को महल लौट जाने का आदेश दिया। सिद्धार्थ के आदेश पर छंदक शोक-निमग्न हो, राजकुमार को प्रणाम करके राजमहल की ओर लौट चला।

    छंदक ने राजमहल में लौटकर राजकुमार सिद्धार्थ के गृहत्याग की सूचना दी तो महाराज शुद्धोधन और महारानी प्रजावती का दुख से बुरा हाल हो गया। यशोधरा तो नीर बहाती हुई विलाप कर उठी।

      राजा शुद्धोधन के मुख से निकला, "आज विद्वान् पंडितों और ज्योतिषियों की भविष्यवाणी सत्य हो गई। मेरा प्रिय पुत्र गृह त्याग कर लोक का कल्याण करने के लिए संन्यासी बनने को निकल पड़ा। उसे मेरे अनेकों प्रयास भी न रोक पाए।"

     यशोधरा ने अपने पति के राजसी अलंकरणों के त्याग की बात सुनकर अपने शरीर से सभी अलंकरण त्याग दिए, केवल सुहाग-चिह्नों को ही शरीर पर धारण किया। यहाँ तक कि पृथ्वी पर सोना और पत्तल पर खाना उसने अपना नियम बना लिया।

     राजकुमार सिद्धार्थ के गृह-त्याग से राजमहल में शोक का सन्नाटा छा गया। राजमहल का वाद्य-संगीत और पायल की रुन-झुन भी न जाने कहाँ खो गई।